भाग 5: इक़रार
आरिफ़ और ज़ोया एक दूसरे को देखते रहे, उनकी आँखें उनके दिल की दास्तान बयाँ कर रही थीं। आरिफ़ ने आगे बढ़कर ज़ोया का हाथ अपने हाथों में लिया। उसके लम्स से दोनों के दिलों में एक लहर सी दौड़ गई।
"ज़ोया," आरिफ़ ने आहिस्ता आवाज़ में कहा, "मैं... मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाया। मेरी ज़िंदगी का हर लम्हा तुम्हारी यादों से मामूर रहा।"
ज़ोया की आँखों से अश्क बहने लगे। "आरिफ़," उसने भरे गले से कहा, "मैंने भी तुम्हें कभी नहीं भुलाया। तुम... तुम मेरी पहली और आख़िरी मोहब्बत हो।"
उनकी खामोशी में भी एक दूसरे के लिए बे-पनाह इश्क़ झलक रहा था। वे बचपन के वह दिन याद करने लगे जब उनकी निगाहें मदरसे के सहन में टकराती थीं, कुतुबखाने में छुपकर एक दूसरे को देखते थे, और विदाई तक़रीब की वह शब जब उनके दिल की बात अधूरी रह गई थी।
"अगर... अगर मैंने उस दिन अपने दिल की बात कह दी होती तो..." आरिफ़ ने अफ़सोस से कहा।
"शायद," ज़ोया ने मुसकुराकर कहा, "लेकिन शायद हमारी तक़दीर में यह दूरी लिखी थी, ताकि हम अपनी उल्फ़त की क़द्र करना सीख सकें।"
दोनों ने बहुत देर तक गुफ़्तगू की। अपने दिलों के सारे ग़म और शिकवे बयान किए। उन्हें एहसास हुआ कि वक़्त ने उन्हें दूर ज़रूर किया था, लेकिन उनके दिलों के रिश्ते को और मज़बूत बना दिया था।
आरिफ़ ने ज़ोया से पूछा, "क्या... क्या अब भी कोई उम्मीद है, ज़ोया?"
ज़ोया ने आरिफ़ की आँखों में देखा और मुसकुराकर कहा, "हाँ, आरिफ़। अभी तो पूरी ज़िंदगी बाकी है।"
उस दिन के बाद, आरिफ़ और ज़ोया ने फिर से अपनी ज़िंदगी की शुरुआत की। वे अपने बच्चों का ख़याल रखते थे और एक दूसरे को वक़्त देते थे। उनकी उल्फ़त अब बचपन की नादानी नहीं थी, बल्कि वक़्त के साथ पुख़्ता हुई एक गहरी डोर थी।
एक शाम, जब माहताब रौशन था, आरिफ़ ने ज़ोया को अपने दिल की बात फिर से कही। इस बार उसके लबों पर कोई हिचकिचाहट नहीं थी, बल्कि बे-पनाह इश्क़ का इज़हार था।
"ज़ोया," उसने कहा, "मैं तुमसे बे-इंतिहा मोहब्बत करता हूँ। क्या तुम... क्या तुम मेरी ज़िंदगी की हमसफ़र बनोगी?"
ज़ोया की आँखों में अश्क थे, लेकिन यह अश्क ख़ुशी के थे। उसने आरिफ़ का हाथ अपने हाथों में लिया और कहा, "हाँ, आरिफ़। मैं हमेशा तुम्हारी थी और हमेशा रहूँगी।"
भाग का इख़्तिताम: क्या आरिफ़ और ज़ोया अपनी ना-मुकम्मल उल्फ़त को मुकम्मल कर पाएँगे? क्या उनकी ज़िंदगी में अब हमेशा खुशियाँ रहेंगी?
