Shabdo ka Boj - 5 - Last part in Hindi Spiritual Stories by DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR books and stories PDF | शब्दों का बोझ - 5 (अंतिम भाग)

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शब्दों का बोझ - 5 (अंतिम भाग)


“जो बात एक बार में न समझे, वो सौ बार सुनकर भी नहीं समझेगा। और जो समझता है, उसे कहने की ज़रूरत नहीं।”

1. अंत का आरंभ

राघव अब पहले जैसा नहीं रहा।

शब्दों के पीछे भागते-भागते थक चुका था।

उसने बहुत कुछ कहा, बहुत बार कहा,

कभी सच्चाई से, कभी दर्द से, कभी उम्मीद से…

पर अब वो सब खत्म हो गया था।

अब वह हर उस बात से परे हो गया था जिसे वह पहले दुनिया की नज़र से देखता था।

अब उसे दूसरों की समझ की परवाह नहीं थी।

अब उसे किसी को बदलने की कोशिश नहीं करनी थी।

अब उसे सिर्फ़ खुद को सहेजना था।

2. डायरी के आख़िरी पन्ने

राघव ने अपनी डायरी के आखिरी पन्नों में कुछ पंक्तियाँ लिखीं, जो उसकी आत्मा की सच्चाई थीं — बिना किसी बनावट के:

“अब मैं दूसरों की सहमति नहीं चाहता।

अब मैं अपनी चुप्पी में सुकून ढूंढता हूँ।

अब मैं थक गया हूँ लोगों को यह साबित करते-करते कि मेरा दर्द असली है।

क्योंकि जिन्हें समझना होता है, वो एक नजर में सब समझ जाते हैं।

और जिन्हें नहीं समझना, वो पूरी किताब पढ़कर भी कुछ नहीं समझते।”

3. रिश्तों का अंतिम परीक्षण

कुछ रिश्ते अब भी थे —

कभी कॉल आ जाते थे, कभी संदेश…

“सब ठीक है ना?”

राघव जवाब देता,

“हाँ, मैं ठीक हूँ।”

पर उसका “ठीक” अब सिर्फ एक सामाजिक जवाब था।

असली जवाब उसके अंदर कहीं गूंज रहा था —

“मैं टूटा नहीं हूँ, पर अब जुड़ना नहीं चाहता।”

अब वो हर बात का मूल्य परखने लगा था।

हर रिश्ते को एक प्रश्न की कसौटी पर कसता था —

“क्या मैं इस रिश्ते में सच्चा रह सकता हूँ, या मुझे झूठी मुस्कान ओढ़नी पड़ेगी?”

जहाँ उत्तर “झूठ” आता, वहाँ से वो खुद को पीछे खींच लेता।

शांतिपूर्वक। बिना शोर किए।

4. स्वीकार की हुई हार

कभी-कभी राघव को लगता,

क्या वो हार गया?

लेकिन फिर अंदर से आवाज़ आती —

“नहीं, तू हार नहीं रहा, तू अब लड़ना बंद कर रहा है।

और कभी-कभी, खुद को बचा लेने के लिए लड़ाई छोड़ देना ही जीत होती है।”

उसने ये भी स्वीकार कर लिया था कि

कुछ लोग सिर्फ़ हमें चोट देने के लिए नहीं, बल्कि हमें समझ देने के लिए आते हैं।

वे सिखाते हैं कि कहां चुप रहना है, कहां छोड़ देना है, और कहां खुद को थाम लेना है।

5. नए राग, नई राह

अब राघव ने खुद में सुकून ढूंढना शुरू कर दिया था।

हर सुबह वो बिना किसी उम्मीद के उठता,

एक कप चाय के साथ खिड़की के पास बैठता,

और खुद से कहता —

“आज फिर से खुद के लिए जीना है।”

