June 28, 2025
“हर बार समझाने की ज़रूरत हो, तो शायद समझने वाला ही ग़लत चुन लिया है।”
1. रिश्तों की छाँव में सन्नाटा
राघव की ज़िंदगी में अब शांति थी—या कहें, उसने शांति का भ्रम पाल लिया था। कुछ रिश्ते अभी भी साथ थे, पर अब उनमें आवाज़ें कम और चुप्पियाँ ज़्यादा थीं। वह जानता था कि हर रिश्ता संवाद से नहीं, समझ से चलता है। लेकिन अब उसे ये भी पता चल गया था कि समझ सबके बस की बात नहीं।
एक पुराना दोस्त आया, हल्की मुस्कान के साथ बोला—
“यार, तू बहुत बदल गया है।”
राघव ने जवाब नहीं दिया, बस मुस्करा दिया।
कभी-कभी जवाब ना देना ही सबसे सटीक उत्तर होता है।
क्योंकि अब वो समझ चुका था—शब्द खर्च करने की भी एक कीमत होती है।
2. अनकही बातें और टूटी उम्मीदें
राघव ने अपने जीवन में कई बार भरोसा किया, कई बार रिश्तों को बचाने की कोशिश की। लेकिन हर बार उसे यही महसूस हुआ कि जिनके लिए वो लड़ रहा था, वो खुद ही लड़ाई से भाग खड़े हुए।
एक दिन उसकी बहन ने कहा,
“भाई, तू हमेशा दूसरों की फ़िक्र करता है, कभी अपने लिए भी सोच।”
राघव ने मुस्कराकर जवाब दिया,
“मैंने अपने लिए सोचना शुरू कर दिया है, और इसीलिए अब फ़िक्र करना छोड़ दी है।”
हर बार जब उसने दिल की बात कही, या तो जवाब मिला—“तु बहुत सीरियस लेता है सबकुछ।”
या फिर—“यार, आजकल तू नेगेटिव हो गया है।”
उसे समझ आ गया कि कुछ लोग तुम्हारी गहराई में डूबने की काबिलियत नहीं रखते।
वे किनारे पर ही रहना पसंद करते हैं, जहां पानी उथला होता है और डर नहीं लगता।
3. संवाद की थकान
राघव अब संवाद से थकने लगा था। पहले उसे लगता था कि खुलकर बात करने से रिश्ते मज़बूत होते हैं। पर अब वह जान चुका था—
कुछ रिश्ते उतने ही मजबूत होते हैं, जितनी देर तक आप अपनी सच्चाई छुपाकर रख सको।
उसने लिखा अपनी डायरी में:
“मैं अब अपने दर्द को शब्दों में नहीं डालता,
क्योंकि जिन्हें सुनना था, वो कभी सुनते नहीं थे,
और जो सुनना चाहते हैं, उन्हें मेरे दर्द की आदत हो गई है।”
4. चुप्पी का चुनाव
अब राघव चुप रहने लगा था। लोग सोचते, वो उदास है। पर वह उदास नहीं था—वह बस थक गया था।
किसी ने कहा,
“तू पहले बहुत बात करता था, अब चुप क्यों है?”
उसने जवाब दिया,
“पहले मैं उम्मीद करता था, अब समझदारी आ गई है।”
चुप रहना अब उसकी मजबूरी नहीं थी, बल्कि उसकी शक्ति बन चुकी थी।
शब्द अब वह सिर्फ़ उन पर खर्च करता था जो उनकी क़द्र करते थे।
5. आत्म-संवाद का सफर
राघव अब सबसे ज़्यादा बातें खुद से करता था। हर दिन सुबह उठकर वह खुद से एक ही सवाल पूछता—
“क्या तू आज भी अपनी सच्चाई पर अडिग है?”
और हर रात खुद को जवाब देता—
“हाँ, मैं झूठी दुनिया में भी सच्चा रहना चाहता हूँ।”
उसकी डायरी अब उसकी सबसे सच्ची दोस्त बन चुकी थी। उसने उसमें एक जगह लिखा—
“जब दुनिया चुप हो जाए, तब खुद की आवाज़ ही सबसे ज़्यादा सुनाई देती है।”
6. चुभते सच और बदलते रिश्ते
एक बार उसने अपने एक रिश्तेदार से कहा—
“तुमसे कभी कुछ छुपाया नहीं, फिर भी तुमने मुझे ग़लत समझा।”
उत्तर मिला—
“इतनी सच्चाई भी अच्छी नहीं लगती, कभी-कभी थोड़ी मिठास ज़रूरी होती है।”
उसने सोचा—
“जब सच ही बुरा लगने लगे, तो रिश्ता किस झूठ पर टिका है?”
धीरे-धीरे उसने उन सभी लोगों से दूरी बना ली, जो सच्चाई से भागते थे।
अब वह झूठी हँसी से ज़्यादा सच्ची चुप्पी को तरजीह देता था।
7. नए राग, नई राहें
राघव अब नया हो चला था। उसने शिकायतें छोड़ दी थीं, बदले में स्वीकार्यता अपना ली थी।
अब वह दूसरों को नहीं बदलना चाहता था, बस खुद को संभालना सीख गया था।
उसे अब किसी से कोई मान्यता नहीं चाहिए थी।
उसने अपनी डायरी में आख़िरी पन्ने पर लिखा—
“मैं अब किसी के लिए नहीं बदलता,
जो मुझे मेरी चुप्पियों सहित स्वीकार करे, वही मेरा है।
बाकी सब सिर्फ़ भीड़ हैं—शोर करती हुई, मगर सुनने में असमर्थ।”
अंतिम पंक्तियाँ:
जब बार-बार कहने पर भी बात न समझी जाए,
तो चुप हो जाना चाहिए।
क्योंकि कुछ बातें शब्दों से नहीं, अनुभव से समझ आती हैं।
और कुछ रिश्ते जवाब नहीं,
बस एक शांत विदाई माँगते हैं।
यदि आप इन अनुभवों से गुज़र चुके हैं, और इन्हें और गहराई से समझना चाहते हैं,
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कभी-कभी एक किताब, वो कह देती है जो हम खुद से भी नहीं कह पाते।
– धीरेंद्र सिंह बिष्ट
लेखक – मन की हार ज़िंदगी की जीत