बदलाव ज़रूरी है शृंखला में लीजिये पेश है मेरी सातवी कहानी जिसका शीर्षक है
सपने भी ज़रूरी है
एक परिवार में चार लोग रहा करते थे पति पत्नी और उनके दो बच्चे जिसमें से एक बेटा था और एक बेटी, घर के मुखिया अर्थात पिता जी का एक छोटा सा होटल था. जिसमें कोई ख़ास सुविधाएं नहीं थी. बस यूँ समझ लीजिए की नाश्ते के साथ -साथ कुछ थोड़ी बहुत मिठाई और पानी सोडा आदि.बस और कुछ खास नहीं और जो घर की करता धर्ता थी वह थी उनकी धर्मपत्नी अर्थात उन दो बच्चों की माँ जो घर से ही टिफ़िन चलाने का काम किया करती थी. उनके ग्राहकों में अधिकतर नौजवान बच्चे जो अपना -अपना घर छोड़कर बाहर पढ़ने आये हुए बच्चे ही थे. जिन्हें अक्सर घर के खाने की बहुत याद आती थी.
खैर उनकी बेटी जो कि उम्र में उस घर के बेटे से बड़ी थी. उसे क्रिकेट खेलने का बड़ा शौक था. पूरा पूरा दिन घर से बाहर मोहल्ले के लड़कों साथ कड़ी से कड़ी धूप में भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. आगे जाकर देश के लिए खेलने का उसका सपना था. इतना ही नहीं वह वास्तव में भी खेलने में अच्छी थी. मोहल्ले कि ही सही लेकिन जिस टीम में भी वो होती, उस टीम की जीत निश्चित हो जाती थी. लेकिन बस एक ही कमी थी उसमें कि उसे घर के काम काज और पढ़ाई लिखाई में रत्ती भर भी रुचि नहीं थी. दूजा उस घर का छोटा बेटा, जिसे अपनी मम्मी के साथ रसोई में ही घुसे रहने का दिल करता था. वह "भाई साहब" बड़े होकर मास्टर शेफ बनना चाहते थे. अब ऐसे हालत में बच्चों की ऐसी हरकतों से तंग आकर पिताजी अक्सर चिल्ला चोट किया करते. एक दिन दुकान पर उनकी किसी से तना तनी हो गयी. पहले ही महंगाई की मार से और घर के खर्चो से मारा हुआ इंसान चिढ़चिढ़ा हो ही जाता है. एक दिन जब वो घर में आये तो उन्होंने देखा बेटा पढ़ाई छोड़कर माँ के साथ रसोई में बैठा उनकी सहायता कर रहा है. बस फिर क्या था यह देखते ही वह आगे बबूला हो गये और चिल्लाते हुए रसोई में घुस गए और बोले
"क्यूँ रे तू यहाँ रसोई में क्या कर रहा है...? कितनी बार समझाया है तुझे यह सब जननियों वाले काम छोड़ दे. बाहर का काम काज सीख़...! वह तो एक नहीं होता तुझ से यह नहीं कि मेरे साथ दुकान पर बैठे और गल्ला संभाले ताकि में बेफिक्र होकर कहीं आ जा सकूँ....! और वो महारानी विक्टोरिया तेरी दीदी वो कहाँ है...?"
"दीदी..., वो तो बाहर क्रिकेट खेल रही होगी कहीं"
यह सुनकर पिता जी का गुस्सा और भड़क गया बोले
"वाह...! क्या औलादे पायी हैं मैंने, जिसे घर में रहकर चूला चौका संभालना चाहिए वह बाहर सड़कों पर मोहल्ले के लड़कों के साथ आवारा गर्दी करती रहती है और जिसे बाप के साथ दुकान पर बैठकर गल्ला संभालना चाहिए, वह माँ के आंचल में बैठकर पकौड़ियाँ तल रहा है...! अब मेरा मुंह क्या देख रहा है...! जा जाकर बुलाकर ला अपनी दीदी को, आज देखता हूँ बस बहुत हो गया"
"सुनो जी...!"
