भाग 1: पहली निगाह
मदरसे के सहन में, जहाँ बचपन की बेफिक्रियाँ रक़्स करती थीं, आरिफ़ की निगाहें अक्सर एक नूरानी चेहरे पर ठहर जाती थीं - ज़ोया। ज़ोया, अपनी हया और सादगी में बे-मिसाल थी। आरिफ़, जो अपनी खामोशी और कम-सुख़नी के लिए जाना जाता था, उसकी एक झलक पाने के लिए बेक़रार रहता। वह घंटों कुतुबखाने में किताबों के पीछे छुपकर उसे देखता, उसकी पुर-कशिश हँसी सुनने के लिए तरसता। लेकिन कभी यार-ए-जिगर न जुटा पाया कि दो लफ़्ज़ उससे कह सके।
ज़ोया भी, अपनी निगाहें चुराती हुई, आरिफ़ की मौजूदगी को महसूस करती थी। उसकी संजीदगी और गहरी आँखें उसे कुछ ख़ास लगती थीं। वह चाहती थी कि वह उससे गुफ़्तगू करे, अपने दिल की बात कहे, मगर उसकी ज़बान भी शायद किसी ना-मालूम बंदिश में जकड़ी हुई थी।
दोनों के दिल में एक ना-कही दास्तान पल रही थी, हर गुज़रते दिन के साथ गहरा होती हुई। मदरसे की रंगीनियाँ, अहबाब की महफ़िलें, सब कुछ उनके लिए बे-मानी था जब तक उनकी निगाहें एक दूसरे से न टकरा जातीं। वे एक दूसरे की खामोशियों को सुनते थे, ना-गुफ़्ता बातों को समझते थे।
एक रोज़, मदरसे की विदाई तक़रीब में, आरिफ़ ने ज़ोया को दूर से देखा। वह एक रेशमी लिबास में माह-ए-तमाम लग रही थी। आरिफ़ का दिल ज़ोर से धड़का। आज वह अपनी सारी हिम्मत जुम्बिश में लाकर उससे अपने दिल की बात कह देगा। वह उसकी तरफ़ बढ़ा, उसके लबों पर अल्फ़ाज़ मचल रहे थे...
भाग का इख़्तिताम: क्या आरिफ़ अपने दिल की बात ज़ोया से कह पाएगा? या फिर वक़्त उन्हें एक बार फिर ख़ामोश कर देगा?
भाग 2: राज़-ए-दिल
आरिफ़ जब ज़ोया के क़रीब पहुँचा, तो उसके क़दम लड़खड़ा गए। उसके लबों पर आए हुए अल्फ़ाज़ हलक़ में ही दम तोड़ गए। उसे लगा जैसे सारी दुनिया की निगाहें उन्हीं पर टिकी हैं। वह कुछ कहना चाहता था, मगर सिर्फ़ एक हल्की सी तबस्सुम उसके रुख़सार पर आकर रह गई।
ज़ोया ने उसकी आँखों में देखा। उसने आरिफ़ के दिल की बेचैनी को महसूस किया। वह भी कुछ कहना चाहती थी, उसके दिल में भी जज़्बात का तूफ़ान उठ रहा था, मगर एक ना-आश्ना हया ने उसकी ज़बान को बंद कर दिया।
विदाई तक़रीब की रौनक अपने उरूज पर थी। मौसिक़ी बज रही थी, लोग हँस रहे थे, मगर आरिफ़ और ज़ोया एक दूसरे की निगाहों में खोए हुए थे। उनकी खामोशी भी एक कहानी कह रही थी, एक ऐसी कहानी जिसमें लफ़्ज़ नहीं, सिर्फ़ एहसासात थे।
शब ढल गई, और मदरसे के वह हसीन दिन यादों में बदल गए। आरिफ़ और ज़ोया जुदा राहों पर चल दिए, लेकिन उनके दिल एक ना-दीदा धागे से बंधे रहे। आरिफ़ ने कॉलेज में दाखिला लिया, और ज़ोया ने भी अपनी आगे की तालीम शुरू की। ज़िंदगी की रफ़्तार तेज़ हो गई, लेकिन उनके दिल में वह पहला एहसास आज भी ताज़ा था।
कभी कभार, उनकी निगाहें किसी ना-मालूम मोड़ पर टकरा जातीं। एक हल्की सी तबस्सुम, एक लम्हा भर का नज़राना, और फिर वे अपनी अपनी दुनिया में लौट जाते। आरिफ़ आज भी उसी तरह कम-सुख़न था, और ज़ोया आज भी उसी हया में लिपटी हुई थी।
कॉलेज के एक जलसे में, आरिफ़ ने ज़ोया को किसी और के साथ गुफ़्तगू करते हुए देखा। उसके दिल में एक हल्की सी रश्क महसूस हुई। वह चाहता था कि ज़ोया सिर्फ़ उससे बात करे, सिर्फ़ उसकी तरफ़ देखे। लेकिन वह यह बात कभी कह नहीं पाया।
जलसे के आख़िर में, जब सब लोग जा रहे थे, आरिफ़ और ज़ोया एक बार फिर रू-ब-रू आ गए। ज़ोया की आँखों में नमी थी। उसने आरिफ़ की तरफ़ देखा और आहिस्ता आवाज़ में कहा, "मुझे तुमसे कुछ अर्ज़ करना है..."
भाग का इख़्तिताम: क्या ज़ोया अपने दिल की बात आरिफ़ से कह देगी? क्या उनकी ना-कही दास्तान अब कोई करवट लेगी?