हनुमत हांक -परिचय व समीक्षा 3
हनुमत हांक' बलदेव दास जी द्वारा लिखी गई बड़ी महत्वपूर्ण पुस्तक है । यद्यपि यह सामान्य रूप से सब जगह नहीं पाई जाती, मंदिरों, बड़े पुस्तकालयों और पुस्तक विक्रेताओं से मांगने पर भी इसे पाना अतिदुष्कर है बलदेव दास जी का जन्म ग्राम खटवारा जिला बांदा उत्तर प्रदेश में संवत 1908 में हुआ।वे भाई थे। बलदेव दास जी के पिता का नाम लाल सुखनंदन उपनाम सुखदेव था। हनुमान जी की भक्ति के ग्रन्थों सहित कुल मिलाकर लगभग 35 ग्रँथों का प्राणायाम आचार्य बलदेव दास जी ने किया जिनमें से कुछ पुस्तक प्रकाशित हुई हैं।
बलदेव दास हनुमान भक्त बड़े कवि थे। उन्हें कहीं महात्मा कहकर संबोधित किया गया तो कहीं आचार्य कहकर। उन्होंने हनुमान जी की प्रशंसा में अनेक ग्रंथ लिखे। दरअसल वे छन्द विदा में लिखे जाने वाले काव्य के मर्मज्ञ थे। भक्ति को जब काव्य का सहारा प्राप्त होता है तो भक्ति काव्य शिल्पो व कविता के रूपों को मंत्र और श्लोक बना देती है । ऐसा ही बलदेव दास जी के तमाम हनुमान भक्ति के छंदों के साथ हुआ। प्रस्तुत पुस्तक प्रस्तुत पुस्तक हनुमत हांक में दोहा, कविता, सवैया,घनाक्षरी मिलाकर कुल 71 छंद सम्मिलित हैं इनमें अनुप्रास अलंकार की अद्भुत छटा हैं ।अनुप्रास, मालोपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक जैसे अलंकार भी उनके इस काव्य खजाने में काव्य कोश में विराजमान है। उनके हनुमत हांक ग्रंथ का भी अनेक लोग भक्ति भाव से पाठ करते हैं। तो कुछ लोग तांत्रिक प्रयोग में भी इस ग्रंथ का पाठ करते हैं वश्री हनुमान जी द्वारा किए गए समस्त राम कार्य, राम की सेवा के कार्य हनुमत हांक में आए हैं। हनुमान जी की हांक की वंदना करने वाले हनुमान जी के संपूर्ण बदन का वर्णन करने वाले श्री बलदेव दास जी का यह ग्रंथ मेरे इस कथन की पुष्टि करेगा। इस हेतु कुछ छंदों को मैं उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ
२३
सागरके मौज इव कपिनकी फौज बढी लंक गढ घेरि कै घटासे घहरतहै ।
उतै रात्रिचरन की चमू चतुरंग कढी बाजत जुझाऊ त्यों पताके फहरत हैं ॥
जैति दशशीश जैति कोशल अधीश कहि भिरे कीश राक्षसके रोष छहरत है।
गाजे महावीर बलदेव जो गंभीर गाज भाजे रिपु भीर रणमें न ठहरतहै ॥३१॥
केते बीर फारे केते अंग मलि डारे किते पुहुमि पछारे अधमारे कहरत हैं।
केते राम मारे केते लषण संहारे देखि कादर बिचारे अस्त्र डारि डहरत हैं ॥
केते उडें मुंड केते धावें रुंड झुंड केते परे रक्त कुंड लाल नद्दी लहरत हैं।
गाजे महावीर बलदेव जो गंभीर गाज भाजे रिपु भीर रणमें न ठहरत हैं ॥३२॥
२४
हनू मान अंगद सुजान बलवान दोनौ चढे गढ क्रोधानल झार झहरत है ।
खंभन कंगूरन को खेंचत लंगूरनसे हहलै महल दहलानै भहरतहै ॥
ऊँट गज बाजि बंधे भाजि न सकत छोर शोर करि चारों ओर चौंकि थहरतहैं।
गाजे महावीर बलदेव जो गंभीर गाज भाजे रिपु भीर रणमें न ठहरतहैं ३३ ॥
धरु धरु मारु उरु फारु रे उपारु भुज खोर खोर शोर कार शूर विहरतु हैं।
सुनि सुनि भीरु परै लुत्थनके युत्थ साथ केते दुरे भीतर से नाहिं बहरत हैं ॥
हाटक अटारी चढी डरपि विचारि नारि समर निहारि हिये हारि हहरतहैं।
गाजे महा-वीर बलदेव जो गंभीर गाज भाजे रिपु भीर रणमें न ठहरतहैं ॥ ३४॥
हनुमतहांक ।
२५
लरचो मेघनाद जब लषण के मारयो शक्ति मूर्छित परयो सो छिति देह विसराइके ।
कोटिन विकट भट निकट में आये झट झपटि उठावें शठ हटिगे उठाइके ॥
