भूल-30
उस व्यक्ति को किनारे करना, जो जम्मू व कश्मीर मसले को सँभाल सकता था
रियासतों का मामला रियासती मंत्रालय के तहत आता था, जिसकी कमान सरदार पटेल के हाथों में थी। पटेल ने 500 से अधिक रियासतों से जुड़ी जटिलताओं को बेहद कुशलता के साथ निबटाया था। इसके मद्देनजर जम्मूव कश्मीर को भी पटेल के भरोसे छोड़ देना चाहिए था। हालाँकि, नेहरू ने प्रधानमंत्री के तौर पर खुद जम्मूव कश्मीर को सँभालने का फैसला किया था। बिना सरदार की सहमति के, और यहाँ तक कि उन्हें सूचित करने का शिष्टाचार निभाए बिना, नेहरू ने एन. गोपालस्वामी आयंगर, जम्मूव कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान के विशेषज्ञ को बिना पोर्टफोलियो के अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया, ताकि वे कश्मीर को सँभालने में उनकी (नेहरू की) मदद कर सकें। इन्हीं गोपालस्वामी ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के मामले को बुरी तरह से बिगाड़ दिया था। (भूल#22) सरदार को गोपालस्वामी की भूमिका के बारे में अप्रत्यक्ष रूप से तब पता चला, जब उन्होंने (गोपालस्वामी ने) जम्मूव कश्मीर से संबंधित एक नोट जारी किया, वह भी सरदार से सलाह लिये बिना। सरदार पटेल ने 22 दिसंबर, 1947 को गोपालस्वामी को लिखा—“इस प्रश्न को रियासती मंत्रालय द्वारा संदर्भित और निपटाया जाना चाहिए था। मैं सुझाव देना चाहूँगा कि संबंधित कागजात को अब रियासती मंत्रालय को हस्तांतरित किया जा सकता है और भविष्य में कश्मीर प्रशासन को सीधे मंत्रालय से संपर्क करने के लिए कहा जा सकता है।”
गोपालस्वामी ने सरदार को वस्तुस्थिति से अवगत करवा दिया (कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, वह पी.एम. नेहरू के इशारे पर कर रहे हैं), साथ ही कहा कि अगर उप-प्रधानमंत्री चाहते हैं तो वे खुद को जम्मूव कश्मीर के मामलों से अलग करने को तैयार हैं। वस्तुस्थिति को भाँपते हुए सरदार पटेल ने अगले दिन 23 दिसंबर, 1947 को गोपालस्वामी को जवाबी पत्र लिखा—“मैं इसके बजाय अपने पत्र को वापस लेना चाहूँगा और चाहूँगा कि आप जैसा श्रेष्ठ समझें, उस तरह से इस मुद्दे से निबटें, न कि इसे अपने लिए परेशानी का सबब बनने दें।” इस बीच जब नेहरू को 22 दिसंबर, 1947 के सरदार के उपर्युक्त पत्र की जानकारी हुई तो उन्होंने अगले दिन 23 दिसंबर, 1947 को पटेल को काफी हद तक कठोर और बासी पत्र लिखने का फैसला किया (अर्पी5)—
“गोपालस्वामी आयंगर को विशेष रूप से कश्मीर मामलों में मदद करने के लिए कहा गया है। इस वजह और कश्मीर की उनकी जानकारी तथा अनुभव को देखते हुए उन्हें पूरी छूट प्रदान की गई है। मैं यह नहीं समझ सकता कि इसमें रियासती मंत्रालय कहाँ से बीच में आ गया, सिवाय इसके कि उसे उठाए जानेवाले कदमों से अवगत रखा जाए! यह सब मेरी पहल पर किया गया है और मैं उन मामलों में अपने कर्तव्यों से पीछे हटने को तैयार नहीं ह ूँ, जिनके लिए मैं खुद को जिम्मेदार मानता हूँ। क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि गोपालस्वामी के प्रति आपका रवैया एक सहकर्मी के रूप में शायद ही शिष्टाचार के अनुसार था?” (आर.जी./447/एल-7686)
इस प्रकार के एक असंयमी पत्र का जवाब बिल्कुल अपेक्षित था। पटेल ने 23 दिसंबर, 1947 को नेहरू को लिखा (अर्पी5)—
