Harisingh harish ki kuchh aur rachnayen v samiksha - 5 - last in Hindi Book Reviews by राज बोहरे books and stories PDF | हरिसिंह हरीश की कुछ और रचनाएं व समीक्षा - 5 (अंतिम)

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हरिसिंह हरीश की कुछ और रचनाएं व समीक्षा - 5 (अंतिम)

हरिसिंह हरीश की कुछ और रचनाएं व समीक्षा 5  

दर्द की सीढ़ियां (ग़ज़ल संग्रह)

हरि सिंह हरीश अपनी युवावस्था के समय से ही लिखने के प्रति बड़े समर्पित रहे हैं। वह कहते थे कि जब वह छठवें क्लास में पढ़ रहे थे तो होमवर्क की कॉपियों पर उपन्यास लिखने लगे थे। दरअसल उन्हें कुशवाहा कांत के उपन्यास पढ़ने का बड़ा शौक था । वे मुरार ग्वालियर में रहते थे और वहां की लाइब्रेरी से किताबें निकालकर खूब पढ़ते थे ।वे जिस  मिल के कैंपस में निवास करते थे,उस मिल के मालिक ने भी लाइब्रेरी में अपने खाते से हरीश जी को किताबें निकालने की सुविधा प्रदान कर दी थी । तो एक छोटे से बच्चे में लिखने की इतनी ललक इस कारण पैदा हुई कि वह पढ़ते भी बहुत थे। यह अलग बात है कि पढ़ने उन्हें उतनी कलात्मक ऊंचाई नहीं सिखा पाया, हां नियमित लिखने की प्रेरणा दे गया। वे चाहते थे कि जैसी किताबें लाइब्रेरी में रखी रहती थी, उनकी रखी जाए। बस इसी इच्छा से उन्होंने लिखना शुरू किया। वे अध्यापक रहे पर ड्यूटी से  आके नियमित रोज एक न एक रचना लिखते थे, गीत लिखते थे, गजल लिखते थे या मुक्तक लिखते थे, उपन्यास भी लिखते थे। उनके लिखे 40 उपन्यास अप्रकाशित रह गए ।उनके लिखे 10000 गीतों में मुश्किल से 500 भी छप पाए। उनकी 15000 गजलों में मुश्किल से ढाई तीन सौ  ही गजल छपिया होगी। मुक्तक तो छपे ही नहीं अब इस पर दुख मनाया नहीं जाना चाहिए, क्योंकि प्रकाशक वही छापेगा जो पाठक मांगेगा छोटे प्रकाशक तो सदा ही अपनी छापी हुई सारी प्रतियाँ लेखक या कवि को ही सौंप देने चाहते हैं, वे ही बेच दें, वे ही बाजार में भेजें । वही लाइब्रेरी में भेजें ।तो हरि सिंह हरि ज्यादा नहीं छपे।

 हां फिर भी उनके उनका एक उपन्यास कली भँवरे  और कांटे छाप और मन के गीत नमन के अक्षर भजन संग्रह तथा लगभग 10 अन्य किताबें छपी, जिनमे 6 गीत संग्रह और गजल संग्रह भी कहे जा सकते हैं । भले ही वे  काव्यशास्त्र के सिद्धांत पर गीत के मानक पर पूरे ना उतरते हो,ग़ज़ल  के मानक पर बहुत बड़े ना हो और गजल के चंद्र शास्त्र पर तो वे कतई गजल न हों।  लाख ग़ज़ल ना कहलाई जाने वाली रचनाओं के संग्रह हो ।  तो ऐसे कभी रचयिता को श्रद्धांजलि स्वरुप में उनकी कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं

 

 

 

 

 

 

(१४८)

 

दहेज-दानव आज घर-घर डोलता है। दीजिए भरपूर सबसे बोलता है।

 

बेच दो चाहे जमीं या गेह को. हर किसी को इस तरह से तोलता है।

 

गर नहीं ज्यादा दिया श्रीमान ने, रात्र मध्य जिन्दगी का खोलता है।

 

किसके कितना पास है ई मान से, जेब अन्दर की छुपी टटोलता है।

 

यह घिनोना कर्म है 'हरीथ' क्यों, देखकर अन्दर सभी का खौलता है।

 

