कमरे में एक गहराई सी खामोशी थी। सिर्फ दो लोगों की साँसों की आवाज़ें — धीमी, भारी और एक-दूसरे में उलझी हुई।
मीरा अब रणविजय की बाँहों में थी, और रणविजय उसके बेहद करीब। उनके बीच की दूरी जैसे खुद हवा ने भी खत्म कर दी थी। मीरा की साँसें अब तेज़ चलने लगी थीं, लेकिन डर से नहीं…ये एक नई अनुभूति थी — किसी के इतने पास आने की, किसी को इतने हक से छू लेने की।
रणविजय ने मीरा की आंखों में देखा जैसे किसी बात पर मीरा की सहमति मांग रहा हो, मीरा ने आंखों ही आंखों में वो सहमति रणविजय को दिखा दी।
रणविजय का हाथ धीरे से मीरा की पीठ पर फिसला, जैसे वो उसकी हर थकान, हर दर्द को मिटा देना चाहता हो।
उसकी उँगलियाँ मीरा की कमर पर थम गईं — न सख़्त, न मजबूर…बस इतनी हल्की कि मीरा की रूह तक सिहर उठी।
मीरा की आँखें अब बंद हो रही थीं, पर दिल की धड़कनें तेज़ होती जा रही थीं। उसने खुद को रणविजय के सीने से और कस लिया, जैसे वो अब और कुछ भी नहीं सुनना चाहती थी,सिवाय उसके दिल की धड़कनों के।
रणविजय ने मीरा के गाल को अपनी उँगलियों से सहलाया। वो पल कुछ ऐसा था जो शब्दों से परे था —मीरा की आँखें अब उसके होठों से कुछ ही दूरी पर थीं, और रणविजय का चेहरा उसकी साँसों में मिल चुका था।
मीरा ने अपनी आँखें खोल कर उसे देखा,और पहली बार, कोई डर नहीं था… कोई दूरी नहीं थी…सिर्फ एक एहसास था- अपनेपन का। वो अपनापन जो मीरा को कभी किसी से मिला ही नहीं।
रणविजय ने धीमे से फुसफुसाया,"तुम मुझे अधूरा नहीं रहने दोगी न?"मीरा कुछ नहीं बोली, बस अपनी पेशानी( माथा) उसकी पेशानी से टिका दी।
वो एक-दूसरे के इतने करीब थे, कि अगर एक भी साँस और चलती, तो शायद सब बदल जाता। रणविजय का चेहरा अब मीरा के चेहरे के बेहद पास था —उनकी आँखें बंद थीं, और उनकी साँसें एक-दूसरे में घुल रही थीं।
मीरा की उँगलियाँ रणविजय की गर्दन से होती हुई उसके बालों तक पहुँच गई थीं,और रणविजय की हथेली अब मीरा की पीठ पर पूरी तरह थमी हुई थी।एक क्षण और…एक साँस और…और शायद वक़्त वहीं रुक जाता…
लेकिन तभी
ठक-ठक-ठक!
दरवाज़े पर खटखटाहट हुई। किसी ने धीरे लेकिन जोर देकर दरवाज़ा खटखटाया। दोनों जैसे एकदम चौंक उठे। मीरा ने झट से खुद को थोड़ा पीछे किया, और रणविजय ने हल्की-सी नजर झुकाई —न शर्म से, बल्कि उस पल को अधूरा छोड़ देने की कसक से।
"कौन?" रणविजय ने गुस्से में पूछा।
" Sorry बॉस, but it's urgent"
मीरा ने धीरे से अपना दुप्पटा ठीक किया , और रणविजय ने उसकी ओर देखा —उसकी नज़रें अब भी उसी मीरा पर टिकी थीं, जो कुछ पलों पहले उसकी रूह से बात कर रही थी।
मीरा और रणविजय अब एक-दूसरे से थोड़ा दूर हो चुके थे, लेकिन उस पल की गर्मी… वो अब भी कमरे में बाकी थी। जो होना था, वो शायद फिर कभी होगा…लेकिन आज —उनकी नज़रों ने वो कह दिया, जिसे लफ्ज़ कभी कह नहीं सकते थे।
रणविजय उठा और मीरा की ओर बढ़ा, मीरा की धड़कनें फिर से तेज हो गई। रणविजय ने मीरा का चेहरा अपने दोनों हाथों से पकड़ा और मीरा के माथे पर अपने होंठ रख दिए।
मीरा उस पल में अपनी life की सारी problems, सारे दुःख, अकेलापन, सब भूल गई थी। उसकी आंखों से बस एक मोती की तरह आंसू गिरा। वो आसूं किसी दुख, या कोई गलती का नहीं था, बल्कि एक सुकून का था। जो सुकून आज रणविजय उसे दे गया.......