Nehru Files - 13 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-13

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नेहरू फाइल्स - भूल-13

भूल-13 
ब्रिटिश जेल : वी.आई.पी. के रूप में नेहरू और अन्य गांधीवादी बनाम दूसरे कैदी 

शीर्ष गांधीवादियों के बिल्कुल विपरीत, जिनके साथ जेलों में बहुत अच्छा व्यवहार किया जाता था, जेलों में बंद भारतीय राजनीतिक कैदियों, जिनमें क्रांतिकारी भी शामिल थे, की स्थिति बेहद खराब थी। उनके कपड़ों को कई-कई दिनों तक धोया नहीं जाता था; उनकी रसोई में चूहे और तिलचट्टे इधर से उधर घूमते रहते थे; और उन्हें पढ़ने-लिखने के लिए सामग्री तक उपलब्ध नहीं करवाई जाती थी। राजनीतिक कैदी होने के नाते वे लोग उम्मीद करते थे कि उनके साथ अपराधियों के बजाय सामान्य व्यवहार किया जाए। उन्होंने जेल में बंद अन्य यूरोपीय और बाकी शीर्ष गांधीवादियों की ही तरह के खान-पान, कपड़ों, शौचालयों और अन्य स्वच्छता आवश्यकताओं के साथ-साथ पुस्तकों और दैनिक समाचार-पत्रों तक पहुँच की माँग उठाई। इसके अलावा, उन्होंने खुद को जबरन मानव श्रम के तहत लाने का भी विरोध किया। इन मुद्दों को प्रमुखता दिलवाने के लिए भगत सिंह और उनके साथियों, जिनमें जतिन दास भी शामिल थे, ने भूख हड़ताल शुरू की। जतिन 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद 13 सितंबर, 1929 को लाहौर जेल में शहीद हो गए।

अगर पीड़ा और बलिदान की बात की जाए तो ब्रिटिश जेलों में कइयों को यातनाएँ दी गईं और मारा गया, लेकिन किसी भी शीर्षगांधीवादी कांग्रेस नेता को ऐसे व्यवहार से नहीं गुजरना पड़ा। नेहरू ने खुद अपनी कई पुस्तकों में जेलों में बंद कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बेरहमी से मारपीट के किस्सों को वर्णित किया है। अधिकांश गांधीवादियों के लिए, विशेषकर शीर्षपदों वालों के लिए, कहा जाए तो जेल अपेक्षाकृत बेहद सहज थी। एक तरफ अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को बेरहमी के साथ सताते हुए ब्रिटिशों ने गांधी-नेहरू और उनकी मंडली के प्रति नरम रुख अपनाए रखा और उन्हें आरामदायक परिस्थितियों में बंदी बनाया। सन् 1930 में गांधी को गिरफ्तार करने के बाद अंग्रेजों ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि उन्हें स्वास्थ्य और आराम से संबंधित कोई परेशानी न झेलनी पड़े। सन् 1942-45 के दौरान अहमदनगर जेल में उनका (आजाद और नेहरू सहित शीर्षगांधीवादियों का) जीवन बिल्कुल भी परेशानी भरा नहीं था और इसका अनुमान निम्नलिखित प्रकरणों से लगाया जा सकता है। राजमोहन गांधी ने लिखा— 
“कृपलानी याद करते हुए बताते हैं कि जेल पहुँचने के पहले ही दिन आजाद ‘गुस्से में बुरी तरह से आगबबूला’ थे। उन्होंने जेलर को सिर्फ इसलिए बाहर निकाल दिया, क्योंकि वह उनके लिए पहले से ही तैयार चाय को अल्युमीनियम की केतली में रखकर और साथ ही अल्युमीनियम की एक प्लेट में ब्रेड के कुछ टुकड़े और चाय के लिए गिलास ले आया था। कांग्रेस अध्यक्ष ने जेलर को चाय को एक चायदान में, एक जग में दूध और प्याली में चीनी लाने और साथ ही कप, तश्तरी व चम्मच लाने का भी ‘हुक्म’ दिया। जेलर, जो भारतीय था, ने उनके आदेश का पालन किया। पट्टाभि के मुताबिक, वह ‘अपने कर्तव्यों का निर्वहन बेहद बहादुरी के साथ कर रहा था और नए मेहमानों के प्रति उसका आदर देखा जा सकता था; लेकिन साथ ही वह अपने पुराने आकाओं के प्रति अडिग निष्ठा भी दिखा रहा था।’” (आर.जी.2)