“आपका आज का पत्र मुझे अभी शाम के 7 बजे प्राप्त हुआ है और मैं आपको यह बताने के लिए तुरंत ही इसका जवाब लिख रहा हूँ। मुझे इससे काफी दुःख पहुँचा है। आपका यह पत्र मिलने से पहले ही मैं गोपालस्वामी को एक और पत्र लिख चुका हूँ, जिसकी प्रति संलग्न है। अगर मुझे (यह बात) पता होता कि उन्होंने हमारे पत्राचार की प्रतियाँ आपको भेजी हैं तो मैंने सीधे ही अपने पत्र की एक प्रति आपको भी भेजी होती। कुछ भी हो, आपका पत्र मुझे इस बात को स्पष्ट करता है कि मुझे आपकी सरकार के सदस्य के रूप में काम करना जारी नहीं रखना चाहिए या मैं जारी नहीं रख सकता और इसलिए, मैं अपने पद से इस्तीफा दे रहा हूँ। मैं अपने इस कार्यकाल, जो काफी तनावपूर्ण रहा है, के दौरान प्रदर्शित किए गए शिष्टाचार और अनुकंपा के लिए आपका आभारी हूँ।” (आर.जी./447) निश्चित रूप से, उपर्युक्त पत्र को माउंटबेटन की सलाह पर गांधी को नहीं भेजा गया, जिनकी राय यह थी कि पटेल के बिना सरकार को चलाया नहीं जा सकता। (बी.के.2/162)
नेहरू के घमंड और उनके अनुचित एवं विचारशून्य तरीकों से विरक्त और निराश सरदार ने दिसंबर 1947 में और फिर, उसके बाद जनवरी 1948 में गांधीजी से सरकार से खुद को अलग करने की इच्छा जाहिर की थी।
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बलराज कृष्ण ने लिखा—
“कश्मीर को रियासती मंत्रालय से लेकर उसे आयंगर, जो खुद बिना पोर्टफोलियो वाले एक मंत्री थे, के हवाले करने में नेहरू अब्दुल्ला के प्रभाव में काम कर रहे थे। वे सर्वथा अब्दुल्ला के लिए पटेल को छोड़ रहे थे, साथ ही इस बात को भी पूरी तरह से अनदेखा कर रहे थे कि कैसे सरदार सत्ता के हस्तांतरण के पहले और बाद के झंझावात भरे, तनावपूर्ण और विनाशक महीनों के दौरान एक वफादार मित्र तथा एक मजबूत स्तंभ के रूप में उनके साथ खड़े थे।” (बी.के./388)
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नेहरू ने 6 जनवरी, 1948 को गांधी को एक लंबा नोट लिखा, जिसमें उन्होंने पटेल के साथ अपने मतभेदों के लिए उनकी मध्यस्थता की माँग की थी। गांधी ने वह पत्र पटेल को भेज दिया। पटेल ने गांधी को जवाब दिया—
“वे (नेहरू) इस विषय (हिंदू-मुसलमान संबंधों) को लेकर जो कुछ भी कहते हैं, मैंने उसकी सराहना करने का पूरा प्रयास किया है। लेकिन मैंने इसे लोकतंत्र और कैबिनेट जिम्मेदारी के आधार पर समझने का जितना भी प्रयास किया, मैंने खुद को प्रधानमंत्री के कार्यों और कर्तव्यों को लेकर उनकी अवधारणा के साथ खुद को सहमत नहीं कर पाया हूँ। अगर इस अवधारणा को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह प्रधानमंत्री को एक तरह से तानाशाह की भूमिका में पहुँचा देगा, क्योंकि वे चाहते हैं, ‘काम करने की पूरी आजादी—वह भी जब भी और जैसे भी वह चाहें’। मेरे खयाल से, यह सरकार की लोकतांत्रिक और कैबिनेट प्रणाली के बिल्कुल उलट है। मेरी अवधारणा के अनुसार, प्रधानमंत्री की स्थिति निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ है; वे बराबरों में प्रथम हैं। हालाँकि, उनके पास अपने सहयोगियों से अधिकार नहीं है और अगर उनके पास कोई है तो एक मंत्रिमंडल या फिर कैबिनेट जिम्मेदारी पूरी तरह से निरर्थक होगी।” (एल.एम.एस./177)
