Nehru Files - 73 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-73

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नेहरू फाइल्स - भूल-73

भूल-73 
पुराने ‘अच्छे’ दिनों में भ्रष्टाचार 

“भ्रष्टाचार वेश्यावृत्ति से भी बदतर है। वेश्यावृत्ति करनेवाला सिर्फ व्यक्ति की नैतिकता को खतरे में डाल सकता है, जबकि भ्रष्टाचारी तो पूरे देश की नैतिकता को खतरे में डालता है।” 
—कार्लक्रॉस, उन्नीसवीं शताब्दी के व्यंग्यकार

 नेहरू ने कभी भी कांग्रेस या फिर अन्य कामों के लिए धन जुटाने के लिए दूसरों के हाथों को गंदे होने देने से गुरेज नहीं किया। उनके लिए कांग्रेस और खुद के लिए सत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण थी। 

नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल की शुरुआत से ही भ्रष्टाचार के प्रति एक उदासीन और लापरवाही का रुख अपनाया। सन् 1948 के कांग्रेस अधिवेशन में ‘सार्वजनिक आचरण का मानक’, जो इसका आह्व‍ान करता था कि ‘सभी कांग्रेसी, केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्य तथा विशेषकर मंत्रिमंडल के सदस्य एक उदाहरण स्थापित करेंगे और आचरण के उच्‍चतम स्तर को बनाए रखेंगे’ को 107 के मुकाबले 52 के बहुमत के साथ स्वीकार किया गया। हालाँकि, इतने संतुलित और आवश्यक प्रस्ताव को अगले ही दिन वापस ले लिया गया, क्योंकि नेहरू ने यह कहते हुए इस्तीफा देने की धमकी दे दी थी कि यह संकल्प उनकी सरकार को सेंसर करने के समान है। (आर.एन.एस.पी./102) यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस के सदस्य एक अनुचित माँग के आगे क्यों झुके? नेहरू निश्चित रूप से अति आवश्यक नहीं थे—उन्हें इस्तीफा देने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए थी।

 ऐसे कई मामले हैं, जिनमें नेहरू ने भ्रष्टाचार की अनदेखी की, या फिर उसके आरोपियों का बचाव किया। इसने भ्रष्टाचार को स्वीकार्य बनाने की प्रवृत्ति डाल दी। एक प्रकार से, भ्रष्टाचार की नींव नेहरू के समय ही रखी गई थी; हालाँकि मनमोहन सिंह के बिल्कुल विपरीत, नेहरू के पास वे जो चाहते थे, उसे करने के लिए असीमित शक्तियाँ मौजूद थीं। 

सरदार पटेल का मई 1950 में नेहरू के साथ किया गया पत्राचार ऐसी घटनाओं को सामने लाता है, जिनमें ‘नेशनल हेराॅल्ड’ (एन.एच.) को अदले-बदले के तहत पैसा जमा करने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया था—सरकारी ठेकों को अयोग्य लोगों को देते हुए। तब नेहरू के दामाद फिरोज गांधी एन.एच. के महाप्रबंधक थे। हालाँकि, नेहरू इसमें व्यक्तिगत रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन उन्होंने इस असंगतता के खिलाफ कोई कड़ी काररवाई करने के बजाय इस मामले को हलके में लिया और जो इसके जिम्मेदार थे, उनका बचाव किया। इसके अलावा, यह सरदार पटेल के सार्वजनिक जीवन में उच्‍च आचरण को भी सामने लाता है। (यू.आर.एल.47) 