"बस तुम चुप रहो, यह सब तुम्हारे ही लाड प्यार का नतीजा है. कल को ब्याह कर के जायेगी तो हमारी ही नाक कटवायेगी. तुम कुछ समझती क्यूँ नहीं उसको मैं बाप होते हुए यह समझता हुआ अच्छा लगूंगा क्या...??"
"अजी मैंने तो कई बार समझाने की कोशिश कि है पर वो किसी की सुने तब ना...!"
इतने में दोनों बच्चे घर में प्रवेश करते हैं. लड़की क्रिकेट की पूरी ड्रेस पहने पसीने से तर बतर हांफती हुई आती है और घुटनो पर हाथ रखकर जोर जोर से सांस लेने लगती है. भाई जाकर मम्मी के पीछे खड़ा हो जाता है. उसे देखकर बेटी समझ जाती है आज कुछ बड़ा हुआ है या होने वाला है. यह सोचते हुए वह अपने दोनों हाथ पीछे कर के चुपचाप खड़ी हो जाती है.
"आ गयी महारानी.... कहाँ थी अब तक...?"
"वो... वो...! बाहर खेल रही थी"
"अच्छा... इतनी बड़ी घोड़ी जैसी हो गयी हो, तुमको यह बात समझ में नहीं आती कि तुमको घर में रहकर माँ की थोड़ी बहुत सहायता करनी चाहिए. अपनी माँ का हाथ बटाना चाहिए कुछ थोड़ा बहुत घर का कामकाज सीखना चाहिए...? कल को शादी कर के जब दूजे के घर जाओगी तो उन्हें क्या खिलाओगी 'यह बल्ला, यह गेंद, या फिर यह स्टाम्प फेंकते हुए पिता जी और जोर से गरजते हुए कहा "खबरदार अगर आज के बाद इस समान को हाथ भी लगाया तो... मुझे बुरा कोई नहीं होगा...!"
बेटी ने सिर झुकाकर हाँ में सर हिला दिया.
पिता जी गुस्सा थोड़ा शांत हुआ उन्होंने अपने बेटे से कहा और तू वहां क्या अपनी माँ के आँचल में मुंह छिपाए खड़ा है. कल से तू स्कूल के बाद से मेरे साथ दुकान पर बैठेगा और तुम अपनी माँ के साथ रसोई में उनकी सहायता करोगी, समझ गए ना दोनों...?
जी...!
अगले दिन जब लड़की अपनी माँ के साथ रसोई में खड़ी थी तब
"माँ ने कहा दाल में तड़का लगाना है, सामान दे मुझे,"
अब उस बेचारी को पता हो दे, कभी वो कुछ देती कभी कुछ, आखिर में परेशान होकर बर्तन पटकर बोली
"माँ मुझसे नहीं होता यह चूल्हा चौका, मुझे तो खिलाड़ी बनाना है और एक दिन अपने देश के लिए खेलना है" बोलते हुए उसकी आँखें चमक उठी.
माँ ने कहा "देख बेटा मेरी तरफ से तू जो चाहे बनजा मुझे कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन एक औरत और एक माँ होने के नाते मैं इतना जरूर कहूँगी कि एक लड़की को चाहे अपने जीवन में छप्पन भोग बनाना आते हो या ना आते हो. लेकिन साधारण खाना बनाना तो आना ही चाहिए. कौन जाने समय कब कहाँ किस को किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे. अब मुझे ही देख ले...!
"लेकिन माँ पापा को मेरे क्रिकेट खेलने से समस्या क्या है...?"