दुर्गा दास ने लिखा—“दो दिन पहले (30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या से पहले) मैं आजाद से मिला था और मुझे इस बात की जानकारी हुई कि नेहरू और पटेल के बीच का तनाव एक ऐसे बिंदु तक पहुँच गया था, जहाँ प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल की बैठक में मेज पर गुस्से में हाथ मारते हुए कहा था, ‘पटेल, आपको जो पसंद हो, आप वही करिए। मैं इसे बरदाश्त नहीं करूँगा।’
...नेहरू का गुस्सा मूल रूप से उनके दरबारियों और पिछलग्गुओं द्वारा भरी गई उस भावना का परिणाम था कि पटेल देश को दक्षिणपंथ की ओर ले जा रहे हैं। (अब, अगर वे देश को दक्षिणपंथ की ओर ले जा रहे थे तो उसमें क्या गलत था? आखिर नेहरू भी तो अपने वामपंथ और गरीबी को बढ़ानेवाले साम्यवाद के साथ देश को गर्त में धकेल रहे थे!)...अगले दिन जब मैंने पटेल को फोन किया तो उन्होंने मुझसे कहा कि नेहरू का ‘दिमाग खराब हो गया है’ और उन्होंने अपनी तरफ से अब इसके बाद ‘इस बकवास के साथ और’ आगे न खड़े रहने का फैसला किया है। उन्होंने बताया कि वे गांधी से मिलने और उन्हें यह बताने जा रहे हैं कि वे अलग हो रहे हैं। मैंने कहा कि बापू उन्हें छोड़ने के लिए कभी भी हामी नहीं भरेंगे। पटेल ने चुपचाप जवाब दिया, ‘बुजुर्ग व्यक्ति अब सठिया गए हैं। वे चाहते हैं कि माउंटबेटन जवाहर और मुझे साथ लाएँ।’” (डी.डी./277)
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इससे पहले कि गांधी पटेल और नेहरू के बीच के मतभेदों को सुलझा पाते, 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या कर दी गई। इसने नेहरू और पटेल को एक साथ आने पर मजबूर कर दिया। राष्ट्र की खातिर और दिवंगत आत्मा (गांधी) के अनुरोध का सम्मान करने के लिए पटेल ने खुद की कुरबानी दे दी। देशभक्ति के आधार पर बात करें तो पटेल को गांधी की मृत्युपर भावुकता को हावी नहीं होने देना चाहिए था और देश की भलाई के लिए उन्हें नेहरू के साथ अपनी लड़ाई को एक तार्किक अंत तक पहुँचाना चाहिए था, जो था—उन्हें अपनी तमाम शक्तियों को एकत्रित कर नेहरू को गद्दी से हटा देना चाहिए था और भारत को उन अतल गहराइयों में जाने से बचाना चाहिए था, जिनमें नेहरू आखिरकार उसे ले गए थे और भारत को उस शिखर तक ले जाना चाहिए था, जहाँ तक ले जाने में सिर्फ वे ही सक्षम थे।
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ध्यान देनेवाली बात यह है कि वर्ष 1947-53 के बीच जम्मूव कश्मीर के उप-प्रधानमंत्री रहे नेशनल कॉन्फ्स के बख रें ्शी गलुाम मोहम्मद भी जम्मूव कश्मीर के मसले से निबटे जाने के तरीके से इतने अधिक परेशान और चौकन्ने हो गए थे कि वे सरदार पटेल से मिले और उनसे गुजारिश की—
“आखिर आप (सरदार पटेल) इस समस्या को अपने हाथों में लेकर इसे भी हैदराबाद की तरह निबटा क्यों नहीं देते हैं? पटेल ने रहस्यमय ढंग से जवाब दिया, ‘आप अपने मित्र (नेहरू) के पास जाइए और उनसे दो महीने के लिए कश्मीर की समस्या से दूर रहने के लिए कहिए, मैं इसे सुलझाने का बीड़ा उठा लूँगा।’” (मैक/440-41)
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘पटेल : ए लाइफ’ में लिखते हैं—
