शाम ढलने लगी थी…
सूरज की आख़िरी किरणें जैसे शहर की सड़कों को हल्की सुनहरी चादर में लपेटे जा रही थीं।
नायरा कॉलेज से लौट रही थी।
आज वो अपनी ही सोचों में उलझी हुई थी—निम्मी से की गई बातों की गूंज अब भी दिल के किसी कोने में चल रही थी।
वो बेस्टॉप तक पहुँची ही थी, जब उसके क़दम ठिठक गए।
वहीं सामने… वो खड़ा था।
वही सुकून भरा चेहरा, वही शांत आँखें, और वही खामोशी जो शोर से कहीं ज़्यादा असर रखती थी।
अमन।
वो बस के इंतज़ार में नहीं था… बस यूँही खड़ा था।
शायद किसी का इंतज़ार… या शायद बस वक़्त के साथ खड़ा।
नायरा ने अनजाने में नज़रें उठाईं।
उनकी आँखें फिर टकराईं।
कोई मुस्कुराहट नहीं, कोई हैरानी नहीं…
बस एक पल—जो फिर से ठहर गया था।
नायरा ने नज़रें चुरानी चाहीं, मगर उन आँखों की गहराई में कुछ ऐसा था, जो उसे बाँधे रखता।
अमन ने कोई बात नहीं की,
कोई इशारा नहीं दिया…
बस धीमे-धीमे क़दमों से वहां से गुज़र गया।
जैसे बीते वक़्त की कोई याद… जो दिल को छूकर निकल जाती है।
नायरा बस देखती रह गई—
और उसके पीछे उठती वो हल्की सी ख़ुशबू… जो न जाने क्यों, आज बहुत अपनी सी लग रही थी।
बस आई।
वो सवार हो गई, लेकिन उसकी धड़कनें… जैसे बस की रफ्तार से अलग, किसी और दिशा में दौड़ रही थीं।
उसने खुद से सवाल किया—
"ये कौन है...? और क्यों हर बार इसकी ख़ामोशी मुझे इतनी बेचैन कर जाती है?"
लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
शायद जवाब अभी लिखा जाना था… वक़्त की क़लम से।
जब नायरा घर पहुँची, तो उसका अंदाज़ अब भी सुबह जैसा ही था—ख़ामोश, उदास, और अजनबी सा।
हॉल में अब्बू और बुआ दादी बैठे थे।
वो चाहती तो कुछ पूछ सकते थे, रोक सकते थे...
मगर दोनों ही उसकी आँखों की उदासी को पढ़कर ख़ामोश रह गए।
नायरा बिना किसी को देखे, सीधे अपने कमरे की ओर बढ़ गई।
दरवाज़ा खोला और फिर दरवाज़े को उसी थकी हुई नज़र से बंद कर लिया… जैसे किसी लम्हे को अपने पीछे छोड़ रही हो।
अब्बू की साँसें लंबी हो गईं।
बुआ दादी ने एक तहरीक भरी नज़र से उन्हें देखा और उठ खड़ी हुईं।
“मैं बात करती हूँ उससे,” उन्होंने कहा।
वो नायरा के कमरे में पहुँचीं तो देखा— दरवाज़ा खुला था, लेकिन नायरा वहाँ नहीं थी।
बाथरूम का दरवाज़ा बंद था।
बुआ दादी ने एक गहरी साँस ली,
धीरे से कमरे में दाख़िल हुईं,
और नायरा के बिस्तर पर बैठ गईं।
हाथ में एक हल्के पीले रंग का लिफ़ाफ़ा था—जिसमें वो तस्वीर थी…
वही तस्वीर जो नायरा ने अब तक देखी नहीं थी।
उन्होंने तस्वीर को लिफ़ाफ़े से निकालकर अपने हाथ में लिया,
नर्म उंगलियों से उसके कोनों को सीधा किया,
और फिर उसे नायरा के तकिए के पास रख दिया।
फिर वो यूँ ही बैठ गईं—बिलकुल ख़ामोशी से… जैसे किसी अपने का इंतज़ार हो।
उनकी आँखों में वक़्त की थकावट थी, मगर उम्मीद की चमक भी थी।
चेहरे पर शिकन थी, मगर मोहब्बत भी।
“नायरा…”
उन्होंने धीमे से पुकारा, भले वो जानती थीं कि अभी जवाब नहीं मिलेगा।
“हम तुझ पर ज़ोर नहीं डालेंगे,”
उनकी आवाज़ में वो दर्द था, जो सिर्फ अपने खून को समझाते वक़्त आता है।
“मगर एक बार देख तो सही, तस्वीर में क्या रखा है... शायद सिर्फ एक चेहरा नहीं, एक मुक़द्दर हो।”
“तेरी माँ... मेरी नज़रों के सामने तुझमें ही ज़िंदा है बेटा।
और अब तू मेरी आँखों का वो सपना है, जिसे मैं खुली आँखों से पूरा देखना चाहती हूँ।”
बाथरूम में हल्की सी पानी की आवाज़ जारी थी,
और बुआ दादी की आँखें दरवाज़े की ओर टिकी थीं—
जैसे एक उम्मीद की डोर थामे बैठी हों।
बुआ दादी तस्वीर तकिए के पास रखकर कुछ पल यूँ ही बैठी रहीं।
कमरे की दीवारों पर पसरी ख़ामोशी अब बोझिल लगने लगी थी…
पलकों की कोरों में थकी हुई बेचैनी समा गई थी।
उन्होंने दरवाज़े की ओर देखा—
बाथरूम से अब भी पानी की धीमी आवाज़ आ रही थी।
“शायद आज भी कुछ नहीं बदलेगा…”
उन्होंने अपनी लरज़ती साँसों को थामते हुए सोचा।
धीरे से तस्वीर पर एक नज़र डाली—
और जैसे दिल से निकला हो कोई जुमला…
“कभी-कभी तस्वीरें भी जवाब नहीं देतीं… बस सवाल छोड़ जाती हैं।”
उनके क़दम अब बिस्तर से उठने लगे थे।
उम्र की थकान और दिल की मायूसी के साए में वो उठीं,
और एक बार फिर नायरा की तरफ देखा… जो अब भी दिखाई नहीं दे रही थी।
“ठीक है… ना सही आज,”
उन्होंने खुद से बुदबुदाते हुए दरवाज़े की तरफ रुख़ किया,
“लेकिन दिल की दुआ है, तू ख़ुश रहे… चाहे हमारे ख्वाब पूरे न हों।”
बुआ दादी बाहर चली गईं।
दरवाज़ा धीरे से बंद हुआ,
और कमरे में अब सिर्फ उस तस्वीर की ख़ामोशी रह गई—
जो अब भी तकिए के पास रखी थी,
किसी मुलाक़ात की राह देखती हुई।