chiththiyan in Hindi Love Stories by Pathak Ashish vilom books and stories PDF | चिट्ठियां

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चिट्ठियां

सोनपुर गाँव की सुबहें अक्सर शांति से भरी होती थीं। मंदिर की घंटियाँ, कोयल की कूक, और मिट्टी से आती सोंधी-सोंधी खुशबू—सब मिलकर जैसे किसी पुराने गीत की धुन रचते। वहीं एक पुराना स्कूल था, जहाँ खपरैल की छतें हर बरसात में टपकती थीं, और बच्चे धूल में खेलते हुए ज़िंदगी सीखते थे।

उसी स्कूल के पिछवाड़े, आम के पेड़ के नीचे अक्सर एक लड़का बैठा दिखाई देता था। उसकी आँखों में कुछ अलग था—जैसे वो हर चीज़ को देखने से ज़्यादा महसूस करता हो। उसका नाम था आरव। लुहार के बेटे को कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता था, लेकिन उसकी कलम... वो किसी भी बड़े लेखक को चुनौती दे सकती थी। गाँव में कम ही लोग जानते थे कि आरव कविताएँ लिखता है—मन के उस कोने से, जहाँ शब्द पैदा नहीं होते, बस बह निकलते हैं।

बरसात की पहली दोपहर थी। स्कूल के बच्चे भागते हुए छत के नीचे पनाह ले रहे थे। हवा में मिट्टी की वो जानी-पहचानी खुशबू फैल गई थी। तभी स्कूल के दरवाज़े पर खड़ी एक नई शिक्षिका को देख सब रुक गए। वो रेखा थी। ज़मींदार ठाकुर सुरेश सिंह की बेटी, जो शहर से पढ़ाई पूरी करके गाँव लौटी थी। किसी को उम्मीद नहीं थी कि ठाकुर साहब की बेटी गाँव के बच्चों को पढ़ाएगी, लेकिन रेखा ने कुछ और ही सोच रखा था।

उसके सैंडल बारिश में कीचड़ में धँस गए थे और उसके बाल भीगते हुए माथे से चिपक गए थे। बच्चे हँस रहे थे। तभी आरव आगे बढ़ा, अपने पुराने छाते को फैलाया और चुपचाप उसके पास जा खड़ा हुआ।

“इधर आइए, बहुत कीचड़ है उधर,” उसने कहा।

रेखा ने उसकी ओर देखा। एक पल को जैसे वक्त रुक गया। उसकी आवाज़ में शराफ़त थी, आँखों में इज़्ज़त और मुस्कान में सच्चाई। रेखा मुस्कराई और उसके साथ हो ली। स्कूल के बरामदे में पहुँची तो बोली, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“आरव,” वो बोला।

“तुम भी पढ़ते हो यहाँ?”

“हाँ, दसवीं में हूँ... पर पढ़ता नहीं, महसूस करता हूँ,” उसने कहा और मुस्कुराया।

रेखा कुछ नहीं बोली, लेकिन उसके भीतर कुछ हिल सा गया।

अगले कुछ दिनों में रेखा ने आरव को अलग नजरों से देखना शुरू किया। वो क्लास में सबसे चुप रहता, लेकिन जब कविता सुनानी होती, तो उसकी आवाज़ मानो दिल में उतर जाती। एक दिन रेखा स्कूल की छोटी सी लाइब्रेरी में किताबें देख रही थी, तभी उसने आरव को देखा—कोने में बैठा कुछ लिख रहा था। वो पास गई और बिना पूछे उसके कंधे के पास झुककर देखा।

कागज़ पर लिखा था:

“तू जब मुस्कुराती है तो जैसे सन्नाटा बोल पड़ता है,
और जब चुप होती है तो जैसे सारी किताबें पढ़ ली हों मैंने।”

रेखा चुपचाप बैठ गई। उसके मन में हलचल मचने लगी थी, जैसे कोई पुरानी कहानी फिर से जाग उठी हो। उसने धीरे से पूछा, “ये लिखा तुमने?”

