भूल-34
पंचशील : तिब्बत को बेचा, खुद का नुकसान किया
“यह महान् सिद्धांत (पंचशील) पाप की पैदाइश था, क्योंकि इसकी स्थापना एक ऐसे प्राचीन देश के विनाश पर हमारी मंजूरी की मुहर लगाने के लिए की गई थी, जो हमारे साथ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से जुड़ा हुआ था। यह एक ऐसा देश था, जो अपना जीवन जीना चाहता था और चाहता था कि उसे अपना जीवन जीने दिया जाए।”
—आचार्य कृपलानी (एर्पी2)
चीन ने तिब्बत के साथ जो किया, उसके बावजूद भारत ने 29 अप्रैल, 1954 को चीन के साथ ‘पंचशील समझौते’ पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते को शीर्षक ही दिया गया था—‘चीन के तिब्बत क्षेत्र और भारत के बीच व्यापार एवं परस्पर व्यवहार का समझौता’, जो खुद ही तिब्बत को चीन के एक भाग के रूप में स्वीकृति देता था। इस समझौते से भारत को तो कोई लाभ नहीं मिला और सभी लाभ सिर्फ चीन को प्राप्त हुए। चीनी नेता जरूर ही भारतीय नेताओं की मासूमियत पर हँस रहे होंगे।
भारत ने सीमा के पूर्व समाधान तक पर जोर नहीं दिया। कहा जाता है कि विदेश मंत्रालय के गिरिजा शंकर वाजपेयी ने पंचशील पर हस्ताक्षर से पूर्व ही सीमाओं का समाधान करने की सलाह दी थी। लेकिन तीनों संबंधितों—के.एम. पणिक्कर, कृष्ण मेनन और नेहरू ने उनके सुझावों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। चीन में हमारे राजदूत के.एम. पणिक्कर को बाद में उपहासपूर्वक ‘चीन का राजदूत’ तक कहा जाने लगा था।
एस.के. वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘1962: द वॉर दैट वाज’न्ट’ में लिखा—
“भारत और चीन के बीच हस्ताक्षर किए गए पंचशील समझौते ने भारत के आदर्शवाद को प्रतिबिंबित किया, जिसे व्यावहारिक राजनीति से दूर ही रखा गया। उस मौके पर भारतीय पक्ष की कुछ चीजें थीं, जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण थी—ल्हासा तक भौतिक पहुँच। नेहरू ने तिब्बत में चीनियों से कोई भी रियायत लिए बिना उन्हें छोड़ने का फैसला किया। इतना ही नहीं, भारत सरकार ने सीमा पर चीनी अतिक्रमणों को अपने ही लोगों से छिपाना भी शुरू कर दिया।” (एस.के.वी./एल-6894)
दलाई लामा ने अपनी आत्मकथा में बेहद मार्मिक ढंग से लिखा—“मुझे यह बात अच्छे से पता थी कि तिब्बत के बाहर की दुनिया ने हमारी तरफ अपनी पीठ फेर ली है। इससे भी बदतर यह है कि हमारे सबसे प्रिय पड़ोसी और आध्यात्मिक गुरु भारत ने भी तिब्बत में पीकिंग के दावे को चुपचाप स्वीकार कर लिया था। नेहरू ने अप्रैल 1954 में एक नई चीनी-भारतीय संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें पंचशील के नाम से एक ज्ञापन भी शामिल था। इस संधि के मुताबिक, तिब्बत चीन का हिस्सा था।” (डी.एल./113)
आचार्य कृपलानी ने सन् 1954 में संसद् में कहा था—
“हमने हाल ही में चीन के साथ एक संधि (पंचशील) समझौता किया है। मुझे लगता है कि चीन के कम्युनिस्ट हो जाने के बाद उसने तिब्बत के खिलाफ आक्रामक कृत्य को अंजाम दिया है। दलील यह है कि चीन का तिब्बत पर आधिपत्य एक प्राचीन अधिकार था। यह अधिकार अप्रचलित, पुराना और प्राचीन था। इसे वास्तव में कभी भी आजमाया नहीं गया था। यह समय के प्रवाह के साथ कालातीत हो चुका था। “यहाँ तक कि अगर यह बीता हुआ नहीं था तो भी आज के लोकतंत्र के दौर में, जिसकी कसमें हमारे कम्युनिस्ट दोस्त खाते हैं, चीनी जिसकी कसमें खाते हैं, इस प्राचीन पराधीनता की बात करना और इसे एक बिल्कुल नए देश में लागू करके देखना, जिसका चीन से कोई लेना-देना है ही नहीं। इंग्लैंड ने जर्मनी के साथ युद्ध इसलिए नहीं शुरू किया था, क्योंकि जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था; बल्कि इसलिए किया था, क्योंकि उसने पोलैंड और बेल्जियम पर हमला किया था।” (ए.एस./137)