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी आत्मकथा में वर्णित किया है—
“जल्द ही हमें लोहे की थालियों में रात का खाना परोसा गया। वे हमें जरा भी पसंद नहीं थीं और हमने जेलर को बताया कि हम चीन की प्लेटों में खाने के आदी हैं। जेलर ने माफी माँगी और कहा कि वह इस समय तो हमारे लिए डिनर सेट की व्यवस्था नहीं कर सकता, लेकिन अगले दिन जरूर उसकी व्यवस्था हो जाएगी। पूना से आए एक कैदी को रसोइए के रूप में हमारी सेवा करने का जिम्मा सौंपा गया था। वह हमारे स्वाद का भोजन नहीं पका पा रहा था। उसे जल्द ही हटा दिया गया और उसके स्थान पर एक बेहतर रसोइए को नियुक्त किया गया।” (आजाद/91) 

अहमदनगर जेल में नेताओं की दिनचर्या, जिसमें आजाद, नेहरू, पटेल आदि शामिल थे, अकसर कुछ ऐसी होती थी—सुबह 7 बजे नाश्ता, दोपहर 1 बजे दोपहर का खाना, 1 से 3 बजे के बीच ब्रिज का खेल, 3 से 5 बजे के बीच आराम और उसके बाद चाय (अकसर दोपहर के खाने और चाय के बीच के वक्त लिखने या पढ़ने का काम भी होता था), शाम के 6 से 7 बजे के बीच खेल, शाम के 7 से रात के 8ः30 बजे के बीच रात का खाना, जिसके बाद कॉफी और फिर आराम। 

गांधी को वर्ष 1942 से 1944 के बीच पूना के भव्य आगा खाँ पैलेस में ‘कैद’ किया गया था। 
नेहरू को नैनी और अन्य जेलों में समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ और पुस्तकें आसानी से मिलती थीं। उन्हें पढ़ने और लिखने में इस्तेमाल होनेवाली सामग्री की आपूर्ति भी पर्याप्त थी। उन्होंने वर्ष 1930 से 1933 के बीच नैनी जेल में ‘ग्लिंप्सेस अ‍ॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ लिखी; 1934-35 के दौरान बरेली और देहरादून जेलों में ‘एन अ‍ॉटोबायोग्राफी’ और 1942 से 1945 के बीच अहमदनगर जेल में रहते हुए ‘डिस्कवरी अ‍ॉफ इंडिया’ का लेखन किया। 

शीर्ष गांधीवादियों के लिए जेल एक तरह से छुट्ट‍ियाँ बिताने जैसी थीं। आसफ अली ने लिखा—
“नेहरू के पास अपनी तथाकथित जेल में करीब-करीब एक बँगला था, जिसमें उनके पसंदीदा नीले रंग के परदे मौजूद थे। वे बेहद आराम के साथ बागबानी कर सकते थे और अपनी पुस्तकें लिखने के लिए स्वतंत्र थे। जब उनकी पत्नी बीमार पड़ीं तो उनकी सजा को बिना माँगे ही रद्द कर दिया गया!” (यू.आर.एल.70) 

ऐसा कहा जाता है कि यू.पी. के तत्कालीन गवर्नर सर हार्कोर्ट बटलर ने मोतीलाल नेहरू से अपने संबंधों के चलते जेल (सार/323) में ही उनके लिए बेहतरीन खाना और यहाँ तक कि शैंपेन की बोतल तक भिजवाई थी। एम.जे. अकबर की पुस्‍तक के अनुसार—“...लेकिन यह मोतीलाल (नेहरू) ने मुझे (आर्थर मूर, ‘द स्टेटसमैन’ के पूर्व संपादक) बताया कि ऐसा हुआ था। जेल की उनकी (मोतीलाल की) पहली सुबह को सरकारी आवास (सर हरकोर्ट बटलर गवर्नर थे) से एक ए.डी.सी. दोपहर के भोजन के समय एक नैपकिन में लिपटी हुई शैंपेन की आधी बोतल लेकर पहुँचा और जब तक वे उस कारावास में रहे, तब तक यह क्रम प्रतिदिन जारी रहा।” (अकब./123-4) 

नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा—
“व्यक्तिगत रूप से मैं बेहद भाग्यशाली रहा हूँ और लगभग स्थिर रूप से मुझे हमेशा ही अपने देशवासियों और अंग्रेजों से शालीनता ही प्राप्त हुई है। यहाँ तक कि मेरे जेलर और पुलिसकर्मी भी, जिन्होंने या तो मुझे गिरफ्तार किया या फिर एक कैदी के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक लेकर गए, मेरे प्रति शिष्ट ही रहे हैं और इस मानवीय भावना के चलते टकराव की कड़वाहट और कैदी के रूप में लगा डंक भी काफी हद तक कम हो गया है। यहाँ तक कि अंग्रेजों के लिए भी मैं भीड़ का हिस्सा न होकर एक विशिष्ट व्यक्ति था और मुझे लगता है कि चूँकि असल में मेरी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई थी और विशेष रूप से मैं एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल में गया था, मुझे उनके और करीब लाने में सफल रहा। इसी वजह के चलते उन्हें अपने खुद के पैटर्न के बाद मुझे काफी हद तक सभ्य मानना ही पड़ा।” (जे.एन.2) 

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि गांधी और नेहरू जैसे शीर्षगांधीवादी नेताओं ने यह सुनिश्चित करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया कि क्रांतिकारियों और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बिल्कुल वैसा ही व्यवहार किया जाए, जैसा उनके साथ स्वतंत्रता सेनानी के रूप में किया जा रहा है। उनका समर्थन करने के लिए या फिर उन्हें न्याय दिलवाने के लिए कोई असहयोग नहीं, कोई आंदोलन नहीं, कोई सविनय अवज्ञा नहीं और न ही कोई उपवास। इसके बिल्कुल विपरीत, लोकमान्य तिलक क्रांतिकारियों समेत अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के समर्थन में जो कुछ भी कर सकते थे, उन्होंने किया। और ऐसा तब हो रहा था, जब क्रांतिकारियों ने वर्ष 1920-22 के गांधी के असहयोग आंदोलन का समर्थन पूरे दिल से किया था। 

कालापानी (हमारे समय के गुलाग आर्किपिलागो और ग्वांतानामो बे जेलों के प्रणेता) में बंद सावरकर और अन्य बंदियों के साथ बेहद क्रूर व अमानवीय व्यवहार किया जाता था। कैदियों को बेड़ियों में जकड़ा जाता था, खाने के लिए कीड़े लगा दलिया दिया जाता; कैदियों का झुंड बनाकर उन्हें बैलों की तरह चेन से बाँधा जाता और फिर कोल्हू में झोंक दिया जाता, जहाँ वे पता नहीं कितने घंटों तक लगातार, बिना रुके नारियल पेरते रहते। कैदियों को कोड़ों से भी मारा जाता। (यू.आर.एल.70)

“पोर्ट ब्लेयर/कालापानी स्थित सेल्युलर जेल की जेलें वास्तव में बेहद भयानक थीं। उसकी छोटी-छोटी कोठरियों में कई कैदियों को ठूसकर भरा जाता था और वार्डन से लेकर जेल अधिकारी तक उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित करते थे। जेल का प्रमुख स्तंभ था—निगरानी रखना, जिसने अपना यह नाम उन छोटी और व्यक्तिगत कोठरियों के चलते पाया था, जिनमें कैदियों को रखा जाता था। 693 कोठरियों में से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई 4.5 मीटर गुणा 2.7 मीटर थी, जिनमें पीछे की दीवार पर 3 मीटर की ऊँचाई पर एक छोटा सा रोशनदान बना था। प्रत्येक खंड का सामने का गलियारा अपने नजदीकी खंड की पिछली दीवार के सामने पड़ता था, ताकि कैदी किसी भी तरह से आपस में बात न कर सकें। भूख, यातना और अकेलेपन की तीन-तरफा रणनीति में से वह तीसरा था, जिसे सबसे कठोरतम दंड माना जाता था। कैदियों को थका देनेवाला काम दिया जाता था और उन्हें सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बैठने नहीं दिया जाता था। ऐसी परिस्थितियों में थोड़ी-बहुत दया के लिए अंग्रेज अधिकारियों के सामने झुक जाना बिल्कुल लाजमी था। जेलों की दीवारें उसमें बंदी बनाए गए कैदियों की रोंगटे खड़े कर देनेवाली चीखों से गूँज उठती थीं।” (यू.आर.एल.92) 