आरव ने सिर हिलाया। “हाँ। पर ये कविता नहीं है, बस... आपसे कुछ कहने की कोशिश है।”

रेखा कुछ नहीं बोली। उस दिन के बाद, स्कूल के बाद वो अक्सर लाइब्रेरी में रुक जाती। कभी किताबें पढ़ती, कभी आरव से कविता सुनती, और कभी चुपचाप उसे देखते हुए मुस्कुरा देती।

आरव की दुनिया बदल रही थी। वो अब हर रोज़ एक चिट्ठी लिखने लगा—रेखा के नाम। लेकिन उन चिट्ठियों को कभी भेजने की हिम्मत नहीं होती। वो उन्हें संभाल कर रखता जाता—एक पुराने लकड़ी के संदूक में, जो उसके बिस्तर के नीचे रखा था।

पहली चिट्ठी में उसने लिखा:

“रेखा,
तुम्हें देखना अब आदत हो गई है। बोलो तो बहुत कुछ है, लेकिन डरता हूँ... शायद तुम्हारा मौन ही सबसे सुंदर जवाब है। तुमसे प्यार है—शायद ये कहना भी कमज़ोरी है। तुम हो, यही सबसे बड़ी बात है।”

रेखा को इस सबकी भनक नहीं थी। लेकिन वो जानती थी, जो रिश्ता पनप रहा है, वो गाँव की सीमाओं से बड़ा है। ठाकुर साहब को भी कुछ-कुछ अंदाज़ा होने लगा था। उन्होंने एक दिन रेखा को बुलाया।

“रेखा, अब तुम स्कूल नहीं जाओगी,” उन्होंने सख्ती से कहा।

“क्यों बाबूजी?” रेखा ने पूछा।

“क्योंकि गाँव में बातें हो रही हैं। तुम्हारा नाम उस लोहार के लड़के के साथ जोड़ा जा रहा है। इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।”

रेखा की आँखें भर आईं। “अगर वो लड़का लोहार का न होता, तो क्या तब भी आपको एतराज़ होता?”

ठाकुर साहब ने कोई जवाब नहीं दिया, बस उठकर चले गए।

उसी शाम, स्कूल में आखिरी बार रेखा आई। क्लास के बाद, उसने आरव को बरामदे में रोका।

“कल से मैं स्कूल नहीं आऊँगी,” उसने कहा।

आरव ने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आँखों में देखा।

रेखा आगे बोली, “लेकिन तुम्हारी कविताएँ... वो हमेशा मेरे साथ रहेंगी। तुम लिखते रहो, चाहे मेरे लिए या दुनिया के लिए। तुम्हारे शब्दों में जो सच्चाई है, वो किसी भी नाम, जाति या रिश्ते से बड़ी है।”

आरव कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “तुम मेरे लिए कविता हो। तुम्हें खो भी दूँ तो क्या, मैं हर दिन तुम्हें लिखूँगा... जब तक साँस चलेगी।”

रेखा मुस्कुराई, एक आखिरी बार। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरा शांत था। वो चली गई, बिना मुड़े।

उस रात, आरव ने अपनी चिट्ठियों में एक नई कविता जोड़ी:

“तू गई तो कुछ टूटा नहीं,
पर अब हर शब्द अधूरा सा लगता है।
तू रही तो कविता थी,
अब बस खाली पन्ना हूँ मैं।”

रात बहुत लंबी थी। और आरव की दुनिया अब सिर्फ शब्दों में रह गई थी।
लेकिन वो जानता था,
शब्द कभी मरते नहीं।
और प्यार... वो तो हर चिट्ठी में साँस लेता है।

गाँव में सर्दियाँ धीरे-धीरे अपने पैर पसारने लगी थीं। हवा अब ठंडी हो गई थी और आम के पत्तों पर ओस की बूंदें सुबह की धूप में चुपचाप चमकने लगी थीं। स्कूल का पिछवाड़ा जहाँ कभी रेखा और आरव की बातें होती थीं, अब वीरान लगने लगा था। वहाँ सिर्फ एक परछाई बची थी—आरव की, जो अब भी हर दोपहर उस आम के पेड़ के नीचे बैठा करता था, वहीं जहाँ रेखा मुस्कुराई थी… और वहीं जहाँ उसने आखिरी बार कहा था, “तुम्हारे शब्द बहुत सुंदर हैं…”

