Nehru Files - 21 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-21

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नेहरू फाइल्स - भूल-21

भूल-21
 कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण 

नेहरू ने जम्मूव कश्मीर के मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर उस मुद्दे का अनावश्यक रूप से अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया, जो पूर्ण रूप से एक आंतरिक मुद्दा था। उन्होंने ऐसा एक बार फिर ब्रिटिश माउंटबेटन के प्रभाव में आकर ही किया था। वी. शंकर ने ‘माय रेमिनिसेंसिस अ‍ॉफ सरदार पटेल’, भाग-1 में लिखा— 
“माउंटबेटन ने नेहरू को एक प्रसारण करने के लिए राजी किया, जिसमें उन्हें यह घोषणा करनी थी कि विलय संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में एक जनमत-संग्रह के अधीन होगा। इसके लिए 28 अक्तूबर (1947) को रात्रि 8.30 बजे का समय निर्धारित किया गया। सरदार पटेल सभी महत्त्वपूर्ण प्रसारणों के टेक्स्ट को देखने पर जोर देते थे, जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल थे। उस दिन जवाहरलाल नेहरू खासे व्यस्त थे और वे टेक्स्ट को रात के 8.15 बजे ही भेज पाए। सरदार ने उसे पढ़ा और शर्मिंदा करनेवाली वचनबद्धता पर ध्यान दिया। उन्होंने नेहरू से संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन वे प्रसारण भवन की ओर रवाना हो चुके थे। इसके बाद सरदार ने मुझे प्रसारण भवन पहुँचने और पं. नेहरू को ‘संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में’ वाले अपमानजनक वाक्यांश को हटाने के लिए बोलने की जिम्मेदारी सौंपी। ...” (शैन 1) 

हालाँकि, वी. शंकर के वहाँ पहुँचने से पहले ही नेहरू माउंटबेटन द्वारा प्रेरित काम को अंजाम दे चुके थे। नेहरू की ओर से एक ब्रिटिश लॉर्ड माउंटबेटन, जिसका अपना मतलब था, की बातों में आकर ‘संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में जनमत-संग्रह’ की वचनबद्धता की बात को कहना, वह भी बिना मंत्रिमंडल और देशभक्त भारतीयों (जैसे सरदार पटेल और अन्य) को भरोसे में लिये, बेवकूफाना हरकत थी। 

एक पुराने कांग्रेसी डी.पी. मिश्रा ने लिखा— 
“इसके तुरंत बाद मैंने नागपुर में अ‍ॉल इंडिया रेडियो पर नेहरू की आवाज सुनी, जिसमें वे कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाने की भारत सरकार की प्रतिबद्धता को दोहरा रहे थे। पटेल के साथ हुई अपनी बातचीत के बाद मुझे ऐसा लगता था कि महाराजा के हस्ताक्षर के बाद कश्मीर का मामला पूरी तरह से सुलझ चुका है। मैं नेहरू की इस घोषणा से आश्चर्यचकित था। मैं अगली बार जब दिल्ली गया तो मैंने नेहरू से विशेष तौर पर पूछा कि क्या कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाने का फैसला मंत्रिमंडल की बैठक में लिया गया था? उन्होंने आह भरी और अपना सिर ‘न’ में हिला दिया। यह बिल्कुल स्पष्ट था कि नेहरू ने माउंटबेटन की सलाह पर काम किया था और अपने सहयोगियों की उपेक्षा की थी।” 

संयुक्त राष्ट्र का रुख करना भी एक ऐसा मामला था, डॉ. आंबेडकर और अन्य जिसके खिलाफ थे; लेकिन नेहरू एक बार फिर 2 नवंबर, 1947 को अपने रेडियो प्रसारण के जरिए दोबारा उसके साथ सार्वजनिक रूप से आगे बढ़ गए। संतुलित सलाह के बावजूद नेहरू ने 1 जनवरी, 1948 को जम्मूव कश्मीर के मामले को औपचारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र में भेजकर भारत के लिए सेल्फ गोल कर लिया। इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण होने के चलते भारत को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही मोरचों पर बहुत नुकसान उठाना पड़ा। यह सिर पर लटकती एक तलवार की तरह हो गया। ब्रिटेन, अमेरिका और उनके सहयोगियों ने ब्रिटेन के नेतृत्व में जम्मूव कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रामकता की अनदेखी करते हुए भारत के बजाय पाकिस्तान का पक्ष लेने की राजनीति खेलना प्रारंभ कर दिया। 

