सास अपनी इकलौती बहू की चाय में ज़हर घोल रही थी, जिसे देख सोनाली के चेहरे के भाव बदल रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यह ज़हर उसी के लिए घोला जा रहा हो। तभी बाहर से विमला की आवाज़ सुनाई दी - "मेरी बहू सोनाली तो अभी नौ बजे सो कर उठी है और टीवी से चिपकी हुई है। ये नहीं कि सास-ससुर के लिए नाश्ता बना दे।"
सोनाली उठी, टीवी बंद किया और पैर पटकते हुए सीधा किचन में घुस गई।
तीस साल का विक्की ऑफिस टाइम के बाद अपने सहकर्मियों को चाय पार्टी दे रहा था। उसे बेस्ट एम्प्लॉयी का अवॉर्ड जो मिला था।
"भाई विक्की! किस्मत हो तो तुम्हारे जैसी। अभी शादी को एक साल भी नहीं हुए कि बेस्ट एम्प्लॉयी का अवॉर्ड भी मिल गया। लगता है भाभी के रूप में गुड लक आया है। अब तो प्रमोशन भी बहुत जल्द हो जाएगा," - नीतेश बोल रहा था।
"हाँ भई, हमारे तो जूते घिस गए मगर कभी बॉस ने पीठ नहीं ठोंकी। मगर दो साल में ही विक्की भाई ने झंडे गाड़ दिए," - विनोद ने भी सुर मिलाया।
"अरे, ऐसा कुछ नहीं है भाई। समय-समय की बात है। आज मुझे मिल गया, कल तुम लोगों को मिल जाएगा।- विक्की ने जवाब दिया और सब चाय पीने लगे।
रात के आठ बजे विक्की घर पहुँचते ही मिठाई का डिब्बा सोनाली को देते हुए बोला - "आज मुझे बेस्ट एम्प्लॉयी का अवॉर्ड मिला है। मेरे दोस्त कहते हैं कि तुम मेरी ज़िंदगी में गुड लक लेकर आई हो और मेरा प्रमोशन भी जल्द हो जाएगा। ये लो मिठाई खाओ और मम्मी-पापा को भी खिला दो।"सोनाली ने विक्की के हाथ से मिठाई का डिब्बा लिया और टेबल पर रख दिया। उसके चेहरे का भूगोल बदला हुआ दिख रहा था।
विक्की पूछ बैठा - "क्या हुआ?"
"कुछ नहीं!" – सोनाली मुँह फेर कर बेड पर पड़े कपड़ों को तह करने लगी।
"अब बता भी दो, क्या हुआ?" – विक्की की धड़कनें असामान्य हो रही थीं और चेहरे पर चिंता की लकीर गहराती जा रही थी।
"होना क्या है! मेरी तो कोई इज़्ज़त ही नहीं है इस घर में। उठने में ज़रा सी देरी क्या हो गई, बजाय इसके कि पूछा जाए 'देरी क्यों हुई?', सीधा पड़ोसन के साथ मेरी बुराई करने बैठ गईं मम्मी जी! मैं तो बस काम करने आई हूँ तुम्हारे घर में। दिनभर काम करने के बाद रात को थोड़ी देर टीवी भी नहीं देख सकती। उनका क्या है, अब तक तो सो भी गई होंगी। तीन बजे से उठ जाएंगी और दिन भर मेरे सिर पर सवार रहेंगी – ये कर, वो ना कर।" – सोनाली की जुबान में ब्रेक नहीं था।मगर विक्की का दिमाग जाम हो चुका था।
उसने सोनाली को समझाने का प्रयास किया –"अरे, ऐसा कुछ नहीं है। मम्मी जी साठ साल की हो चुकी हैं, तुम्हें तो पता है उम्र बढ़ने पर बड़े भी बच्चों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। भले ही ये हमारे मम्मी-पापा हैं, मगर अब हमें इन्हें अपने बच्चों की तरह समझना चाहिए। इनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।"
"तुम मेरी तकलीफ को नहीं समझ सकते! भगवान करे, अगले जनम में तुम लड़की बनो, तब तुम्हें समझ आए!" – सोनाली ने आँखें दिखाई।
"मंज़ूर है, जहाँपनाह! मगर मेरी शर्त है कि मैं तुम्हारी ही बीवी बनूँ।" – विक्की सोनाली के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए प्रयास करता रहा - जाने कितनी रात तक।