भाग 6: फ़ना (विनाश)
आरिफ़ और ज़ोया के इक़रार के बाद, उनकी ज़िंदगी में एक सुकून का दौर आया। उनके बच्चे भी उनके रिश्ते को कुबूल कर चुके थे और उन्हें एक साथ देखकर खुश थे। आरिफ़ ने ज़ोया के बच्चों को अपनी जान से ज़्यादा चाहा और ज़ोया ने आरिफ़ की तन्हा ज़िंदगी में मोहब्बत का नूर भर दिया।
उन्होंने एक सादा सी तक़रीब में निकाह कर लिया। उनकी आँखों में एक दूसरे के लिए बे-इंतिहा प्यार था, जो हर देखने वाले के दिल को छू जाता था। उन्होंने एक साथ हसीन लम्हे गुज़ारे, बच्चों की परवरिश की और एक दूसरे के हमदम बने रहे।
लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। ज़ोया की सेहत अचानक बिगड़ने लगी। पहले तो मामूली तकलीफ़ हुई, लेकिन वक़्त के साथ बीमारी बढ़ती गई और उसने ज़ोया को बिस्तर से लगा दिया। आरिफ़ हर पल उसकी खिदमत में लगा रहता, उसकी हर ज़रूरत का ख़याल रखता। उसकी आँखों में ज़ोया को खोने का डर साफ़ नज़र आता था।
एक सर्द शाम, जब आरिफ़ ज़ोया के पास बैठा उसका हाथ थामे हुए था, ज़ोया ने कमज़ोर आवाज़ में उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी और सुकून का मिला-जुला भाव था।
"आरिफ़," ज़ोया ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ में एक दर्द छुपा हुआ था, "बहुत देर हो गई है..."
आरिफ़ का दिल एक पल के लिए बैठ गया। वह उसकी आँखों में देखता रहा, जैसे उसकी बात का मतलब समझने की कोशिश कर रहा हो। उसके लबों पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।
ज़ोया ने एक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ उसकी उंगलियों को दबाया। "मैंने तुमसे अपनी ज़िंदगी का सबसे हसीन हिस्सा जिया है, आरिफ़। तुम्हारे प्यार ने मुझे हर मुश्किल का सामना करने की ताक़त दी। लेकिन अब... अब मेरा वक़्त करीब आ गया है।"
आरिफ़ की आँखों से बे-इख़्तियार आँसू बहने लगे। "नहीं, ज़ोया... ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगा। हम अभी-अभी तो एक हुए हैं..." उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
ज़ोया ने अपना दूसरा हाथ उसके चेहरे पर रखा। उसकी छुअन में बे-पनाह मोहब्बत और तसल्ली थी। "तुम्हें मज़बूत रहना होगा, आरिफ़। हमारे बच्चों के लिए... और मेरी यादों के लिए। मैं हमेशा तुम्हारे दिल में रहूँगी।"
अगले कुछ दिनों में ज़ोया की हालत और नाज़ुक हो गई। आरिफ़ हर वक़्त उसके पास बैठा रहता, उसकी पसंदीदा नज़्में सुनाता और अपनी अनकही उल्फ़त का इज़हार करता। आख़िरकार, एक सुबह, ज़ोया ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
ज़ोया के जाने के बाद आरिफ़ की ज़िंदगी में एक गहरा सन्नाटा छा गया। वह तन्हा और बे-जान महसूस करने लगा। घर, जो कभी उनकी मोहब्बत से गुलज़ार रहता था, अब उसकी यादों से भरा एक वीरान ठिकाना बन गया था।
हर शुक्रवार, आरिफ़ ज़ोया की कब्र पर जाता। वह घंटों वहाँ बैठा रहता, उससे बातें करता, अपने दिल का हाल बयान करता। कब्र पर हमेशा ताज़े फूल रखे होते थे, जो उसकी बे-पनाह मोहब्बत की गवाही देते थे।
वक़्त गुज़रता गया, आरिफ़ बूढ़ा हो गया, लेकिन ज़ोया की याद उसके दिल से कभी धुंधली नहीं हुई। उसकी कब्र उसकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन गई थी, जहाँ वह अपनी प्यारी ज़ोया से मिलने जाता था। उसकी आँखों में आज भी वही उल्फ़त झलकती थी, जो कभी मदरसे के सहन में पनपी थी।
आरिफ़ की कहानी एक ऐसी कहानी बन गई, जो बताती है कि सच्ची मोहब्बत मौत के बाद भी ज़िंदा रहती है और बिछड़ने का दर्द कभी कम नहीं होता, बस उसे सहने की आदत पड़ जाती है।
दास्तान का इख़्तिताम: आरिफ़ अपनी आख़िरी साँस तक ज़ोया की कब्र पर जाता रहा। उनकी अधूरी मोहब्बत एक दर्दनाक दास्तान बन गई, जो यह सिखाती है कि कभी-कभी सच्ची उल्फ़त भी वक़्त के आगे बेबस हो जाती है, और रह जाती हैं तो बस यादें, जो हमेशा दिल को छलनी करती रहती हैं।