आरा स्टेशन की भीड़ में एक लड़का अपने झोले को संभालते हुए बाहर निकल रहा था। सिर पर हल्की धूल जमा टोपी, पीठ पर झोला और आंखों में नए सफ़र की चमक। वो लड़का था – प्रेम सिंह। एक किसान परिवार से आया हुआ, बिहार के एक छोटे से गांव का होनहार लड़का, जिसे अपने सपनों को शब्दों में पिरोने की आदत थी। कविता, कहानी और किताबें ही उसका संसार थीं। और अब उसका नया ठिकाना था – वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा।
हॉस्टल का कमरा मिला, जो दीवारों पर लिखे शेर-ओ-शायरी से भरा था। प्रेम मुस्कुराया – "शुरुआत सही जगह से हो रही है।"
अगले दिन क्लास की शुरुआत थी। क्लास रूम की पहली पंक्ति में बैठने की आदत लेकर वो समय से पहले पहुंच गया था। तभी कुछ लड़कियों की चहल-पहल हुई। उनमें से एक लड़की थी, नीली साड़ी में, किताबों को सीने से लगाए, बालों में चमेली का फूल लगाए – काजल मिश्रा।
काजल का हँसना जैसे किसी मंदिर की घंटी की तरह कानों में गूंजा। प्रेम ने पहली बार किसी अनजान लड़की को इतने गौर से देखा। उसे समझ नहीं आया कि ये आकर्षण है या कुछ और... लेकिन कुछ था जो उसे रोक नहीं पाया।
क्लास में जब प्रोफेसर ने 'प्रस्तावना' पर बोलने को कहा, तो प्रेम ने खड़ा होकर इतनी सुंदर हिंदी में अपनी बात रखी कि पूरा क्लास चुप हो गया। सबने सराहा, मगर काजल की आंखों में जो चमक थी, वो सबसे अलग थी। वो पहली बार प्रेम को देख रही थी – ध्यान से, धीरे-धीरे।
बाहर आते ही काजल ने कहा,
"तुम बहुत अच्छा बोलते हो। तुम कवि हो क्या?"
प्रेम थोड़ी देर खामोश रहा, फिर मुस्कराया – "मैं कवि नहीं, मगर भावनाओं का कैदी ज़रूर हूँ।"
काजल को ये जवाब कुछ ऐसा भाया कि वो देर तक मुस्कुराती रही। पहली बातचीत ने जैसे दोनों के दिलों में कुछ नया जगा दिया था।
कॉलेज का जीवन
आरा की गलियों में, विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में, चाय की दुकानों पर और होस्टल की रातों में धीरे-धीरे प्रेम और काजल की मुलाक़ातें बढ़ने लगीं। किताबों का आदान-प्रदान हुआ, कविताओं की चर्चा, और जीवन की उलझनों पर लंबी बातें।
काजल आत्मनिर्भर थी, अपने पिता की इकलौती संतान। उसका सपना था – प्रशासनिक सेवा में जाना। प्रेम का सपना था – एक बड़ा लेखक बनना, जो गांव-समाज की सच्चाइयों को दुनिया तक पहुँचाए।
काजल ने एक दिन कहा –
"तुम्हें देखकर लगता है जैसे कोई किताब मेरे सामने बोल रही हो।"
प्रेम बोला – "और तुम्हें देखकर लगता है जैसे कोई कविता चल रही हो।"
वो हँस पड़ी, और उसकी हँसी प्रेम के दिल में बस गई।
आरा की वो शाम बाकी दिनों से थोड़ी अलग थी।
वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय की गलियों में वो हलचल नहीं थी जो प्रेम को रोज़ मोह लेती थी। ना कहीं साइकिल की घंटियाँ, ना लाइब्रेरी के बाहर बहस करते छात्र, और ना ही वो खनकती हँसी, जो अब उसकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी आदत बन चुकी थी — काजल की हँसी।
तीन दिन हो चुके थे।
काजल क्लास नहीं आई थी।
प्रेम हर दिन जल्दी आता, सबसे आगे वाली बेंच पर बैठता, और हर आने-जाने वाले चेहरे में बस उसे ढूंढता।
शाम ढले, वो अक्सर चाय की दुकान के उस कोने में बैठा दिखाई देता जहाँ कभी काजल भी बैठा करती थी। उसके सामने अधूरी चाय ठंडी होती जाती, मगर उसका इंतज़ार गर्म ही रहता।
आज की शाम भी वैसी ही थी।
"एक चाय, कम चीनी।"
उसने दुकानदार से कहा, और वहीं खामोश बैठ गया।
पास ही कुछ लड़के राजनीतिक बहस में लगे थे, कोई साहित्यिक पत्रिका पढ़ रहा था, कोई आने वाले यूजीसी नेट की तैयारी में जुटा था।
मगर प्रेम के भीतर सिर्फ एक बात गूंज रही थी — काजल कहाँ है?