रेखा के स्कूल छोड़ने के बाद आरव ने लोगों से बोलना कम कर दिया। वो अब किसी से नहीं हँसता, लेकिन चिट्ठियाँ पहले से ज़्यादा लिखने लगा था। हर दिन एक चिट्ठी। कभी ग़ुस्से में, कभी हँसी में, और ज़्यादातर बार… खामोशी में लिपटी। संदूक अब आधे से ज़्यादा भर चुका था। हर लिफाफे पर लिखा होता—"रेखा के नाम", और अंदर एक मन जो कभी शब्दों में बदल गया, कभी आँखों में अटका रह गया।

उस शाम जब रेखा की शादी का ढोल गाँव में पहली बार बजा, आरव अपनी आखिरी चिट्ठी लिख रहा था।
“रेखा,
अब जब तुम्हारा नाम किसी और से जुड़ने जा रहा है, तो ये मानना पड़ेगा कि कुछ रिश्ते सिर्फ लिखे जाते हैं, निभाए नहीं जाते।
मैं खुश हूँ तुम्हारे लिए।
शायद झूठ कह रहा हूँ।
पर तुमसे झूठ बोलना, अब आदत बनती जा रही है।
आज मैंने आखिरी बार तुम्हें लिखा है… शायद।”

उसने चिट्ठी को बाकी चिट्ठियों से अलग रखा। वो जानता था, अब उसका दिल ज़्यादा दिन साथ नहीं निभाएगा।

गाँव के लोग अब भी उसी बात पर अटके थे—“लोहार का लड़का ठाकुर की बेटी के पीछे पड़ा था।”
आरव सुनता था सब, लेकिन अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसके लिए वो लकीर जो ज़मीन पर खिंची थी, कभी देखी ही नहीं थी। वो तो बस रेखा को देखता था—वो रेखा जो किताबों के बीच खिलती थी, बच्चों को कहानियाँ सुनाते हुए हँसती थी, और बारिश में कीचड़ से डरती नहीं थी।

शादी की तैयारी ज़ोरों पर थी। गाँव के चौक में झालरें टँगी थीं, गाना-बाजा चल रहा था, और चारों ओर मिठाइयों की खुशबू घुली हुई थी। लेकिन उन्हीं खुशबुओं के बीच कहीं आरव का ग़म भी घुला था, बिना कोई सुने।

शादी से एक दिन पहले की रात थी। चाँदनी किसी सफेद आँचल की तरह गाँव पर बिछी थी। आरव चुपचाप अपने कमरे से बाहर निकला। संदूक से चिट्ठियों का बंडल उठाया और चल पड़ा उसी नदी की ओर, जहाँ वो रेखा को पहली बार ले जाना चाहता था।

नदी आज शांत थी, जैसे उसे सब पता हो। आरव वहाँ बैठा, चिट्ठियाँ निकालीं, और उन्हें एक-एक कर के पढ़ने लगा। हर शब्द उसे अपने भीतर खींचने लगा—हर पंक्ति जैसे फिर से रेखा को उसके सामने खड़ा कर रही हो।

उसने चिट्ठियों को नदी में नहीं बहाया। वो उन्हें अपनी छाती से लगाकर लेट गया। आसमान की तरफ देखा, जैसे कुछ माँग रहा हो। फिर आँखें बंद कीं।

सुबह जब गाँववालों को उसकी लाश मिली, उसके चेहरे पर अजीब सी शांति थी—जैसे वो अब कहीं और किसी से मिलने गया हो। उसके हाथ में बंधी थीं वो चिट्ठियाँ, जिनमें सिर्फ शब्द नहीं थे, एक अधूरा प्रेम था, जो मरते-मरते भी कागज़ में ज़िंदा रह गया।

गाँव में खबर आग की तरह फैल गई। कुछ रोये नहीं, कुछ हँसे। लेकिन रेखा... वो जब मंडप में बैठी थी, और किसी ने कान में जाकर कहा,
“आरव नहीं रहा...”
तो उसकी आँखें ठहर गईं।
वो ना चौंकी, ना रोई। बस चुप हो गई। जैसे कोई तार टूट गया हो दिल के भीतर।

