"तुम्हें किताबें पसंद हैं, लेकिन ज़िंदगी की असली किताब से मिलवाऊँ?"
अंजली ने एक दिन कैंटीन में बैठते हुए आरव से पूछा।
"कौन सी किताब?" आरव ने चाय की चुस्की लेते हुए मुस्कराकर जवाब दिया।
"मेरा मोहल्ला," उसने कहा, और एक लंबी साँस ली, "जहाँ हर खिड़की के पीछे एक समाज बैठा है, जो हर लड़की के सपनों पर निगरानी रखता है।"
आरव समझ तो रहा था, पर पहली बार अंजली को इस अंदाज़ में बोलते देखा। उस दिन उसने महसूस किया — अंजली सिर्फ किताबों की समझ रखने वाली लड़की नहीं थी, वह अपने अनुभवों से बनी थी। एक ऐसी लड़की, जो छोटी-छोटी खुशियों के बीच बड़ी-बड़ी दीवारों से लड़ रही थी।
कॉलेज में अब दोनों की दोस्ती चर्चे का विषय बन चुकी थी। कुछ लोग उन्हें पसंद करते थे, कुछ जलते थे, और कुछ बस तमाशा देखना चाहते थे। पर उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता।
उनके लिए वह दोस्ती, वह साथ – एक नई दुनिया जैसा था।
एक दिन दोनों शहर के पुराने किले पर गए। वहाँ से पूरा बरेली शहर दिखता था — मंदिरों की घंटियाँ, सब्ज़ियों की आवाज़ें, और बीच-बीच में कहीं खोया हुआ भविष्य।
अंजली ने कहा, "मैं टीचर बनना चाहती हूँ। लड़कियों को पढ़ाना चाहती हूँ, जो आज भी चौखट से बाहर नहीं निकल पातीं।"
आरव ने उसकी तरफ़ देखा और बोला,
"तुम सिर्फ़ टीचर नहीं बनोगी अंजली, तुम एक बदलाव बनोगी।"
वो पल ख़ास था। पहली बार किसी ने अंजली के सपनों को सिर्फ़ सुना नहीं, स्वीकार किया था।
दोस्ती अब धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। क्लास में साथ बैठना, नोट्स शेयर करना, लाइब्रेरी में किताबें ढूँढना, और हर शुक्रवार को कैंटीन में वही पुरानी अदरक वाली चाय।
एक दिन अंजली आरव को अपने घर के पास वाली गली में ले गई।
"यहीं पली-बढ़ी हूँ। देखो वो पीपल का पेड़… वहाँ बैठकर मैं किताबें पढ़ा करती थी, जब घरवालों को लगता था कि मैं सो रही हूँ।"
आरव चुपचाप सुनता रहा। उसे महसूस हुआ कि अंजली की ये हँसी, ये ज़िंदादिली कितनी गहराई में छुपी हुई तकलीफ़ों के साथ आई थी।
अंजली के पिता बहुत सख़्त थे। घर में मोबाइल पर ज्यादा बात करना, लड़कों से दोस्ती, या देर तक कॉलेज में रहना — सब मना था। पर अंजली अब डर नहीं रही थी। शायद इसलिए नहीं क्योंकि वह बगावत करना चाहती थी, बल्कि इसलिए कि पहली बार उसे भरोसा हुआ था — कोई है जो उसका साथ देगा।
लेकिन समाज की दीवारें हर रोज़ सुनती हैं, देखती हैं, और धीरे-धीरे सरकने लगती हैं।
एक दिन कॉलेज के बाहर किसी ने अंजली और आरव की तस्वीर खींच ली। वही तस्वीर दो दिन में अंजली के मोहल्ले तक पहुँच गई। पहले माँ की निगाहें बदलीं, फिर पिताजी की आवाज़ में गुस्सा और अपमान की आग थी।
"हमने तुम्हें पढ़ने भेजा था या इज़्ज़त बेचने?"
ये शब्द अंजली के कानों में हथौड़े की तरह गूंजे।
उसी रात पहली बार अंजली ने आरव को फोन कर रोते हुए कहा,
"शायद ये सब गलत था… हम गलत थे…"
आरव शांत था। उसने कहा,
"अगर तुम्हें लगता है कि हम गलत थे, तो ठीक है। लेकिन अगर तुम चाहो, तो मैं लड़ूँगा… तुम्हारे लिए नहीं, हमारे लिए।"
फोन कट गया।
अंजली ने अगले दिन कॉलेज नहीं आने का फैसला किया। वह जान चुकी थी कि अब हर एक कदम उसके लिए भारी होगा। परिवार, पड़ोसी, रिश्तेदार — सब अब उसे ‘उस लड़के वाली लड़की’ के नाम से जानेंगे।
आरव ने अगले दिन उसके घर के बाहर खड़े होकर बस एक चिट्ठी भेजी —
"तुमसे लड़ना आसान था, पर तुम्हारे लिए लड़ना मुश्किल है।
अगर तुम चाहो, तो मैं सब सह लूंगा।
पर अगर तुम डर गई, तो शायद मैं भी हार जाऊँगा।
सोचो अंजली… क्या हम बस समाज के लिए ही बने हैं?
या एक-दूसरे के लिए भी कुछ हक़ रखते हैं?"
अंजली ने चिट्ठी पढ़ी, और उसका दिल काँप गया। समाज की परछाइयाँ तो बहुत थीं, लेकिन एक रोशनी की किरण भी तो थी — आरव।
-vaghasiya