रात का वक़्त था…
गली में लाइटें मद्धम थीं, और चाँद आसमान में अकेला खड़ा था —
जैसे किसी इंतज़ार में हो।
नायरा हल्के-हल्के क़दमों से अपने घर की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी।
दिन भर का थकान उसके चेहरे पर था, मगर आँखों में वही शरारती चमक कायम थी।
तभी दरवाज़े पर हलचल हुई—
सुल्ताना ख़ाला, अपने इत्र की महक के साथ बाहर निकल रही थीं।
बड़ी ही मुस्कराती हुई, लहजे में मिठास और चाल में जल्दबाज़ी।
"अरे नायरा बिटिया!" उन्होंने नायरा को देखा और दोनों हाथ दुआ के लिए उठाए—
"क़सम उस खुदा की, आज तो तुम्हारी शक्ल देख के लग रहा है जैसे चाँद ज़मीन पर उतर आया हो।"
नायरा ने हल्का सा सलाम किया और गर्दन झुका कर बोली—
"सलाम ख़ाला जान… आप फिर से कोई दुआ लेकर निकल रही हैं क्या?"
सुल्ताना ख़ाला ने आँख मारी—
"बिलकुल! एक नई तजवीज़ आई है… लड़का दुबई से पढ़ कर आया है, सलीक़ामंद, तमीज़दार, और सबसे बढ़कर… तिजारत में माहिर!"
नायरा ने हल्के से नाक सिकोड़ी—
"तो इस बार किसकी शादी पक्की करवा रही हैं? मेरी या मेरी पड़ोसन की?"
ख़ाला खिलखिलाईं—
"अभी तो तेरी ही फाइल ऊपर है बेटी… तू हाँ कर दे, तो अगले जुमेरात को मेहँदी लगवा दूँ!"
नायरा ने होंठ भींचे और धीमे से बुदबुदाई—
"मेहँदी से पहले… मैं अपनी डिग्री तो ले लूं…"
ख़ाला को उसकी बात सुनाई नहीं दी, या उन्होंने सुनकर भी अनसुना कर दिया।
"चलो बेटा, निकल रही हूँ, देर हो रही है। अल्लाह तुम्हें नेक नसीब दे!"
और वो फुर्ती से गली में मुड़ गईं।
नायरा दरवाज़े की चौखट लांघ कर अंदर दाख़िल हुई…
मगर अंदर की ख़ामोशी ने उसका इस्तक़बाल किया।
ड्राइंग रूम की रौशनी धीमी थी,
मगर चेहरों की संजीदगी साफ़ झलक रही थी।
अम्मी, अब्बू और दादी बुआ— सब एक गहरी बातचीत के बाद की सोच में डूबे थे।
बीच में मिठाई का डिब्बा, कुछ कार्ड्स और तह की हुई एक तस्वीर…
नायरा की आँखों ने सब पढ़ लिया—
और फिर उसका चेहरा हल्का सा कस गया।
"या अल्लाह… फिर वही मुद्दा?"
उसने अपने जूते उतारे, और चुपचाप हॉल में दाख़िल हो गई…
दादी बुआ की आवाज़ ने कमरे की ख़ामोशी तोड़ी…
"आ गई तू? आ, बैठ इधर।"
नायरा चुपचाप जाकर एक कोने में बैठ गई। उसके दिल में हलचल थी।
सामने उसकी अम्मी की नम आंखें, अब्बू का उतरा हुआ चेहरा और दादी बुआ की वो भारी सांसें।
"आप लोग फिर शुरू हो गए न?" नायरा ने हल्के गुस्से से कहा, "मैंने पहले भी कहा है, मुझे अभी शादी नहीं करनी।"
दादी बुआ ने अपनी ऐनक उतारी, अपने घुटनों पर रखी और बोलीं—
"तू जो भी कहे, मगर मैं अब और नहीं देख सकती।
तू जानती है ना, जब तेरी माँ आई थी इस घर में, तो मैंने इसे बेटी बनाया था।
आज मेरी एक ही आरज़ू है— तेरी शादी। फिर मैं चैन से अपनी क़ब्र की मिट्टी ओढ़ लूंगी।"
नायरा ने नज़रे चुराईं।
"दादी बुआ… ये कैसी बातें कर रही हैं आप?"
"बातें नहीं कर रही, नायरा बिटिया," अब्बू ने थके हुए लहजे में कहा, "ये वो दिन हैं जो हर बाप देखना चाहता है… अपनी बेटी का घर बसता देखना।"
अम्मी कुछ नहीं बोलीं, बस हाथ से दुपट्टा मोड़ती रहीं।
नायरा ने होंठ भींचे, फिर बुआ की ओर देखा।
दादी बुआ अब अपने पुराने संदूक़ की चाबी निकाल रही थीं।
"ये देख…" उन्होंने एक जोड़ी कांच की चूड़ियाँ निकालीं—
"तेरी माँ ने इन्हें अपनी शादी में पहना था… और कहा था, 'फपी जान, मेरी बेटी को देना।'
आज वो वक़्त आ गया है… और तू मुँह फुलाए बैठी है।"
नायरा की आँखें भर आईं… मगर उसका लहजा अब भी अड़ियल था—
"तो क्या बस इसी लिए पैदा हुई थी मैं? ताकि शादी करके किसी के घर चली जाऊं?
आप लोगों को मेरी पढ़ाई, मेरे ख्वाब… कुछ भी नहीं दिखता?"
दादी बुआ की आँखें भी अबगीर थीं—
"तेरे ख्वाबों से इनकार नहीं है, पर ज़िन्दगी अकेले नहीं कटती बेटी…
हम तेरा बोझ नहीं बाँटना चाहते, बस तेरा साथ किसी के हवाले करना चाहते हैं।"
कुछ देर कमरे में फिर वही ख़ामोशी छा गई।
नायरा उठी, और बिना कुछ कहे अंदर चली गई…
उसकी आँखें गीली थीं, और दिल बहुत भारी…