शादी तो हो गई। डोली भी उठी। लेकिन रेखा की आत्मा वहीं रह गई—सोनपुर में, उस आम के पेड़ के नीचे।

बरसों बाद, जब रेखा अपनी बेटी को पहली बार गाँव लाई, तो सबसे पहले वो उसी आम के पेड़ के नीचे पहुँची। मिट्टी में अब भी वो घास उगी थी, जहाँ आरव बैठा करता था। पेड़ अब बूढ़ा हो गया था, लेकिन उसकी छाया अब भी वैसी ही थी।

रेखा ने एक थैला निकाला। उसमें से चिट्ठियाँ थीं—वही, जो किसी ने आरव के संदूक से निकालकर उसे सौंप दी थीं सालों पहले। उसने बेटी को एक चिट्ठी पढ़कर सुनाई। बेटी ने पूछा, “ये किसने लिखा?”

रेखा मुस्कुराई, आँसू आँखों में चमक उठे।

“एक लड़के ने... जो बहुत सुंदर लिखता था... और बहुत सच्चा चाहता था।"

फिर उसने वो चिट्ठियाँ वापस थैले में रखीं और आम के पेड़ के नीचे रख आई।

नदी अब भी बहती है, चुपचाप।
हवा अब भी उसी रफ्तार से चलती है।
और आम के पत्तों के बीच आज भी किसी शब्द की सरसराहट सुनाई देती है।

कभी-कभी, कोई बच्चा वहाँ खेलता है, तो कहता है—“माँ, यहाँ कोई चिट्ठियाँ रख गया है।”
माँ मुस्कुराती है, कहती है—“हाँ बेटा, वो प्रेम की चिट्ठियाँ हैं… जो कभी भेजी नहीं गईं।”

सोनपुर अब पहले जैसा नहीं रहा था। पुराने घरों की जगह अब सीमेंट की दीवारें थीं, मंदिर के सामने मोबाइल टॉवर खड़ा हो गया था, और स्कूल की खपरैल छत अब रंगीन टिन की चादरों में बदल चुकी थी। लेकिन कुछ चीजें थीं जो समय की गर्द में भी नहीं बदलीं—जैसे आम का वो पेड़, और उसके नीचे पड़ी वो पुरानी, धूल भरी मिट्टी, जहाँ एक समय में आरव चुपचाप अपनी चिट्ठियाँ लिखा करता था।

रेखा अब पचास पार कर चुकी थी। उसकी आँखों के नीचे झुर्रियाँ थीं, लेकिन उनमें अब भी एक चमक बची थी—एक ऐसा दीपक, जो बुझा नहीं था, सिर्फ हवा से छिपा बैठा था। उसका पति अब महानगर के कारोबार में डूब चुका था, बेटी को बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया था, और रेखा अक्सर गाँव लौट आती थी... बस एक ही वजह से।

चिट्ठियाँ।

हर बार जब वो गाँव आती, वो आम के पेड़ के नीचे बैठती, और संदूक से उठाई हुई उन चिट्ठियों को फिर से पढ़ती—जिनमें आरव की साँसे क़ैद थीं। वो आज भी उन्हें उसी तरह पढ़ती थी जैसे कोई ताज़ा गुलाब सूँघता है—नरमी से, एहसास से, और दिल से।

उसकी बेटी का नाम था आर्या—शहर में पढ़ी, आधुनिक विचारों वाली, पर दिल में माँ जैसी ही संवेदनशील। वो नहीं जानती थी कि उसकी माँ किस तूफ़ान से गुज़री थी। बस इतना जानती थी कि हर बार गाँव आकर माँ उदास हो जाती है, और एक दोपहर अकेले किसी पेड़ के नीचे बैठी कुछ पढ़ती रहती है।

एक दिन आर्या ने पूछ ही लिया, “माँ, आप हर बार उसी जगह क्यों जाती हैं? वो पेड़ ऐसा क्या है आपके लिए?”