रात देर से सोने के कारण विक्की सुबह नौ बजे उठा। सोनाली घर के सारे काम निपटा चुकी थी – सबके लिए नाश्ता तैयार था और विक्की का टिफिन भी टेबल पर रखा था। मम्मी जी पड़ोसन के यहाँ घूमने गई थीं और पापा मनोहर लाल पेपर पढ़ने में व्यस्त थे।सोनाली का चेहरा जेठ की दुपहरी का एहसास दिला रहा था –"नाश्ता बना के रख दो तो खाना नहीं है, और ना बना दो तो मोहल्ले भर में ढिंढोरा पीट देंगी! ये कोई टाइम है किसी के घर घूमने जाने का!"ये सारी बातें सोनाली का तनाव कम कर रही थीं, और बाथरूम के बाहर खड़े विक्की का तनाव बढ़ा रही थीं।
सुबह के ग्यारह बज रहे थे और विक्की बॉस के केबिन में सिर झुकाए भाषण सुन रहा था –"कल तुम्हें बेस्ट एम्प्लॉयी का अवॉर्ड दिया गया और आज तुम पूरे एक घंटे देर से ऑफिस पहुँचे हो! क्यों भाई, एम्प्लॉयी ही हो ना कि बॉस बन गए? आज पहली बार तुमसे गलती हुई है, इसलिए माफ कर रहा हूँ। ध्यान रहे, आइंदा कोई गलती न हो।" – बॉस प्रवीण दुबे ने चेतावनी दे दी थी।विक्की भगवान का शुक्रिया करते हुए अपने केबिन में चला गया, मगर गलती तो दुबारा होनी तय थी – दुबारा नहीं, बारम्बार होनी तय थी। विक्की गृह-युद्ध में फँस जो चुका था।
सुबह के सात बज रहे थे। शोर सुनकर विक्की की आँखें खुलीं। आवाजें किचन से आ रही थीं। विक्की निकलकर हॉल में पहुंच गया। विमला तेज आवाज में बोल रही थी —“एक दिन, दो दिन होता तो नहीं बोलती। तेरा तो रोज का है।मैं इस घर में शादी करके आई, तब से पाँच बजे से पहले ही उठ जाती हूँ। फिर भी मेरी सास जितना सुनाती थी, उसका तो चार आना भी मैं तुझे नहीं बोलती। फिर भी लगी है टेसूएँ बहाने!मैं क्या अपने लिये बोल रही हूँ? जो है, तुम लोगों का ही है।”
“देखिए मम्मी जी, वो समय अलग था। आज का समय अलग है। जब सब हमारा है, तो हमें हमारे तरीके से जीने दीजिए ना।” — सोनाली रो रही थी।
विक्की ने बात संभालने की कोशिश की —“अरे आप लोग भी कौन-सी बात लेकर बैठे गए! थोड़ा सा मैनेज कर लीजिए ना। आप लोगों के चक्कर में मुझे ऑफिस पहुंचने में देर हो जाती है, और बॉस से चार बातें सुननी पड़ती हैं।
बात सही थी।सुबह साढ़े दस बजे बॉस प्रवीण दुबे हाथ में बंधी घड़ी को बार-बार देखते हुए चहलकदमी कर रहे थे, कि विक्की ने आवाज दी —“मे आई कम इन, सर?”और इसके बाद पुराण प्रारंभ हो गया।अब तो विक्की की आदत हो चुकी थी।मगर इस बार कुछ नया होना था, जिसे बोलते हैं — सैलरी कट।
घर की किच-किच, बॉस की डाँट के बाद अब बारी थी राशन दुकान वाले की —“देखो विक्की भैया, महीने भर का बिल हुआ आपका आठ हजार नौ सौ पचास रुपये और आप जमा कर रहे हैं सिर्फ पाँच हजार रुपये! ऐसा थोड़े होता है भैया! हम भी सामान खरीद के लाते हैं, हमें भी ऊपर पेमेंट देना पड़ता है।आप कैसे भी करके बाकी पैसे भी जमा करवा दीजिए, नहीं तो बिजनेस में परेशानी होगी।”— दुकान दार नीरू ने दो टूक सुना दिया था।
विक्की ने बुझे मन से अपने घर की घंटी बजाई।दरवाजा सोनाली ने खोला था।आज वो बहुत खुश लग रही थी।विक्की के अंदर आते ही उसने दरवाजा बंद किया और बोली —“कल सुबह मुझे मायके छोड़ दीजिएगा। मेरी दोनों बहनें आई हुई हैं। दो-चार दिन मायके में उनके साथ रहना है।”
विक्की ने अपना दुख छुपाते हुए कहा —“लेकिन तुम मायके चली जाओगी, तो हम लोगों के खाने-पीने का क्या होगा?”