केंद्र और राज्यों में उनके कई साथी एवं विश्वासपात्र दूध के धुले नहीं थे; लेकिन नेहरू ने उनके कुकृत्यों को नजरअंदाज कर दिया। कृष्णा मेनन (के.एम.) उस समय कई संदिग्ध सौदों में शामिल थे, जब वे लंदन में उच्‍चायुक्त के रूप में कार्यरत थे। सन् 1948 का जीप स्कैंडल (विकी1) मामला कई घोटालों में सिर्फ एक था। के.एम. ने लंदन की एक कंपनी के साथ रक्षा सौदा किया, जिसकी पूँजीगत संपत्ति बमुश्किल 605 पाउंड की थी और जुलाई 1948 में 2,000 मजबूत, अ‍ॉल- टेरेन सैन्य जीपों की आपूर्ति का आदेश दिया, जो कश्मीर अ‍ॉपरेशंस के लिए पाँच महीने के भीतर अति आवश्यक थीं और उनकी डिलीवरी छह हफ्तों के भीतर प्रारंभ होनी थी। मेनन ने बिना एक भी वाहन प्राप्त किए आपूर्तिकर्ता को पहले ही 1,72,000 पाउंड की बड़ी राशि का अग्रिम भुगतान भी कर दिया। जीपों की पहली खेप, जो छह हफ्तों में भारत पहुँचनी थी, मार्च 1949 में आठ महीने बाद पहुँची, वह भी तब, जब जम्मूव कश्मीर में संघर्षविराम की पहले से ही—1 जनवरी, 1949 को— घोषणा की जा चुकी थी। 155 जीपों की पहली खेप मद्रास बंदरगाह पर उतरी। वे पूरी तरह से अनुपयोगी थीं। उन जीपों का निरीक्षण करनेवाले रक्षा अधिकारियों ने पूरी खेप को ही अस्वीकृत कर दिया। पी.ए.सी. (लोक लेखा समिति) ने एक जाँच की और कड़ी आलोचना करते हुए घोटाले की जिम्मेदारी तय करने के लिए न्यायिक जाँच की सिफारिश की। लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया। इसके बाद संसद् में हंगामा होने पर सरकार ने पी.ए.सी. को अपनी सिफारिश पर पुनर्विचार करने का एक नोट सौंप दिया और सदन को इस मामले को खत्म हो जाने की तरह देखने को कहा! ऐसा सन् 1954 में हुआ। हालाँकि पी.ए.सी. ने संसद् में सन् 1955 में अपनी अगली रिपोर्ट में दोबारा इस मुद्दे को उठाया। इसके बाद गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने नेहरू के कहने पर संसद् में यह घोषणा कर दी कि सरकार ने अंतिम निर्णय ले लिया है कि इस मामले को अब बंद समझा जाए! आखिर, कैसे कोई सरकार भ्रष्टाचार के इतने स्पष्ट मामले को बिना कोई काररवाई किए बंद कर सकती है, वह भी पी.ए.सी. की सिफारिशों की अनदेखी करते हुए? लेकिन वे नेहरू के राज के दिन थे! 

मूँदड़ा घोटाला सरकार के स्वामित्व वाली एल.आई.सी. द्वारा एक पूँजी लगानेवाले, निवेशक, हरिदार मूँदड़ा की कंपनियों में अनुचित तरीके से निवेश करने से जुड़ा है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला ने सन् 1958 में इस मामले की जाँच के लिए एक-सदस्यीय ट्रिब्यूनल का गठन किया। ट्रिब्यूनल ने बिल्कुल पेशेवर तरीके से तथा सार्वजनिक रूप से अपनी कारवाई का संचालन किया और एक महीने के रिकॉर्ड समय में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। नेहरू ट्रिब्यूनल के अनुकरणीय काम की प्रशंसा करने (आनेवाले समय में भी इस प्रकार के ट्रिब्यूनलों/जाँच आयोगों का गठन किया जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ) और इस काम के लिए छागला की प्रशंसा करने तथा उन्हें पुरस्कृत करने के बजाय उनके विरोधी हो गए। क्यों? ट्रिब्यूनल के निष्कर्ष प्रतिकूल थे और उनमें तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी.के. कृष्णामाचारी पर गंभीर आरोप लगाए गए थे। एम.सी. छागला ने लिखा— 
“ ...नेहरू ने इंडियन मर्चेंट्स के चैंबर में एक बैठक को संबोधित किया, जहाँ वे टी.टी.के. की बड़ाई करने में हदों से कहीं आगे चले गए। मुझे प्रधानमंत्री द्वारा एक विशेष मंत्री (टी.टी.के.), जिसके खिलाफ उसके आचरण को लेकर एक न्यायिक जाँच चल रही हो, की जनता के बीच बड़ाई करना जरा भी ठीक नहीं लगा।” (एम.सी.सी./210) 

“ ...मुझे पता है कि नेहरू मुझसे बेहद क्षुब्‍ध थे और उन्होंने अपनी नाराजगी दिखाने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई। आखिरकार, जब टी.टी.के. ने इस्तीफा दिया तो प्रधानमंत्री खुद व्यक्तिगत तौर पर उन्हें विदा करने गए। एक ऐसी घटना, जो हमारे संसदीय इतिहास में विरल ही है; लेकिन मुझे इस सबसे जरा भी चिंता नहीं हुई। मैंने अपना काम पूरी कर्तव्यनिष्ठा से यह सोचे बिना किया था कि वे प्रधानमंत्री या किसी और को खुश करेंगे या फिर नाराज।” (एम.सी.सी./211) 

राजाजी नेहरू के लाइसेंस-परमिट-कोटा राज के विरोध में थे, सिर्फ इसलिए नहीं कि यह अर्थव्यवस्था को अत्यधिक नुकसान पहुँचाता था, बल्कि इसलिए भी कि यह भ्रष्टाचार का एक बड़ा स‍्रोत था। लेकिन यह बेरोक-टोक जारी रहा। राजाजी ने टिप्पणी की, “कांग्रेसी कितने संपन्न दिखते हैं। क्या उन्होंने नए धंधे किए हैं और धन कमाया है? फिर उन्होंने पैसा कैसे कमाया है?” (आर.जी.3/371) राजाजी इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि यह एक समाजवादी पैटर्न था, जिसमें शासन विभिन्न व्यवसायों को अनुमति देता था, नियंत्रित करता था व बाँटता था, जो कांग्रेसियों और अधिकारियों को समृद्ध कर रहा था। 

यह अंश 9 जनवरी, 2010 के ‘द हिंदू’ से लिया गया है, जो उसे ही एक बार फिर सामने रख रहा है, जो उसने 50 साल पहले 9 जनवरी, 1960 के अपने अंक में प्रकाशित किया था— 
“प्रधानमंत्री नेहरू ने मंत्रियों और उच्‍च पदों पर बैठे व्यक्तियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए एक उच्‍च शक्ति प्राप्त ट्रिब्यूनल को गठित करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था और उनके ऐसा करने का सबसे बड़ा कारण यह था कि भारत में या फिर ऐसे में कोई भी ऐसा देश, जहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था हो, वे यह नहीं देखना चाहते थे कि ऐसा ट्रिब्यूनल काम कैसे करता है! नेहरू को लगता था कि इस प्रकार के किसी ट्रिब्यूनल का गठन ‘आपसी वैमनस्य, संदेह, निंदा, आरोप व प्रत्यारोप तथा दूसरे को नीचा दिखाने का माहौल पैदा करेगा, जिसके परिणामस्वरूप सामान्य प्रशासन के लिए काम करना असंभव ही हो जाएगा।’ संवाददाता सम्मेलन का आधा से भी अधिक समय श्रीमान नेहरू द्वारा भ्रष्टाचार के मामलों में पछू ताछ के लिए एक ट्रिब्यूनल नियुक्त करने से जुड़े सवालों से निपटने के प्रति समर्पित था, जैसाकि हाल ही में भारत के पर्वू वित्त मंत्री श्री सी.डी. देशमुख द्वारा आग्रह किया गया था।” (यू.आर.एल.27) 

यह वास्तव में अपने आप में लोकतंत्र पर एक बहुत ही अभिनव प्रतिबंध जैसा था। यह ऐसा कहने जैसा है कि एक ट्रिब्यूनल लोकतंत्र को प्रभावित करेगा और प्रशासनिक कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। नेहरू ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का कोई विकल्प नहीं सुझाया। 

दुर्गा दास ने लिखा— 
“ ...यह वर्ष 1947 से 1951 तक का स्वरूप था (भ्रष्टाचार के खिलाफ); लेकिन उन्होंने (नेहरू) आखिरकार राजनेताओं के कुकृत्यों की अनदेखी करना सीख लिया था। उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगियों से निबटने के लिए राजनीतिक फायदे के सिद्धांत को अपना लिया। उन्होंने बेहद अप्रत्याशित तरीके से सी.डी. देशमुख की भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए एक उच्‍च-स्तरीय ट्रिब्यूनल का गठन करने की माँग की तरफ से आँखें मूँद ली थीं, जब उनके द्वारा सामने लाया गया मामला उनके एक विश्वस्त साथी के बेटे से संबंधित था।” (डी.डी./382) 

ए.डी. गोरवाला, एक सिविल सेवक, ने भारत सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कहा, “नेहरू के कुछ मंत्री भ्रष्ट थे और यह एक सामान्य जानकारी थी।” सन् 1962 में सरकार द्वारा भ्रष्टाचार की जाँच के लिए नियुक्त ‘संतानम समिति’ ने कहा, “व्यापक धारणा यह है कि मंत्रियों के बीच सत्यनिष्ठा का समाप्त हो जाना बिल्लकुल भी असामान्य नहीं है और कुछ मंत्री, जिन्होंने पिछले सोलह वर्षों के दौरान मंत्रालयों का कामकाज सँभाला है, ने खुद को अवैध तरीकों से संपन्न किया है, भाई-भतीजावाद के जरिए अपने बेटों व रिश्तेदारों को अच्छेपदों पर स्थापित किया है और कई अन्य असंगत लाभों को भी प्राप्त किया है, जो सार्वजनिक जीवन की पवित्रता के बिल्लकु खिलाफ हैं।” 

नेहरू ने प्रताप सिंह कैरों पर लगे आरोपों पर टिप्पणी करते हुए कहा था— 
“अब सवाल यह उठता है कि उच्‍चतम न्यायालय द्वारा कुछ तथ्य संबंधी प्रश्नों पर प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के चलते क्या मुख्यमंत्री इस्तीफा देने के लिए बाध्य हैं? मंत्री सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति जिम्मेदार हैं, इसलिए यह मामला पूरी तरह से विधानसभा से जुड़ा हुआ था। अतः नियम के तहत एक मंत्री को तब तक हटाने का सवाल ही नहीं उठता, जब तक कि विधायिका बहुमत से ऐसा करने की माँग नहीं उठाती है।” 

इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई मंत्री भ्रष्ट भी है तो भी उसे तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक कि मतदान न हो जाए! ऐसे में, आप वोटों में हेर-फेर करके या फिर वोटों का इंतजाम करके अपने लिए बचाव का रास्ता खोल सकते हैं। जब कांग्रेस के भीतर से ही आलोचकों ने प्रताप सिंह कैरों पर गंभीर आरोप लगाए तो नेहरू ने उन्हें पुचकारा और किसी भी प्रकार की जाँच का विरोध किया। कैरों को आखिरकार दास कमीशन के निष्कर्षों के बाद इस्तीफा देना पड़ा। 

यूपीए 1 और 2 के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास भ्रष्टाचार को लेकर गठबंधन ‘धर्म’ का सबसे बेहतरीन बहाना था (जैसे कांग्रेस के लोग दूध के धुले थे)। लेकिन नेहरू के राज में तो कांग्रेस अति शक्तिशाली थी, विपक्ष शायद ही मौजूद था और नेहरू एक निर्विरोध नेता थे। नेहरू चाहते तो भ्रष्टाचार के बीज को पौधा बनने से पहले ही जड़ से उखाड़ सकते थे। किंतु यह बेहद अफसोस की बात है कि उन्होंने इसे नजरअंदाज करने का विकल्प चुना। 

