"बदलाव ज़रूरी है" श्रंखला में लीजिये प्रस्तुत है मेरी छठी कहानी जिसका शीर्षक है
यह कोई मनोरोग नहीं है
एक पूंजीपति व्यक्ति के घर उसकी बूढ़ी हो रही बहन जिसे मानसिक रोग की समस्या के चलते एक मनोचिकित्सक देखने उनके घर आया करती थी. एक दिन जब वह हमेशा की तरह अपनी मरीज को देखने आयी तो उसे बगल वाले कमरे से कुछ आवाज़ें सुनाई दे रही थी. लेकिन उसने देखा उन आवाजों का असर उसकी मरीज के व्यवहार पर साफ देखा जा सकता था. अचानक वह लड़की बहुत डर गयी उसने अपनी उस डॉक्टर को पहचाने से भी इंकार कर दिया और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी.
"चली जाओ यहाँ से, मैं तुम से मिलना नहीं चाहती वह गुस्सा करेंगे और फिर मुझे मारेंगे...!"
"डॉ... कौन मारेंगे और क्यूँ मारेंगे...? यह तुम क्या कह रही हो...?"
डॉ को भी अपने मरीज की बात सुनकर एक झटका सा लगता है क्यूंकि उन्होंने अपने मरीज का डर तो पहले भी देखा है. लेकिन बोल आज पहली बार ही सुने थे.
लड़की ने अपने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए मानो वह किसी बहुत तेज स्वर से बचना चाहती है.
"सुनो तुम क्या कह रही थी...? कौन मारना चाहता है तुम्हें...? "
"वो.... वो... बहुत मारते है मुझे और फिर बहुत दुखता है मुझे, इसलिए तुम चली जाओ यहाँ से और फिर कभी मत आना" ऊ.... ऊ... करके वो फिर जोर जोर से रोने लगी.
"सुनो... तुम डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूँ ना, कोई नहीं मारेगा मेरी गुड़िया को ठीक है...! चुप हो जाओ एकदम चुप"
कहते हुए डॉ ने उसे पानी पिलाया और एक नींद की दवा खिला दी और फिर धीरे -धीरे वह नींद के आगोश में चली गयी.
अब आप लोग यही सोच रहे होंगे कि बुढ़ापे की और बढ़ती हुई एक महिला को भला डॉ ने गुड़िया का नाम क्यूँ दिया...! है ना...??
वो इसलिए दिया क्यूंकि इस नाम में ही इतना प्यार है कि हर कोई अपनी बिटिया को प्यार से गुड़िया ही बुलाता है. इससे मरीज को प्यार का ही नहीं बल्कि अपनत्व का अनुभव भी होता है और वह धीरे धीरे बिना किसी भी हिंसा के अपने आप ही शांत हो जाता है. खैर उसे सुला देने के बाद डॉ कोतुहल वश उस कमरे की और जाती है जहाँ से वह आवाज आ रही थी. तो वह क्या देखती है कि सेठ जी अपने लड़के के उपर जोर जोर से चिल्ला रहे हैं.
"शर्म नहीं आती तुझे तूने मेरी नाक कटवा के रख दी, कितनी बार कहा है मैंने तुझे जो करना है घर की चार दीवार में किया कर. फिर क्या ज़रूरत थी होटल में जाकर यह सब करने की...!!"
सेठ जी सिर्फ चिल्ला ही नहीं रहे बल्कि हाथ भी उठा रहे हैं. गुस्से में अब उन्होंने अपनी बेल्ट भी निकाल्ली है.
बेटा उनके पाँव पढ रहा है
"पापा नहीं पापा गलती हो गयी माफ़ कर दो मुझे अब मैं उससे कभी नहीं मिलूंगा"
बेटा दर्द से कराह रहा है लेकिन पिता जी का दिल जरा नहीं पसीज रहा है... पीट -पीटकर उन्होंने अपने बेटे को लहूलुहान कर डाला फिर भी उनके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आयी... इतने में डॉ से रहा नहीं गया और वह सीधे उसके कमरे में प्रवेश कर गयी और बोली
"पागल तो नहीं हो गए हैं आप...? ऐसे भी भला कोई बाप अपने बेटे को मरता है... आखिर इसने ऐसा किया क्या है...?"
कहते हुए जाकर उन्होंने उस युवक को संभाला.
