Dwaraavati - 83 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 83

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द्वारावती - 83

83                                   

“भोजन तैयार है, आ जाओ तुम दोनों।” गुल ने पुकारा। 
उत्सव उठा। केशव ने रोका।
“बैठो। आज भोजन यहीं करेंगे। भोजन यहाँ लेकर आओ। आज हम समुद्र की साक्षी में, मद्धम चाँदनी में, तट की रेत पर, शीतल समीर के साथ भोजन करते हैं।”
“ठीक है। जैसी तुम्हारी मनसा। किंतु किसी एक को मेरी सहायता करनी होगी।” 
केशव सहायता हेतु आगे बढा। उत्सव ने रोका, “केशव, तुम यात्रा से आए हो, विश्राम करो। मैं जाता हूँ।” केशव रुक गया।
शीघ्र ही समुद्र तट पर, ऊष्मा से तप्त रेत पर, समुद्र की लहरों से कुछ अंतर पर, श्वेत चाँदनी में, समुद्र की मधुर ध्वनि के साथ सभी भोजन करने लगे। भोजन करते करते कोई किसी से कुछ नहीं बोला।
भोजनोपरान्त केशव बोला, “जिस गुल को छोड़कर मैं गया था वह आज इतना मधुर, इतना स्वादपूर्ण भोजन बना लेती है ! यह जान कर मन प्रसन्न हो गया।”
“प्रशंसा के लिए धन्यवाद, केशव। किंतु भोजन के पश्चात इस तट की शीतल लहरों में सो नहीं जाना। मैं अभी आती हूँ। मुझे तुमसे कितनी सारी बातें करनी है। तुम जागोगे ना?”
“मैं भला कैसे सो सकता हूँ? मुझे भी अनेक बातें करनी है।”
गुल चली गई। उत्सव के मन में विचार ने जन्म ले लिया, ‘वर्षों के पश्चात केशव गुल से मिल रहा है। इस स्थिति में मेरा यहाँ क्या काम? मैं कहीं और चला जाता हूँ। दोनों निर्बाध बातें कर सके इस हेतु मुझे कहीं चले जाना चाहिए।’ उत्सव ने निश्चय कर लिया। 
“केशव, मुझे कहीं जाना है। मैं चलता हूँ। आप दोनों बातें करो। कल मिलेंगे।” उत्सव जाने लगा। 
“क्यों? क्या तुम्हें मेरी बातें सुनने में कोई रुचि नहीं है? और इस रात्रि के समय तुम्हें कौन सा ऐसा काम आ पड़ा है कि मित्रों को छोड़कर चले जा रहे हो?”
“केशव, वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात तुम गुल से मिल रहे हो। इस मिलन में मैं बाधा नहीं बनना चाहता। इस लिए मैं …।”
“तुम बाधा नहीं हो हमारे लिए किंतु तुम बहाने अच्छे बना लेते हो। बैठो यहाँ पर। कहीं नहीं जाना है तुम्हें। और तुम्हें यहाँ रोकