शिमला की सर्दियों में पहाड़ियों के बीच छिपे उस आर्ट कॉलेज की वादियाँ जैसे खुद ही रंग सीख रही थीं। पाइन के पेड़ बर्फ ओढ़े खड़े थे, और हवा में ताज़गी के साथ एक अजीब सी वीरानी थी। कॉलेज का कैंपस कुछ वैसा ही था — शांत, पर भीतर कुछ खदबदाता हुआ।
इन्हीं दिनों में दिल्ली से आया एक नया छात्र — अनिरुद्ध मेहरा, अपने ख्वाबों की पोटली लिए। वो सिर्फ पेंटिंग नहीं बनाता था, वो हर चेहरे में कहानी ढूंढता था, और हर रंग में कोई अधूरी चीख।
पहले ही दिन, जब वो अपने स्केचबुक और ब्रश लेकर क्लास में दाखिल हुआ, उसकी नज़र सबसे पीछे की बेंच पर बैठी एक लड़की पर पड़ी। बाकी सब छात्रों की नज़रे उसकी तरफ तभी जाती थीं जब वो अपनी पेंटिंग क्लास में कुछ ‘अजीब’ बना रही होती थी — लेकिन अनिरुद्ध के लिए वो 'अजीब' नहीं, रहस्यमयी थी।
नीली आँखें। नीले बाल। नीला दुपट्टा। और कैनवस पर फैला हुआ सिर्फ एक ही रंग — नीला।
कभी हल्का, कभी गहरा, कभी डरावना और कभी बेहद शांत।
उसके ब्रश से जब रंग टपकता था, तो ऐसा लगता जैसे वो अपनी आत्मा से टपका हो।
अनिरुद्ध पहली बार किसी इंसान को देखकर चौंका नहीं था, बल्कि खिंच गया था — जैसे कोई अजनबी पुरानी याद सा लगे।
ब्रेक में वह उससे जाकर बोला,
“तुम सिर्फ नीला ही क्यों बनाती हो?”
लड़की ने धीरे से ब्रश नीचे रखा। उसकी आँखों में कोई झिझक नहीं थी, बस एक सन्नाटा था जो शब्दों को निगल रहा था।
“क्योंकि बाक़ी रंग अब मुझसे बात नहीं करते।” उसने कहा।
“पर… तुम्हारा नाम?”
“निसर्गा,”
फिर एक लंबा मौन खिंच गया — जैसे किसी पुराने रेडियो पर स्टेशन बदल गया हो और संगीत की जगह सिर्फ सन्नाटा मिले।
अनिरुद्ध उसे और जानना चाहता था। अगले कुछ दिनों में उसने गौर किया —
वो कॉलेज आती थी, मगर किसी से बात नहीं करती।
वो पेंटिंग में डूब जाती थी, मगर कभी हँसती नहीं थी।
उसके हाथ कांपते नहीं थे, मगर उसकी आँखों में कभी ठहराव नहीं होता।
कुछ तो था जो उसे हर किसी से अलग बनाता था।
वो लड़की जो किसी रंग से नहीं डरती थी,
पर शायद किसी अतीत से भाग रही थी।
एक दिन बारिश हो रही थी। क्लास खत्म होने के बाद निसर्गा अकेली छत के पास खड़ी थी, बूँदों को छूती हुई।
अनिरुद्ध ने पास जाकर पूछा,
“तुम्हें अकेले रहना पसंद है?”
निसर्गा ने आसमान की ओर देखा, “अकेलापन कोई पसंद नहीं करता। पर कभी-कभी ये साथियों से बेहतर होता है।”
“क्या तुम्हें कभी किसी ने प्यार किया?”
निसर्गा की आँखों में नीला और गहरा हो गया।
“किया था,” उसने कहा, “पर फिर उसने मुझसे रंग छीन लिए।”
अनिरुद्ध कुछ नहीं बोला। उस शाम, उसने निसर्गा की आँखों को नहीं देखा — वो टूटी हुई लग रही थीं। जैसे किसी आईने में दरारें आ गई हों और फिर भी वो मुस्कुरा रहा हो।
सर्दियों की वो रात कुछ अलग थी। हल्की बारिश थम चुकी थी, मगर अनिरुद्ध के भीतर कुछ बूँदें अब भी गिर रही थीं। वो निसर्गा की बातों को लेकर बेचैन था —
"उसने मुझसे सारे रंग छीन लिए..."