देखि बलदेव हनुमान बलवान धाइ पटके झटित तिन्हें हटकि हटाइके ।
सुमन समान लैके विनहि प्रयास दास निपट उदास प्रभु पास धरयो ल्याइ के ॥ ३५ ॥
लषण लला को लखि चषन चले हैं आंसु झखन लगे हैं राम सखन बुलाइ कै ।
बोले जामवंत लंक वस-त सुषेन वैद्य भवन समेत आन्यो हनुमंत धाइके ॥
नाम गिरि औषधिको भाष्यो भेद राख्यो यह लक्ष्मण तो जीहें ल्यावे रातिहि जो जाइके।
कारण कठिन जान शोचें करुणानिधान रक्षै कौन प्राण बल-देव द्रुत ल्याइ के ॥ ३६ ॥
२६
कोऊ कहै ह्यांते शैल साठ लाख योजन पे जाते जात बीती राति प्रात तहँ जैहों में।
कोउ कहै सूर्य कढे कोऊ कहै दिन चढे कोउ कहै बेला ढरे बूटी हेरि लेहों मैं ॥
कोऊ कुहै आधे पै तिहाव कोऊ चौथईपै होत भिनसार वहि पार लगि ऐहों मैं ।
कोऊ बलदेव कहै आवत भरे मे इहां सागर पे ह्वे है भोर केत्यो जोर धैहों में ॥३७॥
वीरन के बैन सुनि सजल सरोजनैन बोले करुणा के ऐन जोहि हनुमानको ।
पदुम अठारा जूथपाल कपि भालुनमें कोऊ नहिं रक्षै बाल लक्ष्मणके प्रानको ॥
२७
बैठे काह मौन पौन पूत मम दूत बरबूत करतूत तेरो जानै न जहान को ।
कौनसो कठिन काज तोसों जो न होय आज राखु बलदेव लाज आपने प्रमानको ॥ ३८ ॥
दोहा-
श्रीमुख निजवल तेज कर, सुनत प्रशंसा वीर।
अमित पराक्रम सुधि, करत, बोल्यो गिरा गँभीर ॥ १॥
सवैया ।
शोच न कीजिय शोच विमोचन राजिवलोचन जो रुख पावों ।
तो जग होन न देउँ प्रभात प्रभाकर रोकिके राति बढावों ॥
बैठ रहौं उदयाचल पै रवि खांबकि औरहि ठाव पठावों ।
या करतूत करों नहिं तो प्रभुदूत न मारुतपूत कहाबों ॥३९॥
२८
भानु उदय कर त्रास कहा मोहि आयसु होइ अकाश को धावों । कौतुकही ब्रह्मांड विदारि निकारि दिवा-कर राहुसे तावों।
के शशि को रस गारि सुधा घट आनि तुरंत अनंत को प्यावों ।
या करतूत करौं नहिं तो प्रभु-दूत न मारुतपूत कहावों ॥ ४० ॥
पैठि पतालमें व्याल के झुंड दलौं इत अमृत-कुंडहि ल्यावों ।
सींच उलीचकि कौन कहै कहिये तेहि बीच इन्हें अन्हवावों ॥
कै वधि नीच कुमीचहि जो सब जीवन-के उर शोच मिटावों।
या करतूत करों नहि तो प्रभुदूत न मारुत पूत कहावों ॥४१॥
२९
लाखन योजनपै धवलाचल आंखन मूंद तही उडिजावों ।
तेलतपे सरसों जो फुटे तबलों गिरि सयुत मूरि लै आवों ॥
ख्याल-हिमें यम कालु दलों बलदेव कि लक्ष्मण लालको ज्यावों ।
या करतूत करों नहिं तो प्रभु दूतन मारुतपूत कहावों ॥ ४२ ॥
श्रीराम उवाच
घनाक्षरी ।
जो तो मार्तण्ड ब्रह्माण्ड से निकारि दैहौ गारि लेहो चन्द्रमैं तो करी उजियारको ।
आने सुधा कुंभ बलदेव देव ह्वे हैं दीन आने सुधाकुंड पेहें कुंडली खंभारको ॥
मारे मृत्यु काल यमराजको अकाज ह्वे है एकै काज मिटी मर्याद करतारको ।
ताते तात वेगि जाइ ल्याइये सजीवनको ज्याइयो सुभाय मेरे जीवन अधारको ॥ ४३ ॥
३०
बीर बर वानी बलदेव बोलि बार बार वेगि वायुपुत्र उड्यो उत्तर की ओर हैं।
मिल्यो कालनेमि मगमाहिं कियो माया ताहि मारि गिरिपाहिं गयो बाहिं बरजोर हैं ॥
औषधि न चीन्हयो लीन्हयो लाघव उपारि शैल भरतै प्रबोधि कीन्हयो दक्षिणको दौर है।
लूक इव लीक अवलोकि कहें लोकपाल आयो यह आयो यह केशरी किशोर है ॥ ४४ ॥
इहाँ राम लखनको लखिकै विलाख कहें वीति अर्धराति कपि अबलों न आयो है।
मनुजसे आप परितापसे विलाप करें भुजभरि अनुज उठाय उर-लायो है ॥
सुनत प्रलाप कपिभालु मे बेहाल सबै ताहि क्षण अंजनीको लाल गिरि ल्यायो है।
प्राप्त बलदेव मानों करुणामें वीररस डूबत गंभीर नीर तीर जनुपायो है ॥ ४५॥