वो बेचैन था। पहली बार दिल के भीतर कोई खाली जगह महसूस हो रही थी, जैसे कोई अपना बिना बताए कहीं दूर चला गया हो।
हॉस्टल की छत और अकेली रातें
उस रात प्रेम देर तक हॉस्टल की छत पर बैठा रहा।
सामने आसमान पर चाँद था — पूरा और चमकदार।
मगर प्रेम की आंखों में उदासी थी।
हवा से उसकी डायरी के पन्ने फड़फड़ा रहे थे। वो डायरी जो काजल को देखकर लिखी गई नज़्मों से भरी थी।
उसने एक पन्ना खोला और लिखा —
"तुम्हारी चुप्पी मुझे डरा रही है काजल,
हर ख़ामोशी एक कहानी कहती है —
मगर तुम क्या कहना चाहती हो,
क्यों नहीं कहती?"
अगले दिन की सुबह — और काजल की वापसी
क्लास में सब कुछ रोज़ जैसा ही था — वही शिक्षक, वही विषय, वही रूटीन।
मगर आज दरवाज़े से एक जानी-पहचानी साड़ी अंदर आई — नीली रंग की, वही जो काजल अक्सर पहनती थी।
प्रेम का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
काजल धीरे-धीरे क्लास में आई, मगर उसकी चाल में थकान थी, चेहरे पर एक अजीब सी उदासी, और आंखों में जैसे कई रातों की नींद दबी हो।
प्रेम ने देखा — और पहचान गया कि कुछ बहुत बड़ा बदल चुका है।
ब्रेक में वो चुपचाप उसके पास गया।
धीरे से बोला —
"काजल, सब ठीक है?"
काजल ने सिर झुकाया, कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली —
"पापा की तबीयत बहुत खराब है प्रेम।
हार्ट की प्रॉब्लम निकली है। डॉक्टर ने कहा है लंबा इलाज करना होगा।
घर पर पैसों की बहुत दिक्कत है। और... अब मुझसे पढ़ाई भी बोझ लग रही है।"
प्रेम जैसे पत्थर बन गया।
वो सिर्फ सुन पा रहा था, समझ नहीं पा रहा था।
काजल ने आगे कहा —
"मम्मी-पापा अब चाहते हैं कि मैं जल्दी शादी कर लूं।
एक रिश्ता आया है — बैंक में अफसर है।
घर वाले कह रहे हैं कि यही सही समय है।
मैं कुछ नहीं कह पा रही।"
प्रेम ने उसकी आँखों में देखा — वहाँ कोई शिकायत नहीं थी, कोई सवाल नहीं था, सिर्फ थकान और विवशता थी।
उसने धीरे से उसका हाथ थामा, पहली बार बिना कांपे।
बोला —
"मैं तुम्हारे साथ हूँ काजल।
जिस हद तक मेरी हिम्मत चलेगी, मैं लड़ूंगा — तुम्हारे लिए, तुम्हारे पिता के लिए, तुम्हारे सपनों के लिए।
तुम बस हिम्मत मत हारो।"
काजल की आँखों से आंसू गिर पड़े।
वो कुछ नहीं कह सकी, बस चुपचाप खड़ी रही।
वो दिन और आने वाले दिन
उसके बाद सब कुछ धीमा हो गया।
काजल अब कॉलेज बहुत कम आने लगी थी।
फोन भी कई बार बंद मिलता, और जवाब आने में देर होती।
प्रेम अब रोज़ वहीं बैठता — उसी बेंच पर, उसी कोने में।
वो जानता था — ये कहानी अब मोड़ पर है।
यह वो मोड़ है जहाँ या तो प्यार जीतता है, या किस्मत।
डायरी की आख़िरी लाइन उस रात:
"मैंने किताबें पढ़ीं, कविताएं लिखीं, सपने देखे —
