अवनि और युग दोनों कॉफी शॉप से बाहर निकल चुके थे। रात ठंडी थी, हवा में एक अजीब सी नमी थी, जैसे आसमान खुद भी कुछ महसूस कर रहा हो। सड़कें सुनसान थीं, लेकिन उन दोनों के बीच बातें चलती रहीं।
"तुम्हारा घर यहीं पास में है?" युग ने चलते हुए पूछा।
"हां, पांच मिनट की दूरी पर," अवनि ने कहा।
"अकेली रहती हो?"
"हां… और अब आदत भी हो गई है।"
युग कुछ देर चुप रहा।
"तुम्हें अकेलापन पसंद है?" उसने फिर पूछा।
अवनि रुकी, और एक फीकी हँसी के साथ बोली—"कभी पसंद नहीं किया… बस, मंज़ूरी दे दी। जब कोई साथ न हो, तो अकेलापन मजबूरी नहीं, आदत बन जाता है।"
युग ने उसकी ओर देखा। कुछ था इस लड़की में—कमज़ोर नहीं थी वो, लेकिन टूटी थी, और फिर भी खुद को जोड़कर जी रही थी।
“कभी किसी ने तुम्हें गले लगाया है… बिना किसी मतलब के?” युग की आवाज़ में एक हल्की सी कम्पन थी।
अवनि चौंकी। सवाल सीधा था, लेकिन जवाब उसकी रूह में कहीं गहरे दफ़्न था।
“बहुत साल हो गए,” उसने धीरे से कहा, “जब माँ गई थी… तब शायद आखिरी बार।”
युग ने कुछ नहीं कहा। बस हल्के से कदम बढ़ाए, और अवनि के बिल्कुल सामने आकर रुक गया।
"क्या मैं वो खालीपन भर सकता हूँ?" उसने पूछा, "बस कुछ पलों के लिए?"
अवनि की आंखें भर आईं। वो चाहती थी खुद को संभाले, मगर जिस तरह युग ने बिना शब्दों के उसके दर्द को समझा, उसने उसके अंदर की सारी दीवारें गिरा दीं।
वो धीरे से आगे बढ़ी और युग के सीने से लग गई।
पहली बार उसने किसी की बाहों में खुद को हल्का महसूस किया।
युग ने बहुत धीरे से, बहुत सलीके से उसे थामा… न ज़्यादा कस कर, न कम। बस उतना कि वो टूटे ना।
कुछ पल तक कोई कुछ नहीं बोला। दो इंसान, दो अधूरी कहानियाँ, एक-दूसरे में थोड़ा सुकून तलाश रही थीं।
फिर अचानक अवनि अलग हुई।
"सॉरी," उसने आंखें पोंछते हुए कहा, "मुझे नहीं पता था कि मैं ऐसा कर बैठूंगी।"
युग ने सिर हिलाया, "तुमने कुछ गलत नहीं किया। किसी का सहारा लेना कमजोरी नहीं है।"
अवनि उसके साथ चलने लगी। रास्ते भर दोनों चुप रहे, लेकिन खामोशी बोझिल नहीं थी। वो खामोशी, जो सिर्फ अपनेपन में होती है।
अवनि ने जैसे ही अपने अपार्टमेंट का दरवाज़ा खोला, युग रुक गया।
"अंदर आओगे?" उसने हिचकते हुए पूछा।
युग मुस्कुराया। "आज नहीं… आज तुम्हें अकेले सोना है। लेकिन वादा है, अगली बार मैं तुम्हारी लाइब्रेरी की किताबों की जगह बनूंगा—वहीं रहूंगा, चुपचाप… और हमेशा पास।"
अवनि हँस दी। "किताबों से लगाव है तुम्हें?"
"बहुत," युग ने आंखें झपकाई, "और अब शायद एक कहानी से भी… जिसका नाम है अवनि।"
अवनि का दिल धड़क उठा।
युग धीरे से मुड़ा, कुछ कदम चला… फिर पीछे पलटा और कहा—
"तुम्हें नींद नहीं आए, तो मुझे कॉल करना। खामोशी में भी साथ देने आता हूं मैं।"
अवनि ने सिर हिलाया।
दरवाज़ा बंद होते ही वो उस पर पीठ टिकाकर बैठ गई… आँखें बंद करके मुस्कुरा दी।
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उसी रात, युग का महलनुमा बंगला –
युग के हाथ में एक पुरानी चिट्ठी थी। वो उसे बार-बार पढ़ रहा था। उस चिट्ठी में किसी औरत की लिखावट थी—
"तुम जो भी बनो बेटा, लेकिन इंसानियत मत खोना। जिस दिन किसी के आंसू देखकर तुम्हारा दिल न कांपे, उस दिन खुद को रोक लेना।"
युग की आंखें नम हो गईं।
"माँ, आज पहली बार किसी की आंखों में खुद को देखा है… शायद मैं अब बदलना चाहता हूं।"
तभी उसका फोन बजा। स्क्रीन पर नाम था – Avni
उसने फौरन कॉल उठाया।
"नींद नहीं आ रही," अवनि ने धीमे से कहा।
"मैं भी जगा हूँ," युग ने जवाब दिया, "चलो, आज रात चाँदनी से बातें करते हैं।"
और यूं, दो टूटे लोग… एक-दूसरे के साथ चुपचाप जागते रहे—कभी शब्दों में, कभी खामोशी में।
उन दोनो की ही पता था की उनके बिच क्या चल राहा था लेकीन दोनो ने कभी काहा ही नही शायद जरुरत ही नहीं थी.
उनका दिल जानता था की उनके दिल मे क्या है...
यूग ने सोच लिया था!
की अब उसको क्या करना है
अब आगे क्या होगा जानने के लिए जूडे रहीऐ इस काहानी के साथ सनम जसको लिखा है शिखा दास ने