“बना लेंगी मम्मी जी। मुँह इतना चला लेती हैं, हाथ-पैर भी थोड़ा बहुत चला ही लेंगी।” — सोनाली के शब्दों में कड़वाहट थी।और विक्की के चेहरे पर चिंता,क्योंकि उसे धुआँ उठता दिख रहा था।और वही हुआ, जिसका डर था- आग लग चुकी थी।आग लगाने वाले दो, और बुझाने वाला एक अकेला विक्की।जैसा कि हमेशा आग बुझाने वाले के हाथ जलते हैं, न कि लगाने वाले के —तो विक्की के हाथों का जलना तय था।
विक्की, सोनाली को मायके छोड़ने के बाद डॉक्टर माखीजा की क्लिनिक में बैठा था। डॉक्टर साहब बोल रहे थे, “देखिए विक्की जी! आपका ब्लड ग्लूकोज बहुत ज़्यादा आ रहा है। मेडिसिन तो लीजिए मगर साथ में तनाव भी कम कीजिए, वरना परेशानी बढ़ सकती है।”
विक्की दोपहर एक बजे घर पहुँचा। मम्मी बेड पर लेटी थीं और पापा कुर्सी पर बैठकर कोई किताब पढ़ रहे थे।विक्की ने पूछा, “खाना खा लिए पापा?”
“कहाँ बेटा, तुम्हारी माँ के पैरों में दर्द है। उससे तो खड़ा नहीं हुआ जा रहा, खाना क्या बनाएगी।” — पापा किताब से नज़रें हटाए बिना ही बोले।
फिर क्या था, लग गए विक्की बाबू खाना बनाने।कुल मिलाकर प्रेम विवाह के आठ महीने बाद ही विक्की बाबू डायबिटीज़ के मरीज़ बन चुके थे — मगर कहानी अभी बाकी थी।
समय गुज़रता गया। विक्की के तनाव और ब्लड ग्लूकोज — दोनों में बढ़ोतरी होती गई।हाँ, कुछ अच्छा हुआ था तो बस एक बेटा — सोनू, जो अब पाँच साल का हो चुका था।खर्च बढ़ रहे थे, मगर कमाई नहीं,उधारी ज़रूर बढ़ गई थी।
“सेठ जी, कुछ पैसे चाहिए थे…”विक्की, सेठ नवल किशोर अग्रवाल से ब्याज में पैसे माँग रहा था।
“कितना चाहिए भाई?” — सेठ जी ने प्यार से पूछा।
“यही कोई पचास-साठ हज़ार रुपयों की ज़रूरत है सेठ जी।” — विक्की ने बताया।
“ठीक है विक्की बाबू, पैसे तो मैं दे दूंगा लेकिन ब्याज पूरे पाँच टका लूंगा। पचास हज़ार का पच्चीस सौ रुपए महीना, वो भी मुझे हर महीने की पहली तारीख को चाहिए। मंज़ूर हो तो बोलो।”
विक्की ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और पचास हज़ार रुपये लेकर घर की ओर चल पड़ा।
घर में सोनाली इंतज़ार कर रही थी — भाई की शादी में जाने के लिए खरीदारी जो करनी थी।विक्की के घर पहुँचते ही सोनाली बोल पड़ी,“कितनी देर लगा दी आपने! अब जल्दी चलिए वरना खरीदारी पूरी नहीं हो पाएगी और कल फिर जाना पड़ेगा।”
बेचारे विक्की को घर में साँस लेने तक का समय नहीं दिया गया।विमला, सोनू को गोद में लेकर बैठी थीं और तिरछी नज़रों से सोनाली को देख रही थीं।
शाम 6 बजे विक्की और सोनाली वापस घर पहुँचे। पचास हज़ार रुपये लेकर गए थे और सत्तर हज़ार की खरीदारी करके लौटे थे।चालीस हज़ार के सोने के झुमके सोनाली को पसंद जो आ गए थे। बाकी कपड़े, चूड़ी और कॉस्मेटिक्स तो बजट में शामिल थे ही।
विक्की को देखते ही विमला बोलीं,“बेटा, मुझे ज़रा पाँच हज़ार रुपये देना। मेरे पास पहनने के लिए साड़ी नहीं है। अब तो दो-चार साल की ज़िंदगी बची है। दो साड़ियाँ खरीद लूंगी तो ज़िंदगी भर नहीं खरीदनी पड़ेगी।”