मगर तुम जो मेरी ज़िन्दगी में आई,
तो लगा जैसे कोई कविता खुद चलकर मेरे पास आ गई।
अब अगर वो कविता मुझसे छिन जाए —
तो मैं फिर कभी कुछ नहीं लिख पाऊंगा।"
आरा की गलियाँ वही थीं, रास्ते भी वहीं थे, और विश्वविद्यालय की घंटियाँ भी वैसी ही बज रही थीं।
मगर अब प्रेम की चाल बदल गई थी — धीमी, बोझिल और उदास।
काजल अब कॉलेज नहीं आती थी।
फोन उठता नहीं था।
और जिस घर की चारदीवारी कभी चाय, किताबों और मुस्कान से गूंजती थी, अब वहीं एक गहरा सन्नाटा पसरा था।
प्रेम दिन में क्लास करता, शाम में लाइब्रेरी में बैठने की कोशिश करता — मगर किताबें अब उसके लिए महज़ कागज़ के पन्ने बन गई थीं।
हर शब्द के पीछे उसे काजल का चेहरा दिखता।
एक दिन की बात
उसने हिम्मत कर के काजल के गाँव जाने का सोचा।
आरा से बस पकड़कर वो सीधे उसके कस्बे के लिए निकला — रास्ते भर मन में एक ही सवाल,
"क्या मैं देर कर चुका हूँ?"
जब वो पहुँचा, तो घर के बाहर दरवाज़ा बंद था।
पास के एक दुकानदार से पूछा —
"काजल मिश्रा जी का घर यही है?"
वो बोला —
"हाँ, पर बेटी की शादी हो गई है, अभी दो दिन पहले ही बारात आई थी।"
प्रेम वहीं खड़ा रह गया —
जैसे किसी ने ज़मीन खींच ली हो पैरों के नीचे से।
हवा चल रही थी, मगर वो उसे महसूस नहीं कर पा रहा था।
वो कुछ देर तक बस दरवाज़े को देखता रहा —
वहीं दरवाज़ा जहाँ उसने कभी काजल को विदा लेने का सपना देखा था…
लेकिन अब वो सपना किसी और की हकीकत बन चुका था।
बस की खिड़की से बाहर खेत, पेड़, गांव सब पीछे छूट रहे थे
जैसे प्रेम की ज़िन्दगी से उसकी मोहब्बत पीछे छूट रही हो।
उसने डायरी खोली और लिखा —
"तुम चली गई काजल,बिना अलविदा कहे,बिना ये जाने कि
तुम्हारा एक शब्द मेरी पूरी ज़िन्दगी बदल सकता था।"
आरा लौटने के बाद वो पहले जैसा नहीं रहा।अब न वो पहले जैसी कविताएँ लिखता,न दोस्तों से बातें करता,न कैंटीन की चाय पीता।
वो बस लाइब्रेरी की खिड़की के पास बैठा रहता,जहाँ से बाहर देख कर वो काजल के आने की राह देखा करता था।
एक शाम उसने अपनी डायरी की आख़िरी पन्नी पर लिखा —
"तुम्हारे बिना जीना भी एक सज़ा है,
जिसे हर रोज़ भुगत रहा हूँ…
मगर शायद यही प्रेम का असली रूप है —
निःस्वार्थ, अधूरा, और सच्चा।"
एक ख़त — जो कभी नहीं भेजा गया
> प्रिय काजल,
तुम्हारी शादी की खबर मिली। मैं रोया नहीं, क्योंकि तुम्हारी खुशी में मेरी मोहब्बत कभी आड़े नहीं आनी चाहिए।
मगर एक बात कहे बिना नहीं रह सकता — अगर तुमने एक बार भी मुझे बुलाया होता, तो मैं सारी दुनिया छोड़कर तुम्हारे साथ चल देता।अब बस इतना ही कि तुम्हारी यादें मेरी ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत सजा हैं।
– प्रेम
लेखक – पाठक आशीष ”विलोम”