"यह आपका मामला नहीं है डॉ, यह हमारे घर का मसला है आपके लिए बेहतर यही होगा कि आप इस सब से दूर ही रहे तो अच्छा होगा."
कहते हुए सेठ जी ने अपना कोट उठाया और कमरे के बाहर निकल गए.
डॉ ने उस युवक को किसी तरह उठाया उसकी मरहम पट्टी करी उसे दर्द निवारक दवा खिलाई और उससे पूछा
"ऐसा क्या किया था तुमने जिसकी तुम्हें यह सजा मिली...?"
लड़का मूक बनकर केवल उनकी और देखता रहा बोला कुछ भी नहीं मगर उसकी आँखें कह रही थी कि
"मुझे बचा लो डॉ...! मैं दूसरी गुड़िया बनाना नहीं चाहता "
डॉ समझ गयी कि अभी वो इस हालत में नहीं है कि अपनी कहानी खुद उन्हें सुना सके.
अगले दिन डॉ ने टीवी न्यूज़ में देखा उन्हीं सेठ जी के बेटे की निजी समय का एक वीडियो वायरल हुआ पड़ा है जिसमें वह एक अन्य लड़के साथ आपत्ति जनक अवस्था में दिखाई दे रहा है. डॉ को पूरा मामला समझ में आ गया. अगले ही दिन डॉ दुबारा उनके घर पहुंची लेकिन उसे अंदर नहीं आने दिया गया. एक कर्मचारी ने डॉ से कहा
"आप यहाँ से चली जाइये साहब ने कहा कि
आपका काम खत्म हुआ. अब आपको यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं है" 'मुझे माफ़ कीजिये'
तभी डॉ ने देखा सेठ जी सीढ़ियां उतर रहे हैं उसने उस कर्मचारी से कहा ठीक आप मुझे एक गिलास पानी पिला दीजिये फिर मैं चली जाऊंगी कर्मचारी पानी लेने चला गया. डॉ अंदर आ गयी और बोली
"आप जो कुछ भी कर रहे हैं गलत कर रहे है...?"
"तुम...? तुम यहाँ कैसे...? तुम्हें अंदर किसने आने दिया...? सिक्योरिटी ...!!!
चिल्लाइये मत...! सेठ जी मैं बस आप से कुछ बात करने आयी हूँ... मुझे और कुछ नहीं चाहिए ना ही मैं किसी ओर से कुछ कहूँगी....!
पहले तो सेठ जी ने साफ इंकार कर दिया. फिर कुछ सोचकर बोले
"कहो क्या कहना चाहती हो"...?
"मैंने कल. रात आपके बेटे का वीडियो देखा न्यूज़ चैनल पर और मैं बस यह कहना चाहती हूँ यह कोई बीमारी नहीं है... मैं बहुत से ऐसे बच्चों को जानती हूँ जो ऐसे ही हैं
"ऐसे ही है मतलब आप कहना क्या चाहती है...?
"जी मेरा कहने का अर्थ यह है कि समलैंगिकता कोई रोग नहीं है...! मैं बहुत से ऐसे बच्चों को जानती हूँ जो समलैंगिक हैं किन्तु फिर भी अपने अपने क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है, कोई फैशन डिजाइनर है, कोई इंटीरियर डिजाइनर है आदि...."
"ऐसा आपको लगता है क्यूंकि आप एक मनोचिकत्सक है लेकिन वास्तव में यह एक मनोरोग ही तो है. ईश्वर ने आपको जो बनाकर भेजा है आपको वो स्वीकार नहीं है यह असामान्यता नहीं है तो और क्या है..."??
"चलिए आपका दिल रखने के लिए यदि थोड़ी देर के लिए मैं यह मान भी लूं कि यह एक मनोरोग है तो क्या...? किसी भी रोग या फिर मनोरोग का इलाज मार पीट तो नहीं हो सकता ना...??"
"देखिये आप चाहे कुछ भी कहें मैं तो इसे मनोरोग ही मानता हूँ. पहले मेरी बहन इसका शिकार बनी और अब यह अचानक ही सेठ जी के मुंह से निकल गया... "
क्या....??? गुड़िया भी...?
"जी सेठ जी ने सर झुकाते हुए हाँ में सर हिलाया"
इसका मतलब आपने उसे भी इस बात के लिए इतना मारा पीटा की वो बेचारी आज इस हालत में है...!!!