“लेकिन मम्मी! पैसे तो बचे नहीं, बल्कि बीस हज़ार की उधारी करके आ गया हूँ।” — विक्की ने जवाब दिया।
“हाँ, क्यों होंगे पैसे मेरे लिए? सारे पैसे तो तेरी बीवी के लिए हैं। वो जो बोलेगी, तू वही करेगा। जहाँ नहीं करना चाहिए वहाँ खर्च करेगा। मेरी तो किस्मत ही खराब है जो एक जोड़ी साड़ी के लिए बोलना पड़ रहा है। तू लायक होता तो मेरे बोलने से पहले ही मेरे हाथ में पैसे रख देता।” — विमला फुफकार रही थीं।
“अरे मम्मी! आप नाराज़ क्यों हो रही हैं? आपको जो भी कपड़े चाहिए आप ले आइएगा। मेरी सैलरी आते ही मैं दुकान में पेमेंट कर दूंगा।” — विक्की उन्हें मनाने लगा।
अब विक्की, अच्छा पति और अच्छा बेटा बनने के चक्कर में उधारी के दलदल में धँसता जा रहा था।बीवी की सुने तो मम्मी नाराज़, मम्मी से थोड़ी बात कर ले तो बीवी नाराज़।हमेशा मन में डर बना रहता — मम्मी और सोनाली के बीच झगड़ा न हो जाए।किसी तरह दोनों को खुश रखने की कोशिश करता।इसी चक्कर में ऑफिस जाने में देर हो जाए तो बॉस नाराज़।बॉस नाराज़ तो सैलरी कट, सैलरी कट तो उधारी में बढ़ोतरी।उधारी बढ़े तो तकायदे का झमेला।ऐसे ही चल रही थी ज़िंदगी, कि सहकर्मी विनोद ने एक तरीका बताया इन तकलीफ़ों से छुटकारा पाने का।
रात आठ बजे घर की घंटी बजी।सोनाली ने दरवाज़ा खोला। सामने विक्की अधखुली आँखों से मुस्कुराता खड़ा था — दारू के नशे में टल्ली।
“ये क्या कर रहे हैं आप? घर चलाने के लिए पैसे नहीं हैं और आप शराब पीकर आए हैं!” — सोनाली बरस पड़ी।
सोनाली की आवाज़ सुनकर विमला भी बाहर आ गईं,“हे भगवान! अब यही दिन देखना बाकी रह गया था। हम लोगों की सेवा ना करती तो ना करती, अपने पति का तो ख़याल रखती। शराबी बना दिया मेरे बच्चे को।” — विमला रोने लगीं।
“हाँ, सारी गलती तो मेरी है…”फिर सोनाली और विमला के बीच शास्त्रार्थ शुरू हो गया।पास ही सोफ़े पर बैठकर मंद-मंद मुस्कुराते हुए शास्त्रार्थ का मज़ा ले रहे थे विक्की बाबू।जो स्थिति पहले तनावपूर्ण लगती थी, आज मजेदार लग रही थी।सचमुच कमाल की दवा थी ये दारू, और धन्यवाद के पात्र थे इस दवा को प्रिस्क्राइब करने वाले विनोद जी।
अब तो ये रोज़ की बात हो गई।विक्की शाम को ऑफिस से निकलते ही दवा पीकर घर पहुँचता, शास्त्रार्थ सुनते हुए भोजन करता और बेड पर चौड़ा हो जाता।अब ना तो बीवी को खुश करने की चिंता थी, ना मम्मी को।हाँ, नशे में थोड़ी मस्ती ज़रूर हो जाती।
“सोनाली! ओ सोनाली! मम्मी आज चुप क्यों है?तेरी बैटरी खतम हो गयी क्या?" — विक्की बीच हॉल में लहरा रहा था।
“हे भगवान! मेरी फूटी किस्मत।” — विमला की बात पूरी भी नहीं हो पाई कि…“तेरी फ्रूटी तो मेरी पेप्सी किस्मत!” — विक्की हँसते हुए अपने रूम में चला गया।
“सोना आज रणभूमि में नहीं गई? बंदूक को धो के सूखा दी ?