ये वाक्य उसके ज़ेहन में बार-बार गूंजता रहा।
अगले दिन कॉलेज में निसर्गा नहीं आई।
एक दिन बीता। दूसरा भी।
अनिरुद्ध से रहा नहीं गया। वो हॉस्टल की ओर निकल पड़ा — जहाँ लड़कियाँ किराए पर कमरा लेकर रहती थीं। उस कस्बे के छोर पर एक पुराना सा घर था, जहाँ एक कमरा उसने निसर्गा को जाते देखा था।
दरवाज़ा बंद नहीं था। हल्का सा धक्का देते ही खुल गया।
भीतर का दृश्य किसी चित्रकला की भयावह परिभाषा था।
कमरे की दीवारें नीले कांच के टुकड़ों से सजी थीं। हर टुकड़ा एक आकार में नहीं था — कोई दिल की शक्ल का, कोई आँख जैसा, और कुछ बिल्कुल बिखरे हुए टुकड़े जैसे।
उन पर कुछ लिखा हुआ था।
> "9 जून — जब उसने पहली बार हाथ छुड़ाया"
"18 जुलाई — जब मेरे रंगों पर शक हुआ"
"2 नवम्बर — जब मैं टूट गई"
अनिरुद्ध सुन्न खड़ा रह गया।
पीछे से एक धीमी आवाज़ आई, “उन्हें मत छूना। वो मेरी कहानी हैं।”
निसर्गा चुपचाप खड़ी थी — हाथ में एक और कांच का टुकड़ा, जिस पर कुछ लिखने जा रही थी।
“क्या तुम हर दुख को कांच में बदल देती हो?”
“नहीं,” उसने कहा, “हर कांच मेरे टूटने की तारीख है। मैं भूलना नहीं चाहती... वो दिन जब मैं खुद से दूर हो गई।”
अनिरुद्ध धीरे से उसके पास बैठ गया।
“तुम्हें किसने तोड़ा निसर्गा?”
काफी देर चुप रहने के बाद उसने कहा —
“मैंने... खुद को।”
"कभी किसी ने मुझसे वादा किया था — कि मेरा अतीत, मेरा डर, मेरा रंग सब उसके होंगे।
और फिर एक दिन... उसने कहा — 'तुम बोझ बन रही हो'।"
“उस दिन मुझे समझ में आया, रंग सिर्फ ब्रश से नहीं बनते, विश्वास से बनते हैं।
और मेरा विश्वास उसी दिन टूट गया।”
कमरे में खामोशी पिघलती रही।
अनिरुद्ध ने धीरे से उसकी हथेली थामी।
“मैं कोई वादा नहीं करूंगा निसर्गा।
पर मैं तब तक रहूंगा, जब तक तुम चाहो।
ताकि शायद... तुम्हें फिर से रंग पसंद आने लगे।”
निसर्गा ने पहली बार उसकी तरफ देखा —
उसकी आँखों में आँसू नहीं थे,
बल्कि एक छोटी सी मुस्कान थी, जो बहुत सालों बाद लौटी थी।
लेकिन उसके ठीक पीछे, दीवार पर एक नया कांच लगाया गया था —
“आज — जब किसी ने फिर से मेरा हाथ थामा।”
वसंत का महीना था। निसर्गा अब कॉलेज की सबसे चमकती छवि बन गई थी।
अब वह मुस्कुराने लगी थी, लोगों से बातें करने लगी थी, और सबसे बड़ा परिवर्तन — उसकी पेंटिंग अब सिर्फ नीली नहीं थीं।
एक दिन उसने अनिरुद्ध को एक पेंटिंग गिफ्ट की —
उसमें दो लोग पहाड़ों के बीच खड़े थे।
पीछे नीला आसमान, उनके ऊपर तितलियाँ उड़ रही थीं।
और नीचे लिखा था —
"अगर तुम नहीं मिलते, तो मैं कभी जीना नहीं सीखती।”
अनिरुद्ध ने उसे गले से लगा लिया।
उसने तय कर लिया था — पढ़ाई खत्म होते ही वह निसर्गा को अपने साथ दिल्ली ले जाएगा।
“तुम्हारे लिए वहां एक स्टूडियो बनाऊँगा,” वह कहता,
“जिसमें हर रंग होगा — और हर दीवार पर तुम्हारी मुस्कान।”
निसर्गा हँसती, “लेकिन मेरा नीला कांच वहाँ ले जाने दोगे?”
“सिर्फ अगर तुम उसमें मुझे भी जोड़ सको।”
सब कुछ सुंदर हो रहा था।
इतना सुंदर, कि जैसे किस्मत कुछ छिपा रही हो।
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एक दिन, कॉलेज के गेस्ट लेक्चरर आए —
दिल्ली के मशहूर कलाकार प्रखर वर्मा।
जैसे ही निसर्गा ने उनका नाम सुना, उसका चेहरा ज़र्द पड़ गया।
वो क्लास से बाहर चली गई।
अनिरुद्ध उसके पीछे भागा।
“क्या हुआ?”