(१४९)

 

इस तरह खुलकर कभी न आइये । खुद जरा सोचकर शरमाइये ।

 

आप हैं सुन्दर हमें मालूम है, इस तरह हमको नहीं समझाइये ।

 

गेसुओं को खोलकर न बैठिये, इस तरह से मेध न बरसाइये ।

 

गर नहाकर आप फारिग हो चुके, पहनकर पोशाक फिर आ आइये ।

 

आंख में काजल लगाकर देखिए, इस तरह से खूब यूं बन जाइये ।

 

होंठ अपने खूब ही रंग लीजिए, फिर हमें आ प्यार से समझाइये ।

 

बस कहां तक मैं बताऊं आपको, आप आकर शौक से टकराइये ।

 

खुष्शनुमा होते हैं गुल माना 'हरीष्य', फिर भी इनको यूं नहीं बतलाइये ।

 

(१५०)

 

दुःख से क्या घबराना साथी ? दुख तो जीवन की है थाती।

 

सुख वो होता क्षण दो क्षण का. दुख से जलती जीवन बाती ।

 

यह दुनिया ऐसे है जैसे, घर-घर आती जाती पाती ।

 

सुख का कुछ सहसास नहीं है, दुख से चौड़ी जेरी अती ।

 

कवि 'करीष्थ लमों के ममने, मेटी बड़काल सदा सुलावी।

 

जलसंग्रह)

१५१)

 

झूठ मत बोलो प्रियतमे । प्यार तुमको हो। गया। प्यार का यह खुशनुमा उपहार तुमको हो गया।

 

अब हमारे साथ रहना चाहिए तुमको प्रिय, जीने-मरने को यही इक यार तुमको हो गया।

 

जिस तरह तुमसे बने इसको सजाने आइये, बस यही रहने की खातिर घरवार तुमको हो गया।

 

जैसे चाहो तुम चलाओ, यह तुम्हारा घर प्रिय, इसमें रहने का अरे । अधिकार तुमको हो गया।

 

जबसे तेरा हाथ आया, हाथ में हंसता 'हरीश', अपना कहने को यही, संसार तुमको हो गया।

 

(१५२)

 

सदियां बीतीं तुम्हें न पाया। हमने बोलो कब मुसकाया ?

 

याद तुम्हें ही किया हमेशा, मन मेरा ऐसा पगलाया ।

 

तरस रहे आवाजों को, लेकिन अब तक सुन न पाया ।

 

मेरी 'सब-कुछ' तुम्हीं प्रियतमे, धन, दौलत, जीवन और माया ।

 

सोना-चांदी, लाल, जवाहर, तेरे कारन सभी गवाया ।

 

तुम भी मुझ्रासे बोल न पाई. मैं भी तुहासे बोल न पाया।

 

तेरे बिन में रहा अभागा, क्योंकि तू है मेरी छाया ।

 

कवि 'स्टीश' तुझे देने को. देखी कितनी खुशियां लाया ।

 

 

(१५३)

मेरी सिफारिश आपसे इतना ही कहने आ गई। मैं मुसलमां, आप हिन्द, हाथ गहने आ गई।

 

मेरी बीवी सो के जागी या नहीं यह देखना. तो कहकर चुप हुआ, वह चड़ी पहने आ गई।

 

जी वो शायर हूं जनम से, गम के नगमें लिख रहा, मेरे संग मेरी कलम भी दर्द सहने आ गई।

 

चरम से बहती रही है, मेरे ये गंगो-चमन, मेरी आंखें में समाकर रोज बहने आ गई।

 

है बहुत नादां 'हरीश' वू, सबके छुपता जा रहा, जिन्दगी तेरी जहां में फिर भी रहने आ गई।

 

(१५४)

 

तुम जीवन सरिता की धारा । नाम तुम्हारा हमको प्यारा ।

 

बाल्मीक ने मरा मरा कह, राम नाम को खूब पुकारा ।

 

मैं भी तेरा नाम बदलकर, रख बैठा हूं जीवन-धारा ।

 

कौन कहेगा तुम्हें बताओ, अब बोलो दहका अंगारा ?