“सावरकर को सेल्युलर जेल में हद से अधिक यातना और अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ा, जिसने उनके दृढ़ निश्चय की प्रत्येक सीमा की परीक्षा ली। उन्हें लगातार जंजीराें से बाँधा जाता, कोड़ों से पीटा जाता और फिर छह महीने के लिए तनहाई (काल-कोठरी की सजा) में डाल दिया गया। अंग्रेजों ने उन्हें अपने नंगे हाथों से नारियल के जूट को कूटने को मजबूर किया, जिसके चलते अकसर उनके हाथ खून से लथपथ हो जाते थे। उन्हें तेल निकालने के लिए नारियल को चूर-चूर करनेवाले बड़े कोल्हू को बैल की तरह जुतकर घुमाना पड़ता और प्रतिदिन करीब 30 पाउंड तेल का उत्पादन करना पड़ता था। वैसे तो यह सजा सिर्फ उन कैदियों को दी जाती थी, जो पहरेदारों के साथ बुरा व्यवहार करते थे, लेकिन सावरकर को अकसर उनके अच्छे बरताव के बावजूद ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाता था। अकेलेपन के दौरान उन्होंने जेल की दीवारों पर कविताएँ उकेर दीं। रक्षकों ने उन्हें कष्ट पहुँचाने के लिए उन दीवारों पर पुताई कर दी, जिन पर उन्होंने कविताएँ उकेरी थीं। कुछ लोगों के अनुसार, उन्हें अकसर सरकार के खिलाफ किए गए उनके ‘अपराधों’ के लिए सजा के तौर पर सड़े हुए भोजन को खाने के लिए मजबूर किया जाता था, जिसमें कीड़े-मकोड़े पड़े होते थे। वे जीवन को बिल्कुल अकेले जी रहे थे, जहाँ उन्हें अपने प्रियजनों को सिर्फ डेढ़ साल में एक बार पत्र लिखने की अनुमति मिली थी और वे एक छोटी सी कोठरी में जबरदस्त शारीरिक व मानसिक यातना के दौर से गुजर रहे थे।” (यू.आर.एल. 91)

“यह उन राजनीतिक कैदियों के बिल्कुल उलट था, जो या तो पागल हो गए थे या फिर जिन्होंने आत्महत्या तक कर ली थी। यहाँ पर यह पूछना जरूरी हो जाता है कि आखिर कितने शीर्ष कांग्रेसी नेताओं को इस प्रकार के कठोर दंडों का भागी बनना पड़ा?...” (यू.आर.एल. 91)

अगर नेहरू या फिर अन्य शीर्ष गांधीवादियों जैसों के साथ इस प्रकार के व्यवहार का सिर्फ 5 प्रतिशत भी किया गया होता तो उन्होंने आजादी की लड़ाई को कभी का अलविदा कह दिया होता। इसके बावजूद सावरकर और कई अन्यों के बलिदानों को मान्यता तक नहीं मिली। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक तरफ तो स्वतंत्रता की लड़ाई के कई ऐसे सेनानी थे, जो पूरी तरह से बेनाम और उपेक्षित ही रहे, वहीं दूसरी तरफ नेहरुओं ने उनके ‘बलिदानों’ का पूरा लाभ उठाया—और कई गुना अधिक। यह उनके द्वारा किया गया सबसे अधिक लाभदायी निवेश था, जिसका लाभ कई हजार गुना तक का था और वह भी कई दशकों तक पूरे वंश और वंशजों के लिए।