रेखा चुप रही। फिर मुस्कुरा दी।

“कभी-कभी, कुछ बातें पेड़ों से भी जुड़ जाती हैं बेटा। जैसे रिश्ते... जो जिये नहीं जा सके, पर आज भी जिये जाते हैं।”

आर्या कुछ समझ नहीं पाई, लेकिन अगली सुबह उसने चुपचाप माँ का पीछा किया। रेखा आम के पेड़ के नीचे बैठी थी, चिट्ठियों का वही पुराना थैला खोलकर एक चिट्ठी पढ़ रही थी। आर्या ने छिपकर देखा। फिर साहस कर सामने आ गई।

“ये क्या है, माँ?”

रेखा चौंकी नहीं। उसने बस थैला आर्या की ओर बढ़ा दिया।

“पढ़ लो।”

आर्या ने एक चिट्ठी निकाली।
“रेखा,
तुम जब बोलती हो, तो लगता है जैसे कोई नदी पहाड़ों को छू रही हो। और जब चुप हो जाती हो, तो ऐसा लगता है जैसे किसी किताब का सबसे सुंदर पन्ना फाड़ लिया गया हो।”

आर्या ने पढ़ना रोका। आँखें नम हो गईं।

“किसने लिखा था ये?” उसने पूछा।

रेखा की आँखों में आँसू उतर आए।

“जिसने मुझे सबसे ज़्यादा चाहा... लेकिन जिससे मुझे कभी चाहने की इजाज़त नहीं मिली।”

रेखा ने पहली बार अपनी बेटी को सब कुछ बताया। आरव के बारे में, उनकी मुलाक़ातों के बारे में, समाज की दीवारों के बारे में, और उस रात के बारे में... जब आरव ने दुनिया छोड़ दी थी, पर शब्द छोड़ गया था।

आर्या कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “माँ, क्या तुम्हें अब भी लगता है कि उसने हार मानी?”

रेखा ने आहिस्ता से सिर हिलाया, “नहीं... उसने नहीं, मैं हार गई थी। मैंने डर से प्यार को छोड़ा। और वही डर अब तक मेरे साथ है।”

आर्या ने थैला अपनी गोद में लिया। फिर बोली, “क्या मैं इन चिट्ठियों को दुनिया के सामने ला सकती हूँ?”

रेखा चौंकी। “क्या मतलब?”

“माँ, आजकल लोग किताबें पढ़ते हैं, ब्लॉग्स लिखते हैं, कहानियों में जीते हैं। अगर ये चिट्ठियाँ सब पढ़ें… तो शायद कोई और आरव यूँ चुपचाप ना मर जाए। ये चिट्ठियाँ सिर्फ आपकी नहीं हैं, ये एक पूरी पीढ़ी की आवाज़ हैं... जो कभी चीख नहीं पाई।”

रेखा की आँखों से दो आँसू गिरे। उसने बेटी का हाथ पकड़ा।

“तू सच में मेरी बेटी है... तूने वही देखा जो मैं सालों से देखती रही, लेकिन कभी कह नहीं पाई।”

वो चिट्ठियाँ आर्या के साथ शहर लौट गईं। उसने सबसे पहले उन्हें पढ़ा, फिर टाइप किया, फिर ब्लॉग बनाया। उसने ब्लॉग का नाम रखा:

"चिट्ठियाँ जो कभी भेजी नहीं गईं"

हर हफ्ते एक चिट्ठी प्रकाशित होती। धीरे-धीरे लोग जुटने लगे—कमेंट्स आने लगे, मेल्स आने लगे। किसी ने लिखा, "ये मेरी कहानी है।" किसी ने कहा, "काश मैं भी ऐसा लिख पाता।" और किसी ने तो ये भी लिखा, "मैंने सुसाइड का प्लान रद्द कर दिया, क्योंकि मुझे लगा मैं अकेला नहीं हूँ।"

आर्या ने हर चिट्ठी के नीचे एक छोटा वाक्य जोड़ा होता:

“ये चिट्ठी एक लड़के ने उस लड़की को लिखी थी, जिससे वो कभी कह नहीं पाया कि वो उससे बेपनाह मोहब्बत करता है।”

कुछ महीनों में ही वो ब्लॉग पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया। अख़बारों में ख़बर छपी, “एक प्रेमी की अधूरी चिट्ठियाँ बन गईं नई पीढ़ी की प्रेरणा।”

एक दिन, एक मशहूर प्रकाशन हाउस से फोन आया।

“क्या आप इन चिट्ठियों को किताब की शक्ल देना चाहेंगी?”