 

जनम जनम तक यही चाहता. रहूं सदा मैं सिर्फ तुम्हारा ।

 

नहीं कभी मैं भूलूं तुमको, ओ मेरे जीवन की धाय ।

 

पान पाया तुम्हें अभागा, तब से डूबा भाग्य सितारा

 

कवि 'हरीश्श' करेगा कैसे, जिन अब कहो गुजारा ?

 

(१५५)

 

राम का मंदिर बनेमा, आप चाहे कुछ कहे। काम ये होकर रहेगा, आप चाहें कुछ कहें।

 

यह घरा है राम की, और राम का ये धाम है, ये बात मिलकर हम कहेंगे, आप चाहे कुछ कहें।

 

रोक क्या सकतीं इसे, जोरो-सिवम की आंधियां, निर्माण ये होकर रहेगा, आप चाहे कुछ कहें।

 

कह चुके हम, कह चुके हम, आप सुनते क्यों नहीं, हम सभी ये ही कहेंगे, आप चाहे कुछ कहें।

 

देर हो सकती 'हरीश्य', अन्धेर हो सकता नहीं। धर्म का परचम उड़ेगा, आप चाहे कुछ कहें।

 

(१५६)

 

आया अरे, ठंड का मौसम । ठंडक भरे, ठंड का मौसम ।

 

भीकर-बाहर, धूम मचा दी, ठंडक भरे, ठंड का मौसम ।

 

गरम-गरम, कपडे आगी से, कितना डरे, ठंड का मौसम ।

 

सब पर रौब अमाने आया, ठंडक करे, ठंड का मौसम ।

 

गर्मी से हम तंग हुए थे. पीड़ा हरे, ठंड का मौसम ।

 

नंगे, भूखे, तंग जनों से, रहवा परे, ठंड का मौसम ।

 

कवि 'हरीष्य' की यही तमला, यूं ही हारे, ठंड का मौसम ।

 

(१५७)

 

गया दिल्ली को जाना, अपना देखो आजकल । होवा दिल्ली खाना, अपना देखो आजकल ।

 

असे मेरा यार मंत्री बन गया है दोस्तो.

 

दिल्ली है ठिकाना अपना देखो आजकल ।

 

खूब मस्ती कर रहा है. खूब खाता-पीता है, कुन गाया ये ही बहाना, अपना देखो आजकल ।

 

एका कोठी, एक बंगला, दे दिया उसने मुझे, लग रहा है हर निशाना, अपना देखो आजकल ।

 

कुस इधर से, कुछ उधर से, आता रुपया हाथ में. मर गया घर पर खजाना, अपना देखो आजकल ।

 

हो गई पहचान सबसे, ऐसा वैसा कुछ करूं, क्या करेगा कोई थाना, अपना देखो आजकल ?

 

मंत्रियों के साथ जाकर जाम पीता प्यार का, रोज का पीना-पिलाना, अपना देखो आजकल ।

 

कुछ कहो, कुछ भी करो, अब कुछ नहीं कहता कोई, हो गया नौकर जमाना, अपना देखो आजकल ।

 

न काम कुछ करते कभी, न सोचते हैं काम की, काम हैं गप्पे लड़ाना, अपना देखो आजकल ।

 

यह कये तुम, वह करो तुम, बस यही करते हैं हम, काम सबको है नचाना, अपना देखो आजकल ।

 

इसकी मानो, उसकी मानो, पर करो मन की सभी, इस तरह है आबोदाना, अपना देखो आजकल ।

 

क्या खूब किस्मत पाली हमनें, कह रहा अब वो 'हरीथ', है बड़ा रंगी फसाना, अपना देखो आजकल ।

 

(१५८)

 

भूला नहीं तुम्हारी यादें ।

 

दिल में बसीं तुम्हारी यादें ।

 

कितनी मोहक, कितनी प्यारी,

 

प्रियवर । हाय । तुम्हारी यादें ।

 

रोम-रोम में बसी हुई हैं,

 

सचमुच खूब तुम्हारी यादें।

 

मरते दम तक याद रखैनी,

 

प्रियकर । मुझे तुम्हारी यादें ।

 

कवि 'करीच मुला न सकता. सचमुच कमी तुमहारी यादें ।

 

 

(१५९)

फिर आ गई हमारे यहां जोर की सर्दी । कम्बल, रजाई और बड़ी खोर की सर्दी ।

 

अब देखिए हम घूमने न रोज निकले, क्या रंग जमाए है यहां भोर की सर्दी ?