“पटेल इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने और आम लोगों के बीच ‘ठीक समय पर काररवाई’ के पक्ष में थे; लेकिन कश्मीर तब तक जवाहरलाल की जिम्मेदारी बन चुका था और वल्लभभाई को नेहरू के तरीके पसंद नहीं थे, विशेषकर तब, जब दिसंबर के अंत में नेहरू ने इस बात की घोषणा की कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र जाने का फैसला कर लिया है। जवाहरलाल ने महात्मा की मूक सहमति पा ली। भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र की मदद लिये जाने के बाद पटेल के संदेह एक-एक करके सच में बदलते जा रहे थे।” (आर.जी./448)
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जयप्रकाश नारायण, जो नेहरू के समर्थक और पटेल के विरोधी थे, ने भी बाद में स्वीकार किया, “कश्मीर के मुद्दे को नेहरू के भरोसे छोड़ देना देश के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुआ। पंडितजी द्वारा इसे गलत तरीके से सँभाले जाने के चलते यह मुद्दा अब सिर्फ एक आंतरिक मसला नहीं रह गया था, जैसाकि होना चाहिए था; बल्कि अब यह एक अंतरराष्ट्रीय मामले के रूप में संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद् में सुलग रहा था, जिससे पाकिस्तान जब चाहे, तब इसे उठाने में सक्षम हो रहा था। देश के कई दिग्गज नेता इस बात को मानते हैं कि अगर इस मामले को सरदार के हाथों में दिया गया होता तो उन्होंने निश्चित ही इसका कोई संतोषजनक समाधान निकाल दिया होता और ऐसा करके उन्होंने इसे हमारे लिए रोज-रोज का एक सिरदर्द और भारत व पाकिस्तान के बीच कड़वाहट तथा दुश्मनी का कारण नहीं बनने दिया होता।” (बी.के./396-7)
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सरदार पटेल ने कथित तौर पर एच.वी. कामत से कहा था कि अगर नेहरू और आयंगर ने कश्मीर को उनके गृह एवं रियासती मंत्रालय से अलग करते हुए उसे अपने नजदीकी संरक्षण में नहीं रखा होता तो उन्होंने इस समस्या को बिल्कुल उसी प्रकार से सुलझा दिया होता, जैसे वे पहले ही हैदराबाद की समस्या सुलझा चुके थे।
सरदार पटेल ने एयर मार्शल थॉमस एल्महर्स्ट से कहा था—
“अगर फैसला मेरे हाथ में होता तो मुझे लगता है कि मैं कश्मीर के इस छोटे से मसले को पाकिस्तान के साथ एक पूर्णकालिक युद्ध के रूप में बढ़ा देने के पक्ष में हूँ। हमेशा-हमेशा के लिए इस मामले को खत्म करें और एक संयुक्त महाद्वीप के रूप में स्थापित हो जाएँ।” (बी.के.2/157)
वामपंथी एम.एन. रॉय, जो पटेल को जरा भी पसंद नहीं करते थे, का भी यह मानना था कि अगर कश्मीर का मसला पटेल के पास ही रहा होता तो उन्होंने इसे विभाजन के तुरंत बाद ही हल कर दिया होता। उन्होंने ‘मेन आई मैट’ में सरदार पटेल के विषय में लिखा—
“अगर सरदार पटेल को कश्मीर के मुद्दे को उनके अपने तरीके से सँभालने की छूट मिल गई होती तो भारत को आज अपने राजस्व का 50 प्रतिशत सैन्य बजट के रूप में खर्च नहीं करना पड़ता।...सरदार के पास इस खेल को खेलने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं था, लेकिन ये तो निश्चित था कि सरदार लोकप्रिय नायकों द्वारा अपनी मूर्खता को लुभावने वस्त्रों में लपेटकर रखनेवालों से घृणा करते हैं (नेहरू पर संकेत)।” (राॅय/17)