आर्या ने माँ से पूछा। रेखा चुप रही। फिर लंबी साँस लेकर कहा,
“हाँ… पर उस किताब पर आरव का नाम हो। सिर्फ उसका। मैं नहीं हूँ उस कहानी की नायिका... मैं उसकी अधूरी कविता हूँ।”

किताब छपी। हज़ारों प्रतियाँ बिक गईं। लोगों ने प्रेम को फिर से समझा, पढ़ा और महसूस किया।

कई साल बाद, उसी आम के पेड़ के नीचे, एक युवा लेखक बैठा था। उसके पास वही किताब थी—“चिट्ठियाँ जो कभी भेजी नहीं गईं”. उसने किताब के पन्ने पलटे, और नीचे लिखा देखा:

लेखक – आरव
संपादन – आर्या
प्रेरणा – रेखा

उसने ऊपर देखा—पेड़ अब भी वैसा ही था। पत्तियाँ हवा में हिल रहीं थीं, जैसे कोई नाम पुकार रही हों।

और वहीं, किसी अदृश्य कोने में, दो आत्माएँ मुस्कुरा रही थीं—एक, जिसने लिखा... और एक, जिसे वो कभी भेज नहीं पाया।

उस दिन शहर में हल्की बारिश हो रही थी, जब आर्या किताब के विमोचन से लौटी। थकी थी, मगर भीतर कहीं एक संतोष था — जैसे एक अधूरी प्रार्थना पूरी हो गई हो। उसने माँ को फोन किया, कहा — “माँ, आज मैंने तुम्हारी चुप्पियों को आवाज़ दी है।” और रेखा, फोन की दूसरी तरफ सिर्फ मुस्कुराई थी — अब उसकी आँखों में आरव नहीं, आरव की अमरता थी।

एक महीना बीता।

ब्लॉग और किताब दोनों का असर ऐसा हुआ कि लोगों ने आर्या को नए ज़माने की प्रेम-दूत कहना शुरू कर दिया। उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया, मंचों पर आमंत्रित किया गया, और एक दिन वो अपने कॉलेज के साहित्य-सम्मेलन में बतौर अतिथि भाषण देने पहुँची।

वहीं एक युवा लड़का भी बैठा था—काली शर्ट, गाढ़े चश्मे और किताबों से भरा बैग लिये। उसकी आँखों में गहराई थी, और आवाज़ में ठहराव। जब आर्या मंच से उतरी, वो उसके पास आया और बिना भूमिका के बस इतना बोला:

“मैंने तुम्हारी किताब तीन बार पढ़ी है। हर बार लगता है, आरव का दर्द अब भी सांस ले रहा है… और रेखा की चुप्पी अब भी बहुत कुछ कहती है।”

आर्या एक पल को चौंकी। उसने पहली बार किसी को इतने सच्चे शब्दों में उस कहानी को जीते देखा।

“तुम्हारा नाम?” उसने पूछा।

“शौर्य।”
“तुम लेखक हो?”
“नहीं… सिर्फ एक पाठक, जो कभी किसी को लिख नहीं सका।”

शौर्य की वो सरलता आर्या को भीतर तक छू गई। उसने मुस्कुराकर कहा — “तो अब लिखो। देर कभी नहीं होती।”

शौर्य ने सिर झुका लिया, जैसे कोई नदी फिर से बहने लगी हो उसके भीतर।

उसके बाद आर्या और शौर्य में बातचीत शुरू हुई — कभी किताबों पर, कभी प्रेम पर, और कभी उन बातों पर जिनका कोई शीर्षक नहीं होता। आर्या को पहली बार महसूस हुआ कि कोई उसे भी वैसे ही सुनता है, जैसे वो आरव को सुनती थी।

एक दिन, शौर्य ने कहा —
“तुम्हारी चिट्ठियों में प्रेम है, लेकिन मैं जानना चाहता हूँ... क्या तुम्हारे भीतर अब भी प्रेम है?”
आर्या ने देर तक कुछ नहीं कहा। फिर बस इतना पूछा —
“अगर मैं कहूँ कि मैं उस आम के पेड़ के नीचे चलना चाहती हूँ एक बार फिर… क्या तुम साथ चलोगे?”