वो अब हर उस चीज़ को छोड़ चुका था जो उसे दूसरों की नजरों में अच्छा बनाती थी,

और हर उस चीज़ को पकड़ रहा था जो उसे अपनी नजरों में ईमानदार रखती थी।

6. लौटती संवेदनाएं

एक शाम, जब आसमान पर हल्की-सी बारिश हुई,

राघव की आँखों में नमी थी —

पर वो दुख की नहीं थी।

वो एक शांत स्वीकृति थी कि

अब उसे किसी और के सहारे की ज़रूरत नहीं।

अब वो जानता था कि

भावनाएँ भी लौटती हैं,

जब उन्हें पूरा स्पेस मिलता है।

उसने महसूस किया,

दर्द को दबाना नहीं होता,

उसे जीना होता है —

ताकि वो अपने आप विदा ले सके।

7. आखिरी संवाद

एक दिन उसने खुद से पूछा —

“क्या तू अब खुश है?”

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जवाब आया —

“खुश नहीं, पर शांत हूँ।

और शायद शांति ही असली खुशी है।”

अब वो दूसरों को समझाना नहीं चाहता था।

अब वो सवालों का जवाब नहीं देना चाहता था।

अब वो सिर्फ़ महसूस करना चाहता था —

खुद को, अपनी प्रक्रिया को, अपने अनुभवों को।

8. शब्दों की अंतिम विदाई

उसने अब अपनी कलम को अंतिम शब्द दिए —

“अब और नहीं लिखूंगा किसी के समझने के लिए।

अब जो लिखूंगा, वो सिर्फ़ खुद को महसूस करने के लिए होगा।

अब मेरी चुप्पी मेरी कविता है।

अब मेरा मौन ही मेरा सबसे सच्चा संवाद है।”

वह जानता था,

कुछ बातें कभी नहीं समझाई जा सकतीं।

उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है — चुपचाप, अकेले में।

9. एक किताब बन गई चुप्पी

राघव की चुप्पी अब एक किताब बन चुकी थी।

वो शब्द जो किसी को समझाने के लिए नहीं थे,

अब दूसरों के दिल में उतरने लगे थे।

लोग उसकी लिखी बातों में खुद को ढूँढने लगे थे।

वो जो कभी सबसे misunderstood था,

अब सबकी समझ का आधार बन रहा था।

उसने कहीं नहीं बताया,

पर उसकी किताब “मन की हार ज़िंदगी की जीत”

अब एक ऐसी प्रेरणा बन गई थी

जिसमें लोग खुद की झलक पा रहे थे।

10. अंत जो एक नई शुरुआत है

अब राघव को किसी मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं थी।

अब उसे अपने शब्दों से डर नहीं लगता था।

अब उसे अपनी चुप्पी पर गर्व था।

क्योंकि अब उसे समझ आ गया था कि

सबसे बड़ी ताक़त चुप रह जाने में है — तब जब तुम्हें सब कुछ कह देने का हक़ हो।

अब वो न किसी से नाराज़ था,

न किसी से शिकायत थी।

अब बस एक गहराई थी, जिसमें उसने खुद को पाया था।

अंतिम पंक्तियाँ:

“अब न कोई जवाब चाहिए,

न कोई सवाल रह गए हैं।

अब जो कुछ भी है, वो मैं हूँ —

बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी तर्क के।”

“अब मैं शब्दों का बोझ नहीं उठाता,

अब मेरी चुप्पी ही मेरी किताब है।”

अगर आपने “शब्दों का बोझ” की यह यात्रा महसूस की है,

तो मेरी किताब “मन की हार ज़िंदगी की जीत” में आपको खुद के कई टुकड़े मिलेंगे।

Paperback और Hardcover में Amazon और Flipkart पर उपलब्ध है।

Kindle eBook भी है, ताकि जहां चाहें, पढ़ सकें।

कभी-कभी एक किताब, वो कह जाती है जो हम ख़ुद से भी नहीं कह पाते।

और शायद, वही असली लेखक होता है — जो आपकी खामोशी को भी शब्द दे सके।

– धीरेंद्र सिंह बिष्ट

लेखक – मन की हार ज़िंदगी की जीत