बहुत देर तक चुप रहने के बाद, निसर्गा ने जवाब दिया —
“वही है... जिसने मुझे पहली बार रंगों से दूर किया था।
जिसने मेरा यकीन तोड़ा, मेरा विश्वास छीना।
वही जो कहता था — मैं उसकी ‘प्रेरणा’ हूं,
और फिर एक दिन कह गया — ‘अब तुझसे कला नहीं निकलती।’”
अनिरुद्ध कुछ बोल नहीं पाया।
निसर्गा ज़मीन पर बैठ गई थी — जैसे वह किसी अदृश्य चोट से दोबारा घायल हो गई हो।
उस शाम, पहली बार निसर्गा ने नीला रंग उठाया —
और पूरे कैनवस पर सिर्फ एक शब्द लिखा —
“डर”।
फिर कई दिन वो कॉलेज नहीं आई।
अनिरुद्ध रोज़ उसके कमरे जाता। कभी दरवाज़ा बंद, कभी जवाब नहीं।
आख़िर एक सुबह, जब सूरज बहुत धीमे निकला था —
वह कमरे में गया और देखा —
निसर्गा बिस्तर पर शांत लेटी थी।
हाथ में एक नीला कांच था, और उसके नीचे एक छोटा सा नोट —
“मैंने फिर से टूटने की कोशिश की,
पर इस बार मैं खुद को समेट नहीं पाई।
अनिरुद्ध, तुम्हारे साथ जीना चाहती थी,
पर मेरे अंदर जो मर चुका था —
वो अब और जीने नहीं देता।”
अनिरुद्ध के हाथ काँप रहे थे।
कमरे की दीवार पर एक नया कांच चिपका था —
"आज — जब मैंने आख़िरी बार किसी को माफ़ किया।”
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उसके बाद, अनिरुद्ध ने शिमला नहीं छोड़ा।
वह अब उसी कमरे में रहता है —
और हर साल 2 अप्रैल को एक नया नीला कांच जोड़ता है।
उसने अपने जीवन की सबसे खूबसूरत पेंटिंग बनाई —
जिसमें एक लड़की है, जो नीले झील में हाथ फैलाकर खड़ी है,
आसमान में तितलियाँ उड़ रही हैं,
और उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कान है।
नीचे लिखा है —
“जिसने रंगों को मरने से बचाया,
वो खुद बिना रंग के चली गई।”
निसर्गा को गए पाँच साल बीत चुके थे।
शिमला अब वैसी नहीं रही — मौसम अब पहले जैसे सर्द नहीं लगते, और पाइन के पेड़ों की चुप्पी अब अनिरुद्ध के लिए परिचित हो चुकी थी। वह अब उसी पुराने कमरे में रहता था, जहाँ निसर्गा की नीली दीवारें थीं।
हर साल वह एक नया कांच जोड़ता।
हर कांच में एक तारीख, एक याद, और एक नन्हा सा दुख।
लेकिन इस साल, पाँचवे साल, कुछ अलग हुआ।
उसे एक डाक मिली — पुराना लिफ़ाफ़ा, धूल से ढका हुआ।
ऊपर बस नाम लिखा था:
“अनिरुद्ध मेहरा — जिसे मैं खुद से ज़्यादा चाहती थी”
लिफ़ाफ़ा खोला। अंदर एक खत था — निसर्गा की लिखावट में।
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“अनिरुद्ध,
> जब तुम ये खत पढ़ रहे होगे, मैं शायद नहीं होऊँगी।
और हाँ, ये खत मैंने बहुत पहले लिखा था — उस दिन, जब तुमने मेरा हाथ थामा और कहा कि 'मैं टूटे हिस्सों में जीने आया हूँ।'
> उस दिन मैंने चाहा था कि तुम्हें बता दूँ —
कि मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ।
मगर डरती थी कि अगर मैंने कह दिया, तो शायद ये सपना टूट जाएगा।
> तुम्हें लगता है मैं कांचों में जीती हूँ।
पर सच ये है कि तुम मेरे भीतर वो एकमात्र इंसान थे, जिसे मैंने खुद से ज़्यादा चाहा।
और शायद इसीलिए...
जब वो पुराना ज़ख़्म फिर से जागा, मैं हार गई।
> अगर कभी मैं चली जाऊँ, तो खुद को मत तोड़ना।
क्योंकि तुममें अब मेरा सबसे खूबसूरत हिस्सा बस चुका है।
और एक कलाकार को अधूरा नहीं होना चाहिए।
> प्यार हमेशा पूरा नहीं होता अनिरुद्ध —
कभी-कभी वो सिर्फ एक ‘अधूरा चित्र’ होता है,
जिसे हम सालों तक देखते हैं,
और फिर भी पूरा नहीं कर पाते।
> — निसर्गा
अनिरुद्ध बहुत देर तक खत को पढ़ता रहा।
उसकी आँखें भीगती रहीं, लेकिन होंठों पर हल्की मुस्कान थी —
जैसे वो जानता हो,
अब उसकी नीली लड़की हमेशा के लिए लौट आई है।
उसी शाम, उसने दीवार पर आखिरी कांच चिपकाया —
उस पर सिर्फ इतना लिखा था:
“आज — जब मैं अधूरा नहीं रहा।”