शौर्य ने हँसते हुए कहा — “मैं उस पेड़ की छाँव में बैठकर तुम्हारी चुप्पियों को पढ़ना चाहता हूँ।”


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कुछ हफ़्तों बाद, आर्या ने शौर्य को गाँव बुलाया। वही सोनपुर, वही रास्ते, वही चौपाल… और वही आम का पेड़।

वो दोनों शाम को पहुँचे। हवा में पुराने दिनों की महक थी। रेखा बरामदे में बैठी चाय पी रही थी। शौर्य को देखकर मुस्कराई, फिर उसकी आँखों में वही सवाल था जो कभी आरव की आँखों में रहा करता था—“क्या ये भी सिर्फ पढ़ेगा, या तुम्हें समझेगा भी?”

रेखा ने शौर्य को पास बुलाया, एक कुर्सी दी, और सीधा सवाल पूछा—

“क्या तुमने सिर्फ मेरी बेटी की किताब पढ़ी है, या उसकी आत्मा भी?”

शौर्य थोड़ा ठिठका, फिर बोला—
“मैंने उसकी कहानी पढ़ी, और उसकी ख़ामोशी में वो सुना जो शब्दों ने नहीं कहा। मैंने उसका दुःख नहीं पढ़ा, मैंने उसे महसूस किया।”

रेखा की आँखें भर आईं। उसने आशीर्वाद में हाथ उठाया—
“तुम देर से आए हो... लेकिन शायद सही वक़्त पर आए हो।”

उस रात तीनों ने मिलकर वही चिट्ठियाँ फिर से पढ़ीं। शौर्य हर पंक्ति पर ठहरता, जैसे कोई पुराना दर्द उसकी साँसों में उतर रहा हो।

आर्या ने पूछा,
“क्या तुम मानते हो कि अधूरे प्रेम को भी मंज़िल मिलती है?”

शौर्य ने जवाब दिया,
“अगर मंज़िल पाने से पहले प्रेम अधूरा रह जाए, तो वही प्रेम दूसरों की मंज़िल बन जाता है।”


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अगली सुबह, आर्या और शौर्य आम के पेड़ के नीचे गए। आर्या ने उसी थैले में कुछ नई चिट्ठियाँ रखीं—जो उसने खुद लिखी थीं, आरव के नाम।

एक चिट्ठी पढ़कर सुनाई

“आरव,
तुम जहाँ भी हो, देखना… अब मैं फिर अकेली नहीं हूँ।
तुमने मुझे शब्द दिए थे, मैंने उन्हें जीवन दिया।
अब शौर्य है—वो तुम्हारी तरह चिट्ठियाँ नहीं लिखता, लेकिन मेरे मौन को पढ़ लेता है।
तुमने मुझे प्रेम सिखाया, उसने उसे जीना सिखाया।”
शौर्य ने चुपचाप थैला उठाया, और आम के पेड़ के पास मिट्टी में एक छोटा गड्ढा खोदकर वो सारी चिट्ठियाँ वहाँ दफना दीं।
ऊपर एक पत्थर रखा, जिस पर खुदा था—

“यहाँ प्रेम सोया नहीं है… यहाँ प्रेम अमर हुआ है।”


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सालों बाद, सोनपुर का वो आम का पेड़ अब एक स्मारक बन चुका है। गाँव के बच्चे वहाँ बैठते हैं, प्रेम की कहानियाँ सुनते हैं, और दूर-दूर से लोग आते हैं उस जगह को देखने, जहाँ एक लड़के ने अपनी चुप्पियों में प्रेम को अमर कर दिया था।

रेखा अब नहीं रही। लेकिन उसकी मुस्कुराहट हर साल उस दिन लौट आती है जब आर्या और शौर्य साथ वहाँ आते हैं — कुछ फूल चढ़ाते हैं, कुछ चुप रहते हैं, और फिर लौट जाते हैं… एक नई चिट्ठी के साथ, जो शायद कभी भेजी नहीं जाएगी।