 

जालिम ने सभी गर्म निकलवा लिए कपड़े, सरकार पकड़ती नहीं इस चौर की सर्दी।

 

दांतों का हाल भी बुरा, आंखों का हाल भी, बचती नहीं बचाये से कमजोर की सर्दी ।

 

बूढ़े, जवान, बच्चो को सर्दी ने सताया, इस साल नजर आती बहुत जोर की सर्दी ।

 

जिस ओर चले जाइये इसका ही जिक्र है, भाई जान लिए जाती है इस ओर की सर्दी ।

 

कमबख्त सर उठाये है मंहगाई में भी खूब, सबकी सता रही है इस दौर की सर्दी ।

 

गजलों में नया रंग उभर आया है 'हरीश', हां, जबसे मिली दाद-ए-थोर की सर्दी ।

 

(१६०)

 

उम्र सोलह की हसीना आप हैं। प्यार का दिलकश महीना आप हैं।

 

चाहे जैसा उम्र का तूफान हो, मेरी चाहत का सफीना आप हैं।

 

मैं तुम्हारे दम से जीता हूं यहां, मेरे दिल का खू-पसीना आप हैं।

 

क्था करूंगा इस अंगूठी का कहो, मेर दिल का बस नगीना आप हैं।

 

मेरी पूजा के लिए मंदिर तुम्हीं, मेरे सिजदे को मदीना आप हैं।

 

कह रहा हो थ में वेरा 'क्रीथ', मेरी साक्री, जाम, मीना आए।

 

(१६१)

 

आदमी भी आजकल ये कितना शख्त है। लग रहा है पत्थरों का ये तो भक्त है।

 

पारा में सोने को भी खटिया नहीं इसके, कह रहा है पास मेरे चंदनों का तख्त है।

 

अक्ल इसकी हो गई है मोटी मुझे लगे, कह रहा कुकुरमुचा इक दरख्त है।

 

नाचना आता नहीं कमबख्त को देखी, कह रहा है अपना बुरा आज वक़्त है।

 

लिख रहा, लिखना इसे आता नहीं मगर, कह रहा सरकार में महाकाव्य जप्त है।

 

शर्म वो आती नहीं धोती के बाहर हो रहा, गर्मी के मारे देखिएर मौसम ये वप्त है।

 

दौड लूंगा मैं अभी आकाश से ऊंचा, रोजमर्रा का मुझे इतना रफ्त है।

 

हो गया बूढ़ा, किया इसने नहीं कुछ भी. अच्छा हुआ जो मर गया, कमबख्त है।

 

थायर 'हरीश' मौत से डरता नहीं कभी, इस जहां में तो सभी का होगा अन्त है।

 

(१६२)

 

इक बार मेरे घर पर आकर के ये कहना । मैं आ गया हूं आंसुओ । अब तो नहीं बहना ।

 

यह चीज नहीं ऐसी इसे फेंक न देना, यार तुम्हारे पास है अश्कों का ये गहना ।

 

सहने को भूख-प्यास तुम सहते रहे सदा, यह दर्द मिला प्यार में, तो प्रेम से सहना ।

 

चांदी के नहीं, सोने के जेवर नहीं पहने, यह हार अआंसुओं का मैंने बहुत पहना ।

 

दर्द, गम. आहे तो मेरे नाम किये हैं, कुछ बोलियेगा 'हरीश' सच है यही ना ।

 

(१६३)

चांद से बातें करूंगा रात भर । आज मैं जागा करूंगा रात भर ।

 

इन चमकते चांद-वारों के वले, आज मैं भागा करूंगा रात भर ।

 

तुम मेरी बनकर रहो यूं उम्र भर, मैं दुआ मांगा करूंगा रात भर ।

 

तुम अगर आ जाओ मेरी जिन्दगी, मैं गले लागा करूंगा रातभर ।

 

प्यार की मीठी शहद में उम्र को, मैं यूं ही पागा करूंगा रात भर ।

 

दिल के दिल से सुर मिलाने के लिए, मैं नजर वागा करूंगा रात भर ।

 

तुम नजर आओ सही मेरे सनम, मैं पीछा-आगा करूंगा रात भर ।

 

यह कहा मानो जरा 'हटीश्श' का, शुक्रिया वेरा करूंगा राव भर ।

 

(१६४)

 

बन्द कमरों से न पूछो, राक्रानी कैसी थी ? जओ गुजर करजा चुकी, सुबह-सुहानी कैसी थी ?

