Mera Rakshak - 10 in Hindi Fiction Stories by ekshayra books and stories PDF | मेरा रक्षक - भाग 10

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मेरा रक्षक - भाग 10

10. सुकून की नींद

 

मीरा उसे एकटक देखती रही। वो चेहरा जिसे पूरी दुनिया ‘खौफ’ कहती थी, आज किसी भूले हुए बच्चे सा लग रहा था — मासूम, टूटा हुआ, और बहुत थका हुआ।

 

 

 
मीरा की पलकों पर अब नींद की परछाइयाँ उतरने लगी थीं। रात भर की थकावट, उस कमरे का सन्नाटा, और रणविजय की गर्म साँसे — सबने मिलकर उसे भी अपनी बाहों में भर लिया।
 
 
 
उसने धीमे से अपना हाथ रणविजय के सिर पर रखा, और खुद भी उसके बगल में लेट गई।
 
 
वो रणविजय को अपनी बाँहों में समेटते हुए, उसके सीने से खुद को सटा चुकी थी।
उसकी एक बाँह रणविजय की पीठ के चारों ओर गई, और दूसरी रणविजय के बालों में उलझ गई।
 
 
 
उसने पहली बार किसी को इतनी नजदीकी से महसूस किया था… इतनी बेझिझक, इतनी सच्चाई से।
 
 
 
रणविजय अब उसके सीने से लगा था, और मीरा उसकी साँसों की लय में खोने लगी थी।
 
 
 
धीरे-धीरे उसकी आँखें भी बंद होने लगीं।
उसने खुद से कुछ नहीं पूछा, कोई सवाल नहीं उठाया — क्योंकि उस वक़्त उसकी सोच नहीं, उसका दिल जाग रहा था।
और दिल को जवाब नहीं चाहिए होता, बस एहसास चाहिए होता है।
 
 
 
बाहर अब हल्की सुबह की रौशनी दस्तक दे रही थी।
पर उस कमरे में दो दिल… एक-दूसरे की गर्मी में खोकर, एक-दूसरे की टूटी हुई रूह को जोड़ते हुए… चैन से सो रहे थे।
 
 
कमरे में अब भी नर्म सन्नाटा पसरा था।
बाहर सूरज की किरणें धूप बनने से पहले, खिड़की की सलाखों से होकर बिखर रही थीं… लेकिन उस पल के आगे हर रौशनी फीकी थी।
 
 
 
मीरा और रणविजय एक-दूसरे में पूरी तरह से समाए हुए थे — जैसे दो बिखरे हुए पन्ने, जो अब एक ही कहानी का हिस्सा बन चुके थे।
 
 
मीरा की उंगलियाँ अब भी रणविजय के बालों में थीं, हल्की-हल्की सी मुड़ी हुईं — जैसे उसने जाने-अनजाने उसे थाम लिया हो।
उसका चेहरा रणविजय के बालों के पास था… उसकी साँसें रणविजय की गर्दन पर बह रही थीं, और वो गर्माहट रणविजय के सीने में एक गूंज की तरह उतर रही थी।
 
 
 
रणविजय मीरा के सीने पर सिर टिकाए, उसकी दिल की धड़कनों में खोया हुआ था —
एक लय, एक नर्म सी धुन, जो उसे सुकून दे रही थी…
जिसके लिए वो बचपन से तरसता आया था — एक ऐसी धड़कन जो सिर्फ उसके लिए हो, बिना डर, बिना शर्त।
 
 
 
बिस्तर पर पड़े हुए दोनों जिस्म एक-दूसरे के इतने करीब थे कि उनके बीच की सारी सीमाएं मिट चुकी थीं।
सिर्फ मीरा और रणविजय नहीं थे वहाँ — वहाँ दो अधूरी रूहें थीं, जो एक-दूसरे में पूरा होने की कोशिश कर रही थीं उनके बिना जाने ही।
 
 
मीरा की एक साँस रणविजय के कान के पास ठहर गई… और उसने नींद में ही खुद को मीरा से और कसकर लपेट लिया।
 
 
अब उसकी बाहें मीरा की कमर के चारों ओर थीं —
हल्की सी पकड़, लेकिन उसके अंदर एक गहरी सी कसक थी, जैसे वो कह रहा हो —
"मत जाना अब… तुम मेरे पास हो अब… तूम ही सुकून हो मेरा…"
 
 
मीरा ने नींद में ही हल्की सी मुस्कान दी… उसका चेहरा अब रणविजय की गर्दन के पास खिसक आया था…
उसके होंठों से कुछ नहीं निकला, लेकिन उस खामोशी में भी एक सहमती थी, अपनापन था।
 
 
उन दोनों की साँसें एक हो चुकी थीं।
एक गहरी साँस मीरा की आती, तो उसी लय में रणविजय की जाती…
मानो जैसे वो दोनों एक-दूसरे के अंदर साँस लेकर जी रहे हों।
 
 
कमरे का तापमान धीरे-धीरे ऊपर जा रहा था,
लेकिन असली गर्मी तो उस बिस्तर पर फैली थी — उस अहसास की गर्मी,
जिसमें दो दिल, दो जिस्म और दो कहानियाँ — सब एक दूसरे में सिमट चुकी थीं।
 
 
वो सिर्फ साथ नहीं सो रहे थे…
वो पहली बार किसी को ओढ़कर सोए थे।
 
 
रणविजय के होंठ मीरा के कंधे से लगे हुए थे, और उसके नथुनों से उठती मीरा की महक उसे बेहोश कर रही थी —
वो अब न माफिया था, न पत्थरदिल…
वो सिर्फ एक टूटे हुए लड़के की तरह था, जो अपनी पूरी दुनिया को अपनी बाहों में समेटकर सो रहा था।
 
 
मीरा अब रणविजय के एक हाथ को अपनी छाती के पास पकड़ चुकी थी, जैसे उसे यकीन था कि ये हाथ अब कभी उसे गिरने नहीं देगा।
 
 
और सुबह की रौशनी जैसे उन दोनों पर पड़ते ही रुक गई हो…
क्योंकि उस कमरे में, उस पल में…
वक्त थम गया था।