मारिया मिश्रा ने लिखा—
 “1960 के दशक के प्रारंभ तक नेहरू की नीतियाँ स्पष्ट होनी शुरू हो गई थीं। तीसरी योजना संकट में थी, कृषि सुधार ठप हो गया था और वर्ष 1962-63 में अनाज का उत्पादन वास्तव में घट गया था। मुद्रास्फीति 9 प्रतिशत पर चल रही थी। कांग्रेस उस समय बढ़ती उम्मीदों के संकट का सामना कर रही थी, जब उसकी खुद की साख सबसे निम्नतम स्तर तक पहुँच चुकी थी और वह हर स्तर पर भ्रष्टाचार व घोटालों में पूरी तरह से डूबी हुई थी। भ्रष्टाचार की संस्कृति ने समाज में और गहराई से पैठ बनाना शुरू कर दिया था। सन् 1961 में महान् उपन्यासकार आर.के. नारायण ने ‘श्रीमान संपत’ को प्रकाशित किया, जो शहरी हालात का एक गंभीर हास्य चित्रण था। उपन्यास के शीर्षक नामवाले प्रतिनायक को पूरी तरह से धोखाधड़ी से भरे शहरी जीवन में डूबा हुआ दिखाया जाता है, एक झूठा और एक अवसरवादी। बिमल रॉय की फिल्म ‘परख’ (1960) भी बिल्कुल समान विषयों पर आधारित थी, जो निहित स्वार्थों से घिरे भ्रष्ट राजनेताओं पर तीखे व्यंग्य-हमले करती थी। नेहरू की गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति पूरी तरह से गड़बड़ थी। उनकी घरेलू नीति के चिथड़े उड़े हुए थे और कांग्रेस रसातल में जा रही थी।” (एम.एम./306-7) 

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू को एक पत्र लिखा था कि ‘भ्रष्टाचार आखिरकार कांग्रेस के ताबूत में एक कील साबित होगा।’ उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिए एक स्वतंत्र या एक स्वतंत्र प्राधिकरण के तहत एक न्यायाधिकरण या लोकपाल के प्रस्ताव की वकालत की थी, जैसाकि सी.डी. देशमुख ने सुझाव दिया था। नेहरू ने इस मामले में राष्ट्रपति के नोट का जवाब देने के बजाय उन्हें ऐसा एक नोट भेजने के ‘अमित्रवत् काम’ को करने के लिए शिकायत करने को चुना! डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 18 दिसंबर, 1959 को नेहरू को लिखा— 
“ ...मुझे यह कहना होगा कि मैं काफी हद तक निराश हूँ। भ्रष्टाचार का सवाल जनता के सामने बहुत पहले से और बेहद प्रमुखता के साथ है कि जनता अब इस पर जाँच में देरी को बरदाश्त नहीं कर सकती है। मुझे लगता है कि देशमुख ने उन मामलों के बारे में पर्याप्त जानकारी दे दी है, जिनका पता लगाया जाना चाहिए। सरकार एक बार अपना मन बना ले और मुखबिरों को किसी बदले की काररवाई से बचाने का काम कर दे तो सबूत भी सामने आने लगेंगे। इसलिए, मैं यह सुझाव देना चाहता हूँ कि मामलों का पता लगाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह पर्याप्त नहीं है कि आप इस बात से संतुष्ट हैं कि सबकुछ ठीक-ठाक है। एक लोकप्रिय सरकार का काम नागरिकों को भी संतुष्टि का भाव देना है।... मैं आपके इस सुझाव से बेहद चिंतित हूँ कि मुझे अगर आपसे कोई संवाद करना है तो मैं आपको लिखित में कुछ भेजने के बजाय आपसे संपर्क करूँ या फिर आपसे बात करूँ। मुझे डर है कि यह मुझे मेरे संवैधानिक कर्तव्य के निर्वहन से विरक्त करेगा।” (ए.एस./15)