 

गीत जिसके आज तक कोयल सुनाती जा रही, उस हसीना की अरे। वो प्रेम-वानी कैसी थी ?

 

यह पवन भी छोड़ने का नाम तक लेती न थी, उसकी हवा में लहलहाती चूनर धानी कैसी थी ?

 

याद सबको आज तक उसकी हसीं वो दास्तां,

 

पृतिये हम से नया वो, यह कहानी कैसी थी ?

 

में लिखा यह कहानी यह 'स्टरीस' कहता है अब, मोतियों सी चमचमाती, वह जवानी कैसी थी ?

 

 

(१६५)

 

हरीश सभी का है, मिलकर तो देखिष्ट । फूलों की तरह इससे खिलकर वो देखिए ।

 

इसके सभी हैं अपने, सबको गले लगाता, इसकी तरह जहां में बनकर तो देखिए ।

 

अए न्याय करने वालों दौलत पे नहीं रीझो, कमजोर की दुहाई सुनकर तो देखिए ।

 

आलिम बड़ा जमाना, होशियार इससे रहना, शैतान का सर थोड़ा घुनकर तो देखिए ।

 

भारत की भूमि है ये, यहां ईश्थ प्रकट होते, इस भूमि पर जरा सा झुककर वो देखिष्ट ।

 

सहजोर सतावे हैं, कमजोर आदमी को, फरियाद गरीबों की सुनकर तो देखिए ।

 

गम लाख ले किसी के हंसता 'हत्टरीश' हरदम, यह राज जिन्दगी का गुनकर तो देखिए ।

 

(१६६)

 

जीत सब ही की चाह है, तू हार, लेकर खुष्य तो है। कई हुए फारिंग यहां तू भार लेकर खुश तो है।

 

सोने-चांदी वो सभी ने अपने घर में रखलिया, मुफलिसी का खुशनुमा उपहार लेकर खुष्थ वो है।

 

राजा-रानी और नवाबों सा नहीं बन पायेगा, नौकरी करने का तू अधिकार लेकर खुष्श तो है।

 

सब खरीदे आ रहे हैं, कोठियां, बंगले, सदन, जिन्दगी में तू किसी का घर लेकर खुश वो है।

 

रूठना, उनको मनाना, यह मधुर इक बात है, प्यार की हर रोज की तकरार लेकर खुष्य तो है।

 

 

 

 

 

(१६७)

 

मेरा घर बरसात में बूंदों से लड़ने लग गया। शबनमी बूदों से देखो कैसा जड़ने लग गया।

 

एक कुठिया में जरा सा गेहूं रखा था मेरा, चन्द रोजओं में वहीं सीड़न से सड़ने लग गया ।

 

पहली गर्मी में मेरा मुन्ना सुआ लाया था एक, धीरे-धीरे देखिए तो खूब पढ़ने लग गया ।

 

है महीनों का मेरा पोता बड़ा शैतान है, सीढ़ियों पर आजकल वो खूब चढ़ने लग गया ।

 

काम करते खेत में मिट्टी मेरे वन से लगी, मुझको नहाते देखकर बच्चा रगड़ने लग गया ।

 

आ गया पतझड़ का मौसम, देखिए हर ओर अब, हर पेड़ का पत्ता अरे गर्मी से झड़ने लग गया।

 

तुम नहीं तो शायरी में वह बात आती है नहीं, महफ़िलों से आजकल मैं उखड़ने लग गया ।

 

प्यार जब से छिन गया, बेजार है तब से हरीश, आजकल खुद से ही वह देखो झगड़ने लग गया ।

 

 

(१६८)

 

जो यह झूठे लोग न होते । वो हमको ये वियोग न होता ।

 