यह बात कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सदस्य अपने स्वयं के स्वार्थी राष्ट्रीय हितों के आधार पर काम करते थे और शक्ति-संतुलन के खेल में व्यस्त रहते थे, शायद विदेशी मामलों के जानकार नेहरू की जानकारी में यह नहीं था। हमेशा की तरह नेहरू को करने के बाद अपनी भूल का अहसास हुआ। नेहरू ने कश्मीर मुद्देपर खेद व्यक्त किया, “इस मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया गया है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के संदर्भ में और अधिकांश महान् शक्तियाँ इस बात में बेहद दिलचस्पी रखे हुए हैं कि कश्मीर में क्या हो रहा है, (कश्मीर मामले) ने हमें काफी परेशान किया है। महान् शक्तियों का रवैया चौंका देनेवाला रहा है। कइयों ने तो पाकिस्तान के लिए सक्रिय पक्षपात भी प्रदर्शित किया है। हमें लगता है कि हमारे साथ उचित बरताव नहीं किया गया है।” (बीके2/159) 

‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ में नटवर सिंह लिखते हैं—
“कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में ले जाना एक बहुत बड़ी गलती थी। उन्होंने (नेहरू ने) ऐसा करके एक घरेलू मामले को अंतरराष्ट्रीय मामले में बदल दिया। इससे भी अधिक बड़ी गलती थी—उनका संयुक्त राष्ट्र में संयुक्त राष्ट्र चार्टर के चार्टर 6 के तहत जाना, जो खुद विवादों से संबंधित था। उन्हें संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर की समस्या को चार्टर 7 के तहत उठाना था, जो आक्रामकता से संबंधित है। कश्मीर के मामले में उन्होंने अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को पेशेवर फैसले पर हावी हो जाने दिया; उनके कद के राजनेता के लिए एक प्रमुख असफलता। परिषद् के सदस्यों का यह कहना बिल्कुल सटीक था कि ऐसा करके भारत ने यह स्वीकार कर लिया है कि विवाद तो है।” (के.एन.एस./114) 

ब्रिटिश माउंटबेटन के पिछलग्गू बनने के अलावा क्या नेहरू का मार्क्सवाद-साम्यवादी झुकाव जनमत-संग्रह के फैसले की वजह था? 

सीताराम गोयल ने टिप्पणी की— “पं. नेहरू ने कैबिनेट के अपने किसी भी सहयोगी या महात्मा गांधी से बिना सलाह लिये ही कश्मीर में जनमत-संग्रह का वादा किया था। मैं सी.पी.आई. (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) द्वारा ब्रिटिश कैबिनेट मिशन को सौंपे गए एक ज्ञापन का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमें कश्मीर को एक अलग राष्ट्रीयता के रूप में वर्णित किया गया था, जिसे एक स्वतंत्र राज्य बनने पर आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए था। सी.पी.आई. ने वर्ष 1948 के प्रारंभ में ही भारत में कश्मीर के विलय को साम्राज्यवादी विलय बताते हुए उसकी निंदा की थी। उस समय के सभी आधिकारिक रूसी प्रकाशनों में कश्मीर में मौजूद भारतीय सेना को कब्जा करनेवाली सेना के रूप में वर्णित किया गया था। इसके चलते पं. नेहरू की साम्यवादी अंतरात्मा को लगातार पीड़ा का सामना करना पड़ा। उन्होंने न सिर्फ जनमत-संग्रह का वादा किया था, बल्कि भारतीय सेना को पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर की ओर किए जा रहे विजय अभियान को भी रोकने का आदेश दिया था। उन्होंने कश्मीर में जनमत-संग्रह पर अपने रुख को सिर्फ तभी बदला, जब पाकिस्तान के अमेरिका के साथ गठबंधन कर लेने के बाद सोवियत संघ एवं सी.पी.आई. ने इसे लेकर अपना रुख बदला और कश्मीर में भारत की बात के समर्थन में आ गए। दूसरी तरफ, उसने पश्चिम के एक झूठे प्रचार अभियान को खुला छोड़ दिया, जो उन्हें सिर्फ जनमत-संग्रह के उस आधे-अधूरे वादे की याद दिला रहा था, जो उन्होंने खुद पहले किए थे।” (एस.आर.जी.2/171)