"वही जो सारे समाज को है. छोरी होकर छोरों वाले शौक आदमी की जात को कतई पसंद ना आते. यह तो शुकर मना के तेरे पिता जी तुझे पढ़ा लिखाकर अफसर बनाना चाहते है और जे उनकी नाक ना कटे इस वास्ते तुझे सुगढ़ ग्रहणी भी बनाना चाहते है बस और क्या...और तेरे भाई को दुकान का कामकाज सिखाकर खुद मुक्त होना चाहते हैं"
इतने में बेटे ने कहा
"माँ मैं तुम्हारी तरह खाना बनाना चाहता हूँ और लोगों को खिलाना चाहता हूँ. मुझे नहीं संभालना कोई गल्ला वल्ला मैं तो एक वर्ल्ड क्लास शेफ बनाना चाहता हूँ. "
इतने में पिता जी पीछे से यह सब बातें सुन लेते हैं और बेटे को पकड़ कर जो पीटना शुरु करते है...!
"साला तू बस यही लुगाई यों वाला काम ही कर बस, इसी चुले चौके में झोक दे अपनी ज़िन्दगी....!!! दोनों मिलकर मेरी नाक कटवाना चाहते हो समाज में छोरे को छोरियों वाले काम करने है छोरी को छोरों वाले काम करने है... "
कहते हुए लगे पिता जी बेटे को पीटने, बड़ी मुश्किल से माँ और बहन ने मिलकर उसे बचाया. पिता से पिटने के कारण बच्चे का हाल बेहाल हो गया था. इस घटना से दोनों बच्चे इतने डर गए कि उस दिन के बाद वो घर घर नही एक जेल के सामान हो गया था. जिस घर में हमेशा बच्चों के रहने से हो हल्ला मचा रहता था. आज वही घर बच्चों के रहते हुए भी शांत हो गया.
अब उस घर में ना किसी की हँसी सुनाई देती थी ना अब कोई शरारत ही किया करता था. जबकि ऐसा नहीं था कि पिता जी को अपने बच्चों से प्रेम नहीं था. लेकिन फिर भी उस दिन के बाद से ज़िन्दगी जैसे बस एक ढार्रे पर चल रही थी. एक दिन बहुत लम्बे समय के बाद बेटी टीवी पर क्रिकेट का मैंच देख रही थी. उस वक्त उसके चेहरे पर एक अलग ही आभा थी, एक अलग सा उत्साह था. लेकिन तभी पिता जी एकदम से अंदर आ गये. बेटी डर के मारे टीवी बंद कर के भाग गयी. लेकिन उसके चेहरे की वो खुशी पिता जी से छिप ना सकी. वह कुछ कह पाते, उससे पहले ही वह अंदर जा चुकि थी. उधर उसका भाई अपनी मम्मी को एक अलग तरह का तड़का सिखा रहा था.
"जब मम्मी ने चखा तो उन्हें मजा ही आ गया. उन्होंने कहा
"अरे वाह रे छोरा, यह तो बहुत बढ़िया बन गया रे कहाँ से सीखा रे तूने इतना कुछ बनना करना"हैं ...? इसका तो एकदम स्वाद ही बदल गया..!
माँ बेटे पिता को देख एकदम से डर गए. बेटा माँ के पीछे छिप गया.
माँ को लगा आज कहीं फिर बेटा पिट ना जाए, तो माँ ने कहा
"मैं तो जी बस उससे नमक दिखवा रही थी कि चख के बता सब ठीक है कि नहीं और कुछ नहीं किया जी उसने... सच्ची "
बहन को भी लगा कि कहीं आज भाई फिर से ना पापा के गुस्से का शिकार बन जाये, तो वह भी झूठ बोलती हुई माँ के पास आकर बोली
"माँ वो जो आज सब्जी मैंने बनायी थी ना उसका क्या हुआ क्या तुम्हारे टिफ़िन वाले बच्चों को वो सब्जी पसंद आयी...?? "
पिता जी कुछ नहीं बोले और अपने कमरे में चले गए और दरवाजा बंद कर लिया और रोने लगे. कुछ देर बाद जब दरवाजा खुला और पिता जी बाहर आय तो बच्चे उन्हें देख अपने कमरे में जाने लगे.