हम खुशहाल हमेशा रहते, जो यह हमको रोग न होते ।

 

यह दुनिया न कायम रहती, जो इसमें यह भोग न होते ।

 

प्यार पनपता हर अन्तर में, ओ अन्तर में डोंग न होते ।

 

कैसे रचता गीत अभागा, जओ दुख के संयोग न होते ।

 

कवि 'स्टरीश' उदास न होता, जो तुम जैसे लोग न होते ।

 

१६९)

 

ऊंचे पहाड़ जैसा सीना पफुलाये रखना । दुश्मन के क्र सिवम से खुद को बचाये रखना ।

 

जालिम हैं लोग कितने, यह देख वो रहे हो, इनकी बुरी नजर से खुद को छिपाये रखना ।

 

अपना अगर हो कोई तो उससे भी बोल देना. इन दुष्ट जालिमों का चेहरा बताये रखना ।

 

जलने दो आम दिल में, इससे डरेगा दुश्मन, सम्मुख कभी जो आये, उसको जलाए रखना ।

 

छूने न पाष्ए दुश्मन इस मुल्क की जमीं को. इस आनबान पर तुम खुद को मिटाये रखना।

 

दुश्मन ने सर उठाया, अब तुम सर उठाओ, क़दमों वने उन्हें तुम अपने झुकाये रखना ।

 

माना कलम है छोटी पर वलवार से है बढ़के, सर काट दुश्मनों का, खूं से नहाये रखना ।

 

धामे रहो 'तिरंगा' हाथों 'हटरीष्य' अपने, दुश्मन के सामने भी इसको उड़ाये रखना ।

 

(१७०)

 

गांव का गांव बदक कर बैठा । धूप औ' छांव बदलकर बैठा ।

 

मंजिलें खाक मिलेंगें अब तो, वह तो पांव बदलकर बैठा ।

 

आदमी, आदमी नहीं दिखता, कैसा सुभाव बदलकर बैठा ।

 

गांव के पैसे भी कम लगते हैं. वह तो भाव बदलकर बैठा ।

 

उसे क्या खाक सुनायें किस्से, वह तो चाव बदलकर बैठा ।

 

'हरीश' दूर तलक जाना है, वह तो नाव बदलकर बैठा ।

 

 

(१७१)

 

तूने मुझे कभी न हेराय । कहता रहता मन ये मेरा।

 

तुम ही गंगा, तुम ही यमुना, तुमसे होगा संगम मेरा ।

 

तभी हटेगा इस जीवन का. यह देखो घनघोर अंधेरा ।

 

तेरा हाथ-हाथ में लेकर, जाग-जागकर किया सबेरा।

 

तुम्हें याद कर जिया हमेशा, यह अहसान हुआ है वेरा।

 

आज अभागा समझ न पाया. तुमसे दूर डाल कर डेरा ।

 

कवि 'हरीश' रहेगा गुमसुम, गम ने मुझको ऐसा घेरा ।

 

(१७२)

 

मत तूं तोंद फुलाकर चल । ख़ुद को जरा हिलाकर चल ।

 

दुनिया बहुत बड़ी है ये। शेखी जरा भुलाकर चल।

 

बड़ा नोट है पास तेरे, उसको जरा खुलाकर चल ।

 

बहुत देर लग जायेगी, बच्चे जय सुलाकर चल ।

 

कई इक गीत सुनाने हैं, झूला जय झुला कर चल ।

 

साथ लौटने वाले को, थोड़ा जय बुलाकर चल ।

 

कवि 'हरीश ' निकल अल्दी खाना उसे खिलाकर चल ।

 

 

(१७३)

 

