Dwaraavati - 84 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 84

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द्वारावती - 84




84

तीनों चलने लगे। चाँदनी मार्ग प्रशस्त करती रही। केशव सब को संगम घाट पर लेकर आया। स्मशान के समीप वह रुक गया। 
“आप दोनों यहीं रुको, मैं अभी आता हूँ।”
कुछ अंतर केशव अकेला चला। पश्चात वह रुक गया। उसने जो देखा उसने उसे अचंभित कर दिया। 
“ओह … हो …।”
स्मशान की इस नीरव रात्रि में इन शब्दों को सुनकर गुल एवं उत्सव दौड़कर केशव के समीप आ गए। 
“क्या हुआ, केशव?”
“इस तट को देखो। यहाँ पर पड़े इन पत्थरों को देखो। यह पत्थर यहाँ कब लगे?” केशव ने प्रश्न किया। उत्तर नहीं मिला। वह आगे बोला, “मैं जब इस तट को छोड़कर गया था तब रेत से भरा तट था, यह पत्थर नहीं थे ना? गुल?”
“नहीं केशव। यह पत्थर तब नहीं थे। कुछ मास पूर्व ही यह पत्थर लगाए गये हैं। यह तंत्र की व्यवस्था है। इसमें इतना व्यथित होने जैसा क्या है?”
“है, गुल है। यही तो …।”
“केशव, तुम विस्तार से कहो कि बात क्या है? किस कारण तुम इन पत्थरों से विचलित हो। गुल, हमें प्रथम पूरी बात जाननी होगी। बिना कारण विचलित होनेवालों में केशव नहीं है।”
“उत्सव। गुल। मुझे ज्ञात था कि यह सब होनेवाला है, हो रहा है। किंतु मैं कुछ नहीं कर सका।”
“क्या नहीं कर सके?”
“मैंने कुछ करने की चेष्टा ही नहीं की। मुझे कुछ करना चाहिए था किंतु मैं निष्क्रिय रहा। यह सब मेरा दोष है। मेरा, केवल मेरा।”
“तुम स्वयं को दोष देते ही रहोगे या कुछ बताओगे भी?”
“एक रात्रि की बात है। मुझे स्वप्न आया कि मैं इसी स्थान पर, मैं जहां इस समय खड़ा हूँ वहीं, खड़ा था। सम्मुख मेरे अरबी समुद्र था। अपनी लहरों में मग्न था। मैं उसे देखने में मग्न था। तभी सहसा समुद्र के भीतर से कोई आकृति मेरे समक्ष प्रकट हो गई। वह धुंधली थी अतः मैं जान नहीं सका कि वह क्या है? 
मैंने पूछा, “कौन हो तुम? स्पष्ट रूप से अपना मुख दिखाओ।”
“यह नहीं हो सकता। किंतु इतना जान लो कि मैं समुद्र हूँ। इतना पर्याप्त है तुम्हारे लिए।”
“समुद्र? क्यों मेरा परिहास कर रहे हो?”
“नहीं, मैं सत्य कह रहा हूँ।”
“समुद्र इस प्रकार प्रकट कहाँ होता है?”
“स्मरण करो, राम के सम्मुख मैं प्रकट हुआ था। मेरे भीतर से लंका जाने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए।”
“किंतु मैं राम नहीं हूँ। ना ही मुझे लंका या अन्यत्र कहीं जाना है ।”
“मुझे संज्ञान है इस बात का। किंतु तुम्हें मेरा विश्वास करना होगा। मैं समुद्र ही हूँ और आज मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है।”
“चलो, क्षणभर मान लेता हूँ। कहो, क्या कहना है?”
“मेरे इस तट को प्रशासन बांध देना चाहता है। बड़े बड़े पत्थरों की एक लम्बी चौड़ी भिंत मेरे तथा नगर के मध्य बांध देना चाहते हैं। इस प्रकार तो मैं बंदी बन जाऊँगा। मुझे बंदी बनाने से रोक लो। पत्थरों की भिंत बनाने से रोक लो। मुझे बचा लो। बस यही मेरी प्रार्थना है।”
“किंतु मैं क्या कर सकता हूँ? यह तो प्रशासन …।” मेरे शब्द अपूर्ण ही रहे। वह आकृति पुन: समुद्र में विलीन हो गई। कई क्षण तक मैं उस बिंदु को देखता रहा, जब तक मेरा स्वप्न चला।
जागते ही मैंने स्वप्न का स्मरण किया तो मैं स्वयम् पर ही हंस पड़ा। ‘कैसे कैसे स्वप्न देखता है यह मन !’ और उसे स्वप्न मानकर उसे वहीं छोड़ दिया। मैं आपने कार्य में व्यस्त हो गया।”
केशव क्षणभर रुका। कुछ चरण वह समुद्र की तरफ़ बढ़ा। पत्थरों की उस भिंत को देखने लगा। 
“वह स्वप्न,” केशव ने आगे कहा, “केवल उसी रात्रि आया था ऐसा नहीं है। प्रत्येक रात्रि, अविरत दस बारह रात्रि, वह स्वप्न आता रहा। स्वप्न की पुनरावृत्ति ने मुझे विचलित कर दिया, विचार करने के लिए विवश कर दिया। मुझे विश्वास हो गया कि समुद्र वास्तव में मेरी सहायता चाहता है। मुझे सहायता करनी चाहिए। आवश्यक कार्य पूर्ण कर, अवकाश लेकर मैं इसी कारण यहाँ चला आया। मुझे आने में विलम्ब हो गया। किंतु अब मैं क्या सहायता करूँ? कुछ भी तो शेष नहीं रहा।”
“तो इस समुद्र ने तुम्हें यहाँ बुलाया है ! समुद्र के आमंत्रण पर श्रीमान केशव द्वारका आए हैं। ऐसा ही है ना उत्सव?”
“गुल, यह समय इन बातों का नहीं है। समुद्र के प्रति केशव की भावना को समझो, निष्ठा को समझो। केशव, हमें प्रशासन से इस विषय पर बात करनी होगी। हम अभी भी कुछ कर सकते हैं।”
“कल सब से प्रथम हमें यही कार्य करना होगा, उत्सव।”
रात्रि गति कर गई । पूर्वाकाश में गोमती नदी पर सूर्योदय के लिए आकाश ने तथा दिशाओं ने मंच सज्ज कर लिया । सूर्योदय हुआ। उससे ऊर्जा प्राप्त कर तीनों, गुल-केशव-उत्सव, लौट आए।