डॉ. आंबेडकर भारत की तिब्बत नीति से असहमत थे और उनका मानना था कि ‘राजनीति में पंचशील के लिए कोई जगह नहीं है’। उन्होंने कहा कि ‘अगर श्री माओ को पंचशील में जरा भी विश्वास होगा तो वे निश्चित रूप से अपने देश में बौद्धों के साथ बहुत अलग तरीके से व्यवहार करेंगे।’
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डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था, “प्रधानमंत्री ने वास्तव में चीनियों को भारत की सीमा तक लाने देने में मदद की है। इन तमाम बातों के मद्देनजर मुझे लगता है कि यह मानना कि भारत अभी आक्रामकता की जद में नहीं है, एक बड़ी भूल होगी और भारत जल्द ही आक्रामकता की जद में होगा।” (डी.के./455-6)
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वॉल्टर क्रॉकर ने ‘नेहरू : ए कंटेंपरेरी’ज एस्टीमेट’ में लिखा—
“भारत ने एक-एक करके तिब्बत में बेहद कठिन परिश्रम से जीती गई विशेष स्थिति को गँवा दिया, जो उसे अंग्रेजों से मिली थी और उसने सैद्धांतिक रूप से चीनी आधिपत्य और वास्तव में चीनी संप्रभुता को स्वीकार कर लिया। नेहरू ने एक बफर स्टेट के रूप में तिब्बत के विचार को नकार दिया—‘किसके बीच बफर?’ और भारत की पूर्व की विशेष स्थिति का वर्णन साम्राज्यवाद के एक उन्मत्त अवशेष के रूप में किया। भारत के परित्याग को चीन-भारत समझौतों की एक शृंखला के जरिए सील कर दिया गया और उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था व्यापार और परस्पर व्यवहार का समझौता, जिस पर सन् 1954 में हस्ताक्षर किए गए थे (पंचशील)।” (क्रॉक/74-75)
भारत ने इसके बिल्कुल उलट अपने पहले के रुख के बावजूद ऐसा किया। 15 अगस्त, 1947 को तिब्बत के राष्ट्रीय ध्वज को भारतीय संसद् में रखा गया था और तिब्बत को एक अलग राष्ट्र के रूप में मान्यता दी गई थी। वर्ष 1949 तक नेहरू ने अपने सभी आधिकारिक संवादों में ‘तिब्बत सरकार’, ‘हमारे दोनों देशों’ इत्यादि जैसे शब्दों का प्रयोग किया था, जिसके बाद इस बात को लेकर कोई शक ही नहीं था कि भारत तिब्बत को एक अलग व स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान करता है।
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वास्तव में, पंचशील भारतीय अनाड़ीपन का एक सबसे शानदार उदाहरण है और इसका एक जीता-जागता उदाहरण कि अंतरराष्ट्रीय समझौता कैसा नहीं होना चाहिए! इसके बावजूद पंचशील की आलोचना होने पर नेहरू ने बेशर्मी से संसद् के पटल पर कहा था कि विदेशी मामलों के परिप्रेक्ष्य में वे किसी भी अन्य बात का उतना श्रेय नहीं ले सकते, जितना तिब्बत को लेकर भारत-चीन समझौते का करते हैं! वास्तव में, बेहद आश्चर्यजनक स्वयं को बहलाने जैसा आग्रह!
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दिसंबर 1971 : पंचशील का नवीनीकरण और अक्साई चिन
पंचशील के अंतर्गत हुआ व्यापार समझौता 2 जून, 1962 को समाप्त होना था और चीन ने एक नई, नवीनीकृत संधि के लिए चर्चा का सुझाव दिया। भारत ने पूर्वापेक्षा के रूप में अक्साई चिन को चीन द्वारा खाली करने पर जोर दिया, जिसे चीन अपना क्षेत्र मानता था। इसके नतीजतन उनकी अति आवश्यक सर्वऋत्विक आपूर्तिलाइन (अक्साई चिन से गुजर रही शिंजियांग-तिब्बत रोड) बंद हो जाती। इससे अक्साई चिन और तिब्बत को लेकर भारत के इरादों पर चीन का संदेह बढ़ गया।
नेहरू/भारत के रवैए में इस बदलाव पर ध्यान दें। सन् 1954 में गिरिजा शंकर वाजपेयी और अन्य ने पंचशील पर हस्ताक्षर करने से पहले चीन के साथ सीमा संबंधी मुद्दे के निपटारे की सलाह दी थी, लेकिन नेहरू ने इनकार कर दिया था। हालाँकि सन् 1961 में पंचशील के नवीनीकरण के लिए भारत ने सीमा समझौते और अक्साई चिन को लेकर भारत के दावे एवं चीनी सहमति की पूर्व शर्त तय हुई! भारत को ऐसा करने के बजाय पूर्व शर्त के बजाय सीमा संबंधी मुद्दों और पंचशील के नवीनीकरण को लेकर साथ-साथ बातचीत के लिए कहना चाहिए था।