ताजमहल से बहुत बड़ी है. मेरी कुटिया सच मानो ।

 सीना  ताने तभी खड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

राजा और नवाबों ने इसे फूटी आंखों लखा नहीं,

दुष्ट जनों से खूब लड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

सोने-चांदी वाली इसकी नहीं दीवारें माना पर,

 चन्दन लकड़ी ठोक जड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

जाने कितने आए नेता, हाथ जोड़कर चले गए,

 अब तक देखो इधर पड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

गुन्डे, चोर, लफंगे इसको छीन सके न कभी अरे

। उनको यह तलवार छड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

फौलादी हाथों ने इसको तोड़ न पाया थोड़ा भी,

यह उससे भी बहुत कड़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

नफ़रत इसको झुका न पाई, चाहत खेली गोदी में,

ममता से यह खूब मढ़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

नहीं अमीरों की यह बेटी, नहीं किसी की लाइकुंवर,

 यह गरीब की प्रेमगढ़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

मैंने हरदम सुनकर देखा इसकी मीठी बोली को,

सचमुच यह मिसरी की डली है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

कवि 'हरीश' ने इसे संभाला देखा-भाला परखा है,

यह चाहत का पाठ पढ़ी है, मेरी कुटिया सच मानो ।

 

(१७४)

 

समर्पित तुम्हें मेरा तन-मन हुआ । खुशी में जमाने का पलछिन हुआ ।

 

किसी से मुलाकात करने चलें, खुची में मचलने को ये मन हुआ।

 

खिली दिल की कलियां, मजा आ गया, हमारा भी मन खिल के मधुवन हुआ ।

 

सूरज के जैसे चमकने लगे, हमारा बदन आज कंचन हुआ ।

 

नये गीत गाने लगी जिन्दगी, गजब का जमाने में गुंजन हुआ ।

 

सभी मिलने-जुलने लगे प्रेम से, नई साल का जबसे आवन हुआ ।

 

चहकने लगी मन की कोयल कहीं, खुष्धी का दिलों में लो सावन हुआ ।

 

लवों पर नये गीत आने लगे, अहा । आज मौसम सुहावन हुआ ।

 

पड़े जबसे घर में कदम आपके, हमारा भी घर आज पावन हुआ ।

 

दुल्हन की तरह तुम चली आई हो, समर्पित तुम्हें मेरा वन-मन हुआ ।

 

'हरीश्थ' खुश हुआ आज पाकर तुम्हें, लो, हमान्य सुखी आज जीवन हुआ ।

 

(१७५)

 

इस शहर में राज करते, सारे गुन्डे देख लो । सपको शहर में नाराज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

कल यही गोली को खाकर, जान देंगे देखना, तू-चबड़ जो आज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

एक ही गुन्डा नहीं है, सैकड़ों गुन्डे यहां, हां, यही अन्दाज करते, सारे गुन्डे देख लो।

 

हर तरफ इनकी ही चर्चा हो रही है आजकल, सब बुरे ही काज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

छीन कर रोटी किसी की खाना इनका काम है, ये नहीं लिहाज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

नाम इनके हैं अजूबे, सुनके सब हैरान हैं, एक ही आवाज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

मान लो इनके हुकुम को तो समझ लो ठीक है, वर्ना बुरा 'रिवाज' करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

है पुलिस इनकी खरीदी, हर किसी से पूछ लो, सर तभी तो ताज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

कौन दे सकता सजायें इनको बोलो दोस्तो । गन्दा ये समाज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

 

इनका कोई क्या करेगा, कह रहा शायर 'हरीश', कौड़ियों का ब्याज करते, सारे गुन्डे देख लो ।

(१७६)

 

लो, नया वर्ष आया, पुराना गया । वो गुजरकर पुराना जमाना गया।

 

नई फिर घड़ी आ गई देखिए, न मिलने का वह फिर बहाना गया ।

 

वैसे होंठ चूमूंमा फिर राव को. तड़पता हुआ हर वराना गया।

 

वेरा मुस्कुराना फिर कहने लगा, तुम्हारा सनम वो सवाना गया ।

 

मेरी बन के अब तुम रहोगी सनम, वैरा अब दूर जाना गया ।

 

वहीं सुर्ख जोड़ा पहनकर हंसी, वैरा अब तो मुखड़ा छुपाना गया ।

 

तेरे बिन मेरी जिन्दगी कुछ नहीं, मेरे बिन वेरा तड़पड़ाना गया ।

तुम भी होते नहीं, हम भी होते नहीं, इस जमाने का ये देखो वाना गया ।

तू लिपट जा मेरे आके सीने से अब, वर्ना मेरा कहां गुदगुदाना गया ?

प्यार करता रहा तुझको हरदम 'हरीश', कि जिससे तेरा रूठ जाना गया।