भाग 5: विरोध की शुरुआत
कॉलेज ऑडिटोरियम में गूँजती तालियों ने साफ़ कर दिया था — अंजली ने सिर्फ़ अपनी आवाज़ नहीं उठाई, बल्कि कई चुप दिलों को जीने की हिम्मत दी थी।
लेकिन बाहर की दुनिया… तालियों से बहुत अलग थी।
सेमिनार के अगले ही दिन, कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर किसी ने गंदे शब्दों में लिखी एक अनाम चिठ्ठी चिपका दी थी —
"आज की लड़कियाँ इज़्ज़त नहीं, आज़ादी के नाम पर बेशर्मी फैलाती हैं।
पढ़ाई नहीं, इन्हें शर्म सिखाने की ज़रूरत है।"
अंजली कुछ पल उस चिठ्ठी को देखती रही, फिर गहरी साँस लेकर मुस्कुरा दी।
अब वो वो अंजली नहीं रही थी जो ऐसे शब्दों से डर जाए।
अब उसमें समाज से आँख मिलाकर खड़े रहने का साहस था।
लेकिन ये शुरुआत थी — विरोध की।
घर पर अंजली के खिलाफ़ बातें और तेज़ हो चुकी थीं।
रिश्तेदारों के फोन, मोहल्ले की औरतों की फुसफुसाहटें, पिताजी का चुप रहकर अख़बार में मुँह छिपाना — सब कुछ एक अदृश्य दीवार बना रहा था।
आरव के लिए भी समय आसान नहीं था। उसके कुछ दोस्त अब दूरी बनाने लगे थे।
"भाई, तू सीरियस हो गया उस लड़की से?"
"लोग तो बोलते हैं उसने अपने बाप की नाक कटा दी है।"
आरव चुपचाप सुनता था, लेकिन जवाब एक ही था —
"अगर प्यार करने से इज़्ज़त जाती है, तो फिर इज़्ज़त किस काम की?"
एक शाम अंजली और आरव कैंटीन में बैठे थे, जब दो लड़कों ने आकर ताना मारा —
"ये वही है ना, जो घर से भागी थी? अब हीरोइन बनी घूम रही है!"
अंजली उठी, उनके सामने खड़ी हुई और कहा —
"हाँ, मैं वही हूँ। और अगर तुममें दम है, तो किसी लड़की के सपनों को बर्दाश्त करना सीखो। वरना चुप रहो।"
वो लड़के झेंप गए और चले गए।
आरव ने कहा,
"तुम हर बार मुझे हैरान कर देती हो।"
अंजली मुस्कुरा दी,
"मैं अब किसी को अपना डर नहीं दिखाऊँगी, आरव।"
लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी लड़ाई अभी बाकी थी — घरवालों से मिलना।
अंजली जानती थी कि माँ-पापा को छोड़े बिना उसने जो फैसला लिया, वो उन्हें टूटा हुआ महसूस करा रहा है।
एक दिन, बहुत सोचने के बाद उसने माँ को फोन किया।
"माँ… कैसी हो?"
माँ चुप थीं। फिर धीमे से बोलीं —
"कैसी हो ये मत पूछ… तू खुश है ये बता।"
अंजली की आँखें भर आईं।
"माँ, मैं खुश हूँ… लेकिन अधूरी भी। तुम्हारे बिना सब अधूरा लगता है।"
माँ रो पड़ीं —
"तेरे पापा अब भी गुस्से में हैं। मोहल्ले वाले ताने मारते हैं… पर मुझे बस तू चाहिए।"
उस दिन अंजली ने तय किया कि वह घर जाएगी — पहली बार आरव के साथ नहीं, अकेली… ताकि वो बात करे, नहीं… लड़े नहीं, समझाए।
घर लौटते समय, मोहल्ले की नज़रों में फिर वही ज़हर था।
पापा ने दरवाज़ा नहीं खोला, माँ ने चुपचाप अंजली को अंदर बुलाया।
"पापा से बात करनी है…"
अंजली ने कहा।
माँ ने सर हिलाया — "अंदर बैठें हैं।"
अंजली उनके सामने पहुँची।
पिता अख़बार पढ़ने का दिखावा कर रहे थे।
"पापा…"
"अब कोई बात नहीं करनी।"
"सुनिए पापा… मैं गलत नहीं हूँ। मैंने किसी की जान नहीं ली, किसी को धोखा नहीं दिया।
मैं बस जी रही हूँ — अपनी मर्ज़ी से, अपने सपनों के लिए।"
पिता की आँखें काँपने लगीं।
"और समाज? जो लोग कहते हैं…"
"पापा!"
अंजली की आवाज़ में वो थरथराहट थी, पर साथ ही दृढ़ता भी।
"अगर मैं सिर्फ़ लोगों की बातों से डरती, तो आज आप की बेटी नहीं, बस एक परछाई होती।
मैं आपकी इज़्ज़त बनना चाहती थी… बोझ नहीं।"
कुछ पल का सन्नाटा।
फिर पापा उठे और कहा —
"जाओ… तुम्हारा रास्ता तुम्हें मुबारक हो।"
अंजली ने उस दिन पहली बार देखा — उसके पिता की आँखों में आँसू थे… गुस्से के नहीं, हार के।
वो लौट आई — टूटकर नहीं, और भी मजबूत होकर।
और आरव ने उसका हाथ थामते हुए कहा —
"अब अगला कदम… ज़िंदगी को जीना, बिना पीछे देखे।"
-vaghasiya