बरेली की संकरी गलियों में बसा था अंजली का घर — एक पुराना, ईंटों से बना दो-मंज़िला मकान, जिसमें पुरानी सोच की दीवारें नई हवा रोकती थीं। घर के आँगन में तुलसी का पौधा, दीवारों पर धार्मिक कैलेंडर, और कोने में पड़ा था एक पुराना रेडियो — जो सिर्फ़ भजन ही सुनता था।
अंजली के पिताजी, हरिराम मिश्रा, पास के मंदिर में पुजारी थे। वह समाज में एक आदर्श व्यक्ति माने जाते थे — धार्मिक, सख़्त और 'इज़्ज़त' के नाम पर कठोर।
अंजली की माँ, सावित्री देवी, एक शांत, सहमी हुई महिला थीं, जिनके जीवन की परिभाषा सिर्फ़ परिवार और रसोई था।
अंजली के घर में 'लड़कियों' को लेकर एक स्पष्ट नियम था —
"ज्यादा पढ़ाई से लड़कियाँ बिगड़ती हैं।"
"बेटियाँ पराया धन होती हैं।"
"शादी से पहले कोई नाम तक न जाने।"
लेकिन अंजली इन जंजीरों को बचपन से महसूस कर रही थी।
जब वह सातवीं में थी, एक दिन उसे देर तक स्कूल में रहने पर डांट पड़ी थी, क्योंकि मोहल्ले की किसी 'काकी' ने कह दिया था – "आपकी बेटी तो बहुत घुमा करती है।"
वह दिन अंजली को आज भी याद था – माँ का रोना, पापा की चुप्पी और उसे घर में बंद कर दिया जाना।
पर अंजली की दोस्त थी – किताबें।
'मुक्तिबोध', 'महादेवी वर्मा', 'अमृता प्रीतम', ये सब उसकी सच्ची हमराज थीं। रात के अंधेरे में वह माँ के पल्लू के नीचे टॉर्च लेकर कविता पढ़ती थी। सपनों का एक अलग संसार उसने अपने भीतर बसाया था।
कॉलेज आना उसके लिए क्रांति जैसा था। ये उसकी पहली उड़ान थी, जिसमें वो खुद को खुलकर जी पा रही थी। और तभी उसकी ज़िंदगी में आया आरव — एक ऐसा लड़का, जिसने उसकी सोच को चुनौती नहीं दी, बल्कि उसे समझा।
पर अब, वो सारी उड़ानें थम गई थीं।
आरव के साथ फोटो घरवालों के सामने आने के बाद घर में तूफ़ान आ गया था। पिताजी ने खाना-पीना बंद कर दिया, माँ ने कमरे में बंद कर दिया, और अंजली को कॉलेज जाने से मना कर दिया गया।
"एक ब्राह्मण की बेटी होकर किसी बाहर वाले के साथ फोटो खिंचवाती है?
इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी तूने।"
अंजली की आवाज़ घुट रही थी। वह चुप रही। रोई। लेकिन फिर भी उसने खुद को नहीं तोड़ा।
एक दिन, माँ रात को उसके कमरे में आईं। उनके हाथ में था वो चिट्ठी, जो आरव ने दी थी।
माँ ने धीरे से कहा,
"बेटा… हम तुझे बहुत प्यार करते हैं… लेकिन ये दुनिया… ये दुनिया बहुत बेरहम है। लड़की अगर कदम बाहर रखे, तो सौ आँखें उसे नोचने को तैयार रहती हैं।"
अंजली की आँखों से आँसू बह रहे थे, पर आवाज़ में हिम्मत थी —
"माँ… आपने मुझे सीता बनने को कहा… लेकिन क्या आपने कभी द्रौपदी की व्यथा सुनी?
मैं किसी के लिए अग्निपरीक्षा नहीं दूँगी।
मैं वही करूँगी जो मुझे सही लगे।"
माँ चुपचाप चली गईं।
उस रात, अंजली ने पहली बार अपने सपनों से समझौता न करने की ठान ली।
अगले दिन उसने पिताजी से बात करने की कोशिश की।
"बाबूजी, आप चाहते हैं मैं इज़्ज़त से जीऊँ, लेकिन मेरी इज़्ज़त मेरी आवाज़, मेरी सोच और मेरा प्यार है।
आप जो कह रहे हैं, वो समाज की सोच है – जो बेटियों को चुप और बेजान देखना चाहता है।
पर मैं वो अंजली नहीं हूँ जो आपकी परछाई में गुम रहे।"
हरिराम मिश्रा के चेहरे पर गुस्सा और हैरानी दोनों थे।
उन्होंने एक ही बात कही —
"अगर अब भी तुम उसी लड़के से मिलना चाहती हो, तो इस घर का दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद समझो।"
अंजली ने अपने कमरे में जाकर वो चिट्ठी निकाली, आरव की चिट्ठी…
और फिर उसने एक ख़त लिखा — माँ-पिताजी के लिए।
"मैं जा रही हूँ। आपकी बेटी रहूँगी हमेशा, लेकिन आपकी कैद में नहीं।
अगर आप मेरी हिम्मत को इज़्ज़त समझते, तो शायद हम सब साथ जी सकते थे।
मैं कोई अपराध नहीं कर रही…
मैं बस खुद से, अपने हक़ से, अपने सपनों से प्यार कर रही हूँ।"
सुबह होने से पहले अंजली घर से निकल चुकी थी — अकेली, लेकिन हौसलों से भरी।
-vaghasiya