मैं क्या करता, बारात आने के बाद जब फेरों का समय आया तब उस पागल ने शादी से इंकार कर दिया और सब के सामने यह बात कबूल कर ली कि वो... वो है
"लेस्बियन..."
"हां...! वही पूरे समाज के सामने हमारी कितनी बदनामी हुई. उसके बाद पापा ने गुस्से में आकर उसकी साथी को गोली मार दी. फिर उन्हें भी दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया. यह भी अपने साथी की मृत्यु देख के बौखला गयी उसे काबू मे लाने के लिए मेरा हाथ उठ गया और भगदड़ मच गयी. उसी धक्का मुक्की में उसके सर पर चोट आयी और वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठी"
बहुत लम्बी ख़ामोशी के बाद डॉ ने कहा "मैं आपको कैसी लगती हूँ..?"
"जी...? यह कैसा सवाल है..?"
"जैसा भी है, आप जवाब दीजिये क्या मैं आपको असामान्य प्रतीत होती हूँ...?"
"जी बिलकुल नहीं...!"
"क्यों...?"
"आप खुद एक मनोचिकत्सक है, आप असामान्य कैसे हो सकती हैं...!"
"लेकिन यदि मैं आपसे यह कहूँ कि मैं भी वही हूँ, जिसका होना आपको सामान्य नहीं लगता तो...!!!"
"मैं मान ही नहीं सकता...!"
"क्यों वैसे लोगों के सर पे क्या सींग उग आने चाहिए या आपके हिसाब से ऐसा क्या हो जाना चाहिए कि आपको लगने लग जाए कि वह व्यक्ति आपकी परिभाषा के अनुसार सामान्य नहीं है...?"
सेठ जी एकदम चुप हो गए अब आगे उनके पास कहने को कुछ भी शेष नहीं रहा गया था.
तब डॉ ने कहा
"जिस तरह आम लोग अपनी प्रोफेशनल और पर्सनल दोनों ज़िन्दगी अलग अलग जीते है. ठीक उसी तरह हम लोग भी अपनी दोनों ज़िन्दगी अलग अलग जीते हैं. एक का प्रभाव दूसरे पर नहीं पड़ने देते और ना ही हमें हर लड़की या हर पुरुष ऐसा दिखायी देने लगता है कि हम बस जाकर किसी से भी चिपक जायें... हमें भी आपकी परिभाषा के अनुसार सामान्य लोग जैसे केवल अपने ही साथी से प्यार रहता है. ऐसे सड़क चलते किसी के भी साथ सम्बन्ध नहीं बनाते फिरते हम...अब इससे ज्यादा सरल भाषा में, मैं आपको नहीं समझा सकती. लेकिन इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि मैं एक ऐसी ही संस्था चला रही हूँ "
डॉ ने अपना कार्ड बढ़ाते हुए कहा
"जहाँ ऐसी ही सोच रखने वाले बच्चों को सही मार्गदर्शन दिया जाता है. विशेष रूप से उन्हें, जिन्हें यह समाज केवल इसलिए ठुकरा देता है कि वह ऐसी सोच रखते है और हम इस संस्था के माध्यम से यह जागरूकता फैलाना चाहते हैं कि ऐसी सोच रखने वाले पहली बात तो मनोरोगी नहीं होते....! दूजी बात यदि समाज इन्हें ऐसा समझता भी है तो यानी आपकी तरह ऐसे लोगों की जान लेने का, या उनके साथ दुर्व्यवहार करने का, या उन्हें किसी भी तरह की मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना देने का अधिकार आपको नहीं है...!!! आपको यदि प्रॉब्लम है तो हमारे या हम जैसे लोगों के पास आइये जो इस विषय को समझते है, जानते है और इसी पर काम कर रहे हैं....क्यूंकि बदलाव ज़रूरी है..!
जल्द ही फिर हाजिर होंगे एक नयी कहानी के साथ...तब तक जुड़े रहिए मेरे साथ और पढ़ते रहिए यह रोचक कहानियों का सफर "बदलाव ज़रूरी है" और हाना यदि आपको इस श्रंखला की कोई भी कहानी पसंद आए तो कृपया लाइक शेयर एवं सबस्क्राइब करना ना भूले...! हो सके तो टिप्पणी के रूप में अपनी प्रतिकृया भी अवश्य दर्ज कराएं धन्यवाद