Nehru Files - 72 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-72

Featured Books
Categories
Share

नेहरू फाइल्स - भूल-72

भूल-72 
वह अजीब भारतीय जंतु: वी.आई.पी. और वी.वी.आई.पी. 

एक दिन एक टी.वी. उद्घोषक ने बताया कि उसके साथ एक सरकारी विभाग का दौरा करने गए एक विदेशी ने उससे पछूा, “क्या आपके देश में तीन लिंग हैं?” आश्चर्यचकित उद्घोषक ने चौंकते हुए उनकी ओर देखा कि वे कहना क्या चाह रहे हैं? विदेशी ने उनकी परेशानी को समझते हुए जोड़ा, “मैंने तीन प्रकार के शौचालय देखे—पुरुष, महिला और वी.आई.पी.!” टी.वी. पर एक बहस में एक वरिष्ठ महिला आई.ए.एस. ‘अधिकारियों’ के लिए बनाए गए अलग और विशेष शौचालयों को ठीक बताते हुए कहती हैं, “लोगों को शौचालय के इस्तेमाल का ठीक तरीका तक नहीं आता है और वे उसे बुरी तरह से गंदा कर देते हैं!” ये बातें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि नेहरूवादी समय से ही कैसे राजनेताओं एवं नौकरशाहों ने भारत और भारतीयों को इतनी बुरी तरह से रखा है, जैसे उनसे पहले ब्रिटिशों ने रखा था कि उन्हें ‘सामान्य’ भारतीयों से बिल्लकु अलग रखे जाने की आवश्यकता है—एक बार फिर अंग्जों की तरह! यहाँ तक रे कि अगर हम उस आई.ए.एस. महिला की मूर्खतापूर्ण बातों को मान भी लें तो उन लोगों का क्या, जिनकी शौच संबंधी आदतें तो बेहद स्वच्छ हैं, लकिन ‘अधिकारी’ नहीं हैं? और उन अधिकारियों का क्या, जिन्हें शौच आदतों के बारे में पता ही नहीं है? हम अभी भी औपनिवशिे क मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं। उस महिला आई.ए.एस. जैसों की पूरी सेना को देखते हुए भारत के अच्छेदिनों को देखने की संभावना भी नजर नहीं आती है। 

नेहरू खुद एक कुलीन मानसिकता के स्वामी थे। उन्होंने भारत को एक औपनिवेशिक, भूरे बाबू वाली संस्कृति से निजात दिलवाने के बजाय उसे पनपने का मौका दिया। उन्होंने अपने खुद के उदाहरण के जरिए इसे प्रोत्साहित किया। नेहरू के नेतृत्ववाली भारत सरकार कई मायनों में ब्रिटिश दृष्टिकोण की निरंतरता का प्रतिनिधित्व करती है, वह भी रूप और पदार्थ दोनों में। अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी भारतीयों का सामना उन्हीं सिविल सेवकों से हुआ और उन्हीं पुलिसकर्मियों से हुआ, जिन्होंने उनके साथ बिल्कुल उसी तिरस्कार, अहंकार और बर्बरतावाला व्यवहार किया तथा वही स्वामी-दास वाला रवैया अपनाया, जैसा ब्रिटिश शासन के दौरान था। 

सार्वजनिक क्षेत्र के भिलाई इस्पात संयंत्र (बी.एस.पी.) का एक उदाहरण है। 1950 और 1960 के दशक में भिलाई में बी.एस.पी. द्वारा संचालित कई अस्पताल थे और साथ ही सभी सुविधाओं से सुसज्जित एक मुख्य अस्पताल भी था। अस्पताल का समय सुबह 8 बजे शुरू होता था। मरीजों की कोशिश रहती थी कि वे जितना जल्दी संभव हो सके, वहाँ पहुँच जाएँ, ताकि उनकी बारी उतनी ही जल्दी आ सके; विशेषकर वे कर्मचारी, जिन्हें सुबह 10 या 11 बजे की सामान्य शिफ्ट में कार्यालय पहुँचना होता था और वे छात्र, जिन्हें विद्यालय पहुँचना होता था। अगर आप वहाँ पर सुबह 8 बजे पहुँचते हैं तो पहले से ही एक लंबी कतार लगी हुई मिलेगी और इस बात की पूरी संभावना थी कि आपकी बारी दोपहर तक या फिर उसके बाद ही आए। इसलिए, अधिकांश लोग जल्द-से-जल्द वहाँ पहुँचने की कोशिश करते थे। हालाँकि, शीर्ष पदों पर तैनात कर्मचारियों और उनके जीवन-साथी तथा बेटों व बेटियों के लिए एक तरजीही उपचार की व्यवस्था थी—सुबह को चिकित्सकों के आने के बाद का पहला आधा घंटा या फिर एक घंटा उनके लिए आरक्षित था। उनके लिए एक अलग कतार होती थी। ऐसा होने के चलते अगर वे सुबह के 8.30 बजे भी वहाँ पहुँचें तो इसकी पूरी संभावना होती थी कि वे अगले 15 से 30 मिनट में चिकित्सक से मिल सकें। जबकि दूसरे, भले ही वे सुबह के 7 बजे वहाँ पहुँच गए हों, पर कतार के लंबा होने के चलते चिकित्सक से मिलने के लिए उन्हें कई बार तो दोपहर के 1 बजे तक इंतजार करना पड़ता था और ऐसा अकसर होता था। यह पूरी तरह से अनुचित और अन्यायपूर्ण प्रणाली कई दशकों तक निर्विरोध चलती रही; हो सकता है कि अभी भी जारी हो! ध्यान रहे कि ऐसी प्रथाएँ ’50 के दशक में नेहरू के राज के दौरान शुरू हुईं और जारी रहीं। यह नेहरू के ‘समाजवाद’ के बारे में क्या बताता है? 

