Traas Khanan in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | त्रास खनन - 3

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त्रास खनन - 3

शायद वो लड़का उसके एक लेखक होने के कारण उसकी ओर आकर्षित हो गया हो और उसे भी लिखने- पढ़ने का थोड़ा - बहुत चाव हो। कई बार बच्चे कविता - कहानी लिखने में आनंद महसूस करते हैं और अपने कार्य को और परिमार्जित करने की चाह उन्हें  साहित्यकारों की तरफ आकर्षित कर देती है। उन्हें लेखकों में भविष्य का अपना मार्गदर्शक और सहयोगी नज़र आने लगता है। वो उनकी ओर आदर तथा श्रद्धा से खिंचे चले आते हैं।या फिर लड़के ने प्रोफ़ाइल देख कर ये जान लिया कि वह एक प्रोफ़ेसर और निदेशक के रूप में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ है। लड़के ने हायर एजुकेशन के अपने सपने को लेकर उसकी ओर पहचान- परिचय का हाथ बढ़ाया हो। छोटे गांव कस्बों में रहने वाले महत्वाकांक्षी बच्चे अपनी उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहरों की ओर देखते ही हैं और इसके लिए उन्हें किसी तिनके के सहारे की चाह मन ही मन रहती है। वो जानते हैं कि आज के भारी प्रतिस्पर्धा के युग में बिना किसी आधार के अपना मुकाम बनाना एक टेढ़ी खीर ही साबित होता है। यही सोच कर वो एक लेखक - प्रोफ़ेसर की ओर उन्मुख हुआ हो। लड़का अपनी शिक्षा के लिए उसके शहर में आने की दिली ख्वाहिश रखता हो।एक कारण और भी कुनमुनाता था उसके ज़हन में। साइकोलॉजी कहती है कि बच्चे किसी रिश्ते से फिक्सेशन के शिकार भी होते हैं। कोई- कोई रिश्ता जो उन्हें आसानी से उपलब्ध नहीं होता उसकी ओर वो आउट ऑफ द वे जाकर भी आकर्षित होते हैं। बच्चों का अपने दादा - नाना अथवा माता- पिता से जुड़ाव भी इसी तरह की भावनात्मकता के साथ होता है। बहरहाल ये सब कुछ किसी के अपने हाथ में नहीं होता।कभी - कभी अपने कंफर्ट ज़ोन में भी आदमी संदेह के पर्दे टांग लेता है। तब शंका - कुशंका यहां अंधी सुरंग में भी उसका पीछा नहीं छोड़ती।बहरहाल वह अपने कंफर्ट ज़ोन को कंफर्ट पार्लर कहता था और इसी अवधारणा को अपने मन में धार कर अपने से बहुत छोटी उम्र के उस लड़के से बातें करने बैठता था।हालांकि दिनों दिन सोशल मीडिया का निहायत बढ़ता जाता खुलापन उसे इससे आगे सोचने से भी नहीं रोकता था लेकिन फ़िलहाल उसकी अब तक की ज़िंदगी की बगिया में उगे दरख़्तों की जो ट्रिमिंग - कटिंग उसके हालात ने कर दी थी उनकी छाया में इतनी स्पेस वो कभी अपने आप को भी नहीं दे पाता था।आख़िर वह एक भरा - पूरा गृहस्थ ही तो था। कोई साधु संन्यासी नहीं जो एक छोटे निर्दोष लड़के को अपने स्वार्थ के लिए अपना चेला बनाने की बात सोचे। फ़िर उसे लड़के के बारे में बहुत अधिक अभी तक पता भी तो नहीं था। वह किस परिवार से है, उसकी हैसियत क्या है, वह क्यों एक अजनबी प्रौढ़ से इस तरह रात दिन बातें किया करता है, आख़िर क्या चाहता है...बस, ज़िंदगी के सफ़र में चलते- चलते रस्ते में किसी मुसाफ़िर की तरह एक किशोर लड़का उसे मिल गया और उनके बीच बिना किसी प्रयोजन के सहज ही बातें होने लगीं। इतना ज़रूर था कि उसके अपने दुःख भरे तूफ़ान के बाद यह लड़का एक सहज मित्र की तरह मिला था इसलिए एक सॉफ्टकॉर्नर उसके लिए बना रहता था। मुंह बोले किसी रिश्ते सा।लेकिन इसी बीच उसका माथा तब ठनका जब एक दिन बातों ही बातों में फ़ोन पर लड़के ने उससे कहा - अंकल, अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपको पिता जी कह सकता हूं?- क्यों बेटा? क्या इससे तुम्हारे पिता को बुरा नहीं लगेगा? उसने कहा।- अंकल, मेरे पिता नहीं हैं। बस मैं और मेरी मां हैं। हम दूर के रिश्ते के एक मामा के पास गांव में रहते हैं।- ओह! तब तुम्हारे घर का खर्च कैसे चलता है? तो क्या तुम्हारी मां कोई नौकरी करती हैं? उसने मानो इस नए बने संबंध में कोई स्वार्थ- गंध सूंघ ली हो।- मेरे पिता की गांव में ही एक छोटी सी दुकान थी। मां उसी को संभालती हैं।- पिता की मृत्यु कब और कैसे हुई? उसने हमदर्दी के लहज़े में ही पूछा।- अंकल, हमारे गांव में कॉलेज नहीं है, जब मैंने यहां से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली तो पास के शहर में कॉलेज में एडमिशन ले लिया। थोड़े ही दिन हुए थे कि एक एक्सीडेंट में पिता जी चले गए।- ये तो बहुत बुरा हुआ। उसने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा।- जी अंकल, हमारे छोटे से कच्चे मकान को मामा के पास रेहन रख कर मेरी मां ने मेरी पढ़ाई छूटने नहीं दी। हम यहीं रहते हैं।लड़के से ये सब जान लेने के बाद वो उसके पिता कहने के सवाल पर कुछ नहीं कह सका। न हां और न ना।लड़का उसे अब फ़ोन पर बात करते हुए पिताजी कह कर ही पुकारता।लेकिन ये उसे अच्छा नहीं लगता था। धीरे - धीरे एक अनमना पन उन दोनों के बीच पसरने लगा।