”मगर अब विक्की की किसी बात का जवाब देना कोई ज़रूरी नहीं समझता था।तो विक्की, सोनू को गोद में लेकर बक-बक करता रहता।सोनू अब स्कूल जाने लगा था। उसके खर्चे भी बढ़ गए थे।जैसे-तैसे कर के विक्की रुपयों का जुगाड़ तो कर लेता, मगर बढ़ते तकायदों के कारण तनाव बहुत ज़्यादा हो रहा था और वह दिन में भी नशा करने लगा।पीली आँखें, पतली सपाट छाती और झुके हुए कंधे — साफ़ बता रहे थे कि दारू अपना रंग दिखा रही थी।
दोपहर 12 बजे, बॉस प्रवीण दुबे विक्की को सुना रहे थे:“तुम शराब पीकर ऑफिस आए हो! निकलो यहाँ से। कोई ज़रूरत नहीं है तुम्हारे जैसे एम्प्लॉयी की। गेट आउट!”
“कौन सा गेट रे टकलू? इंडिया गेट या चाइना गेट?” — विक्की ने बॉस के भी मज़े ले लिए।और धक्के मारकर बाहर निकाल दिया गया।
घर में खाने के लाले पड़ने वाले थे क्योंकि घर का एकमात्र कमाने वाला आज बेरोज़गार हो चुका था। उसने अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार ली थी।
आज दुकानदार नीरू उधारी वसूली के लिए घर आ धमका।“भाभी, आज तो बिना पैसों के मैं वापस नहीं जाऊंगा।”
सोनाली नीरू को अपना दुखड़ा सुना रही थी।“नीरू भैया! इनका लीवर का इलाज चल रहा है, उसमें बहुत खर्च हो रहा है। ऊपर से इनकी नौकरी चली गई है। जब तक नई नौकरी नहीं मिल जाती, तब तक के लिए सब्र कर लीजिए। पैसे आते ही सबसे पहले आपका ही हिसाब चुकता कर देंगे। तब तक के लिए सहयोग बनाए रखिए… मैं आपके पैर पड़ती हूँ।”
नीरू की आवाज़ में गुस्सा था,-“पैर पड़ने से धंधा थोड़े चलेगा भाभी। इनके पास शराब पीने के लिए पैसे हैं, मेरी उधारी चुकाने के लिए नहीं हैं! मुझे तो मेरे पैसे चाहिए।”
“तेरे पैसे तो मेरे पास नई हैं ब्रो… तू ही देख ले, किधर को रखा है।” — विक्की ने मस्ती की।
“आप चुप रहिए जी!” — सोनाली चिल्लाई, “आप ही के कारण आज ये दिन देखने पड़ रहे हैं!”
“हाँ, सारी गलती तो मेरे बेटे की ही है…” — विमला भी मैदान में उतर आईं।नीरू परिस्थिति को भाँपते हुए मैदान छोड़कर भाग गया, और विक्की बाबू बिना खाना खाए खर्राटे भरने लगे।
रात दो बजे अचानक सोनाली की नींद खुल गई। विक्की दर्द से छटपटा रहा था।
सोनाली घबरा गई —"क्या हुआ जी? कैसा लग रहा है आपको?"विक्की जवाब नहीं दे पा रहा था। आँखें फैल रही थीं और छटपटाहट बढ़ती जा रही थी।
अपने पति की ये तकलीफ सोनाली की बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। वह चीखी,चीख सुनकर विमला और मनोहरलाल तुरंत कमरे में घुसे।
विक्की की आँखें पथरा गई थीं और छटपटाहट धीरे-धीरे कम हो रही थी।मनोहरलाल सदमे में थे। उनका इकलौता बेटा, जिसकी तोतली ज़ुबान से "पापा" सुनकर ही मन भर आता था, आज उनके सामने ही दारू की भेंट चढ़ रहा था… और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। बस खड़े-खड़े अपने बच्चे के चेहरे को देखे जा रहे थे।
सोनू बेड पर बैठकर आँखें मल रहा था।
"विक्की की साँसें थम चुकी थीं।"
एक हत्या पूरी हो चुकी थी।
निर्दोष हत्यारे आँसू बहा रहे थे,इस बात से अनजान की यह उन्हीं के द्वारा की गई एक हत्या थी। समाप्त