“जब चुप्पी आदत बन जाए, तब शब्द भी पराये लगने लगते हैं।”
1. आदत की चुप्पी
राघव अब बोलता नहीं था — पर इसका मतलब ये नहीं था कि उसे कुछ कहना नहीं था।
उसके भीतर बहुत कुछ था, मगर अब वो अपने भीतर ही रह जाता था।
लोग सोचते,
“ये तो अब बहुत शांत हो गया है।”
पर कोई नहीं जानता था कि उस शांति के पीछे कितनी तोड़-फोड़ हो चुकी है।
अब वो रोज़ अपनी चाय की चुस्की के साथ किसी से नहीं, बल्कि अपने भीतर चल रही बहस से बात करता था।
और ये बहस अब रोज़ की आदत बन चुकी थी — एक आदत जो उसकी चुप्पी को गहराती जा रही थी।
2. नकली मुस्कानें और असली दूरी
एक शाम ऑफिस की मीटिंग में सब हँस रहे थे। राघव भी मुस्कराया — पर वो मुस्कान सिर्फ़ दिखाने के लिए थी।
किसी ने कहा,
“यार, तू बहुत शांत रहता है अब।”
राघव ने सिर झुकाया और कहा,
“शांत रहना सीख लिया है… क्योंकि बोलने से कुछ बदलता नहीं।”
उसे अब महसूस होने लगा था कि ज़्यादातर बातचीत बस दिखावे की है —
ना कोई दिल से पूछता है, ना कोई सच में सुनता है।
बस एक औपचारिकता निभाई जाती है, एक नकली संवाद।
3. आत्मग्लानि का मोड़
एक रात, राघव बहुत थक गया। खुद से ही नाराज़।
“क्या मैं गलत था?” उसने खुद से पूछा।
“क्या मुझमें ही कुछ कमी थी जो कोई नहीं समझ पाया?”
उसने पुरानी डायरी के पन्ने पलटे — उन दिनों की जब वो खुलकर हँसता था, बात करता था, भरोसा करता था।
अब वो सब बीते दिनों की तस्वीरें लगती थीं — धुंधली, लेकिन चुभती हुई।
और फिर उसने लिखा —
“मैंने अपने दर्द को छुपा लिया था, ताकि दूसरों को बोझ न लगे…
पर शायद इसी वजह से सबने मुझे हल्का समझ लिया।”
4. एक नई समझ
अब वो समझ गया था —
दूसरों की नासमझी पर दुखी होने से बेहतर है, खुद की समझ को अपनाना।
हर दिन अब एक साधना की तरह लगता था।
बोलना नहीं, लेकिन खुद से बात करना।
दिखाना नहीं, लेकिन खुद को समझना।
कहना नहीं, लेकिन लिखना।
उसने एक पन्ने पर लिखा —
“अब किसी को सफाई नहीं दूँगा।
अब हर जवाब मेरे पास रहेगा, लेकिन सिर्फ़ मेरे लिए।”
5. रिश्तों की अंतिम परत
कुछ रिश्ते अभी भी ज़िंदा थे — पर बस दिखने भर को।
जैसे किसी किताब की आखिरी पंक्तियाँ, जिन्हें कोई दोबारा पढ़ता नहीं।
एक दिन एक पुरानी दोस्त ने कॉल किया —
“यार, बहुत समय हो गया, तू दिखता नहीं, बोलता नहीं।”
राघव ने शांति से कहा,
“मैं अब खुद में बहुत व्यस्त हो गया हूँ।”
उसने फोन काटा, और खुद से कहा,
“अब मैं वो इंसान नहीं जो खुद को खोकर रिश्तों को बचाता था।”
6. सच्चाई की नई पहचान
अब राघव को अपनी सच्चाई से डर नहीं लगता था।
उसे अब दूसरों की मान्यता की ज़रूरत नहीं थी।
उसने एक जगह लिखा —
“जिन्हें मेरी चुप्पी भारी लगती है,
उन्हें मेरी सच्चाई कभी हल्की नहीं लगेगी।”
वो जानता था,
अब वो अकेला है, लेकिन खोया नहीं है।
अब वो शांत है, लेकिन टूटा नहीं है।
अब वो लिख रहा है, और हर शब्द उसे खुद के और करीब ला रहा है।
7. शब्दों की वापसी
कई दिनों बाद, उसने फिर से कुछ लिखा —
पर ये शब्द किसी को समझाने के लिए नहीं थे।
ये शब्द अब खुद के लिए थे —
अपने जख्मों को सहलाने के लिए, अपनी आत्मा को दुलारने के लिए।
उसने लिखा:
“मैं अब चीखता नहीं,
क्योंकि मेरी चुप्पी अब मेरी सबसे गहरी आवाज़ है।
मैं अब मनाता नहीं,
क्योंकि जो समझते हैं, उन्हें मनाने की ज़रूरत नहीं।
मैं अब शब्दों का बोझ नहीं उठाता,
क्योंकि मेरी ख़ामोशी ही मेरी सबसे बड़ी कहानी है।”
अंतिम पंक्तियाँ:
जब सब कुछ कहने के बाद भी कोई न समझे,
तो चुप हो जाना चाहिए —
क्योंकि कभी-कभी चुप रह जाना
सबसे ऊँची आवाज़ होती है।
अगर आपके भीतर भी ऐसे ही जज़्बात हैं —
तो मेरी किताब “मन की हार ज़िंदगी की जीत” आपके दिल से बात करेगी।
Paperback और Hardcover में Amazon और Flipkart पर उपलब्ध है।
Kindle पर ई-बुक के रूप में भी पढ़ सकते हैं।
कभी-कभी, एक किताब ही वो दोस्त बन जाती है जो सब सुनता है — बिना टोके, बिना थकान।
– धीरेंद्र सिंह बिष्ट
लेखक – मन की हार ज़िंदगी की जीत