“सावरकर के क्रांतिकारी संघर्ष का उद्देश्य ब्रिटिश जेलों में सड़ना नहीं था। सावरकर खुद अपनी रिहाई की याचिकाओं के पीछे के अपने मकसद के बारे में बताते हैं—‘रिस्‍पॉन्सिव कोअ‍ॉपरेशन के एक सदस्य के रूप में इन परिस्थितियों को स्वीकार करना मेरा उत्तरदायित्व था, ताकि मैं अपने देश के लिए उससे कहीं बेहतर और अधिक काम करने में सक्षम हो सकूँ, जितना मैं वर्षों के कारावास के दौरान नहीं कर सका। ऐसा करते हुए मैं अपनी मातृभूमि की सेवा करने को मुक्त हो सकूँगा और मैं इसे एक सामाजिक कर्तव्य मानूँगा।’ (वी.डी.एस./301)...विएतनाम के साम्यवादी नेता हो मिन्ह ने भी कुओमिंगटांग जेल से बिल्कुल ऐसी ही एक याचिका भेजी थी, जिसमें पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया गया था। अंडमान के अधिकांश राजनीतिक कैदियों ने समझौते की ऐसी शर्तों को माना और उन पर दस्तखत किए।” (यू.आर.एल.93) 

“सावरकर ने प्रतिरोध करने की उल्लेखनीय क्षमता प्रदर्शित की। उन्होंने ब्रिटिशों को अपने जाल में फँसाने के लिए रणनीति के तौर पर पत्र लिखे, ताकि वे न सिर्फ खुद को, बल्कि दूसरों को भी जेल से बाहर निकालने में सफल रहें; लेकिन कांग्रेसी कई दशक बीत जाने के बाद भी इस बात को अब तक बेशर्मी के साथ तोड़-मरोड़कर पेश करते आ रहे हैं।” (यू.आर.एल.91) 

लेकिन कांग्रेस और वे लोग, जो सावरकर को उनकी दया याचिकाओं के लिए दोषी ठहराते हैं, वे जवाहरलाल के मामले को पूरी तरह से भूल जाते हैं— 
“नाभा जेल पर लगी पट्ट‍िका के अनुसार, नेहरू को 22 सितंबर, 1923 को के. सतनाम और एटी गिडवानी के साथ नाभा रियासत में प्रवेश पर लगे प्रतिबंध के आदेश की अवहेलना करने के चलते गिरफ्तार किया गया था। उन्हें दो साल की जेल की सजा सुनाई गई। हालाँकि वहाँ किए गए बरताव का सामना करने में नाकामयाब रहने के चलते नेहरू ने सिर्फ दो हफ्ते बाद ही नाभा रियासत में कभी भी प्रवेश न करने के प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। प्रो. लाल ने इस बात को रेखांकित किया कि नेहरू को जिन अन्य जेलों में रखा गया था, जिनमें नैनी और गोरखपुर की जेलें शामिल थीं, उन्हें नाभा में जेल अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के हाथों बेहद बुरे बरताव का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा, ‘नेहरू को नाभा जेल से तभी रिहा किया गया जब उन्होंने एक प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए कि वे दोबारा कभी भी इस रियासत में कदम नहीं रखेंगे।’ ऐसा भी माना जाता है कि नेहरू के पिता मोतीलाल ने उन्हें रिहा करने की सिफारिश करने के लिए वायसराय से भी संपर्क साधा था। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में भी इस बात को स्वीकार किया है कि नाभा जेल में उनके और उनके साथियों पर हुए अत्याचारों ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के साथ एक प्रतिज्ञा- पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित किया कि वे दोबारा कभी भी नाभा रियासत में कदम नहीं रखेंगे। विडंबना यह है कि सिर्फ दो सप्ताह के ही दबाव में बिखर जानेवाले नेहरू को कांग्रेस द्वारा एक महान् नेता, स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित किया जाता है, जबकि अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह की बदनाम कालापानी जेल में 50 साल की दो उम्रकैद की सजा पानेवाले वीर सावरकर को कुछ लोगों द्वारा ‘गद्दार’ और ‘अंग्रेजों का पिट्ठू’ कहा जाता है।” (यू.आर.एल.91)