"रुको तुम दोनों, कहाँ जा रहे हो...? पिता जी ने झूठ मूठ डपटते हुए कहा "
"बच्चे फिर से सहम गए 'कल से परीक्षा शुरु होने वाली है इसलिए पढ़ने जा रहे थे."
"बाद में जाना, अभी यहाँ बैठो मेरे साथ "
बच्चों को पिता जी का व्यवहार समझ नहीं आ रहा था. डरते-डरते बच्चे एक कौने में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बैठ गये.
तभी भारी आवाज में पिता जी ने कहा "तू रसोइया बनाना चाहता है ना...?"
"लड़का सकपका गया और हाँ इंग्लिश में उसे शेफ कहते है"
"हाँ वही मुझे मत सिखा...! तुझे पता है उसके लिए भी एक डिग्री है जिसे (होटल मैनेजमेंट) के नाम से जाना जाता है....?
"हाँ जी पता है, मैं आगे जाकर उसी में दाखिला लेना चाहता हूँ. लेकिन कोई बात नहीं यदि आप नहीं चाहते तो मैं नहीं करूँगा आप बस मारना नहीं मुझे..."
फिर पिता जी ने लड़की से पूछा और तू...! क्रिकेट खेलना चाहती है ना...?
"हाँ जी, मैं अपने देश के लिए खेलना चाहती हूँ. लेकिन यदि आप नहीं चाहते तो कोई बात नहीं मैं पढ़ाई के साथ -साथ घर का काम तो सीख ही रही हूँ...! और फिर "छोटा मुंह बड़ी बात" आखिर आप दोनों हम दोनों के लिए इतनी मेहनत करते हो, ताकि हमारे स्कूल की फीस भर सको. हमें पढ़ा लिखाकर काबिल बना सको तो हम दोनों भी आपके लिए इतना तो कर ही सकते हैं ना पापा...!"
यह बात सुनकर पिता का ह्रदय पिघल गया और उन्होंने अपने दोनों बच्चों को अपने गले से लगा लिया और कहा
"ओ नहीं ओय... नहीं, तुम दोनों ना सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि इस घर की जान हो. तुम्हें पता है, तुम दोनों के बिना यह घर घर नहीं लगता ओये. जहाँ जिस घर में हमेशा हो हल्ले की आवाजें आती रहती थी. हमेशा हुड़दंग मचा रहता था. आज मेरे गुस्से के कारण वह घर सूना हो गया. अरे इसलिए थोड़ी ना मेहनत करता हूँ मैं दिन-रात, कि रात को जब घर लौटकर आऊं तो घर, घर जैसा ही ना लगे हैं.
तुझे क्रिकेट खेलना है तू खेल और तुझे रसोई के काम में मजा आता है ना तू कर. लेकिन पढ़ाई भी उतनी ही जरूरी है बस यह याद रखना मेरे बच्चों ताकि तुम्हें कोई बेवकूफ ना बना सके, ठग ना सके.
"ओ जी यह आप कह रहे हो... बच्चों की माँ ने कहा"
"हाँ जी, मैं ही कह रहा हूँ क्यूंकि अब मुझे समझ मे आगया है कि जीवन में यदि खुश रहना है तो सपने देखना भी जरूरी है और सपने देखना है तो
"बदलाव जरूरी है"
जल्द ही मिलेंगे एक और नयी कहानी के साथ तब तक जुड़े रहिए और यदि इस शृंखला की किसी भी कहानी ने एक बार भी आपका दिल छुआ हो तो कृपया टिप्पणी के रूप में अपने मनोभाव अवश्य लिखिए ताकि मैं आपको आगे भी अच्छी अच्छी कहानियाँ पढ़ने का मौका देती रहूँ. धन्यवाद