वी.आई.पी. क्षेत्र, वी.आई.पी. सुरक्षा, वाहनों पर लगी वी.आई.पी. लालबत्ती, वी.आई.पी. कार पास लेकर सैकड़ों और हजारों आम लोगों को परेशान करना, यहाँ तक कि मंदिरों में दर्शनों के लिए भी वी.आई.पी. पास और वी.आई.पी. कतारें, जबकि हजारों लोग शांतिपूर्वक बाहर खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सब क्या दिखाता है? यह बड़े पैमाने पर जनता का घोर अपमान है। आखिर क्यों जनता, ये राजनेता और नौकरशाह जिसके सेवक हैं, इन सेवकों से मालिक बने के हाथों अपमानित हो? स्वतंत्रता के बाद और अंग्रेजों को हटाए जाने तथा 500 से भी अधिक राजाओं व महाराजाओं को उनकी राजग‍‍‌द्दीयो से उतारे जाने के बाद हम और भी अधिक औपनिवेशिक एवं सामंती बन गए हैं। इंदर मल्होत्रा ने 21 जुलाई, 2012 के ‘‌द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने लेख ‘वेरी इंडियन फेनोमेनन’ (वी.आई.पी.) में लिखा— 
“ ...एक ‘आम आदमी’ (अमेरिका में) वी.आई.पी. को जरा भी भाव नहीं देता है; लकिे न यहाँ पर निश्चित रूप से स्थितियाँ बिल्लकु अलग हैं। वी.आई.पी. स्थिति रोजाना, चौबीसों घंटे, 365 दिन अनगिनत करोड़ों लोगों के चेहरों पर थोपी जाती है। आपको अपने मुँह से इस शब्द को निकालना भी नहीं है। हर किसी को पता है कि इसका क्या मतलब है। अमेरिका में जो होता है, उसके बिल्लकु उलट, भारत में अति धनी को खुद को वी.आई.पी. साबित करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है। उन्हें बिना एक शब्द बोले वह मिल जाता है, जो उन्हें चाहिए। पूरी व्यवस्था अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा करने में लग जाती है। कोई भूला-बिसरा दिग्गज, जो कानून को तोड़ते हुए पकड़ा जाता है, जेल में ऐसा विलासितापूर्ण जीवन जीता है, जिसके आगे पाँच-सितारा होटलों की व्यवस्था भी शरमा जाए। वह राजनीतिक वर्ग और नौकरशाहों की सेना है, जो वी.आई.पी. मत की आधारशिला रखती है और उसके साथ मिलनेवाले भत्तों एवं विशेषाधिकारों को तैयार करती है। अन्य बहुत सी चीजों की तरह वी.आई.पी. संस्कृति भी ब्रिटिश राज की विरासत है। स्वतंत्र भारत ने इसे न केवल उत्साह के साथ अपनाया है, बल्कि इसे आगे भी बढ़ाया है। अंग्रेजी वर्ग-भेद प्रणाली और भारत की मतृ्यु-विहीन जाति-व्यवस्था ने जरूर एक-दूसरे को रगड़ा होगा, तभी एक आश्चर्य सामने आया होगा, जिसे भारतीय वी.आई.पी. कहते हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में इस वी.आई.पी. संस्कृति ने असहाय आम आदमी के संतापों को उसी अनुपात में बढ़ा दिया जिस अनुपात से उन लोगों के विशेषाधिकार व सुविधाएँ बढ़ रही थीं, जो अपने को औरों से अधिक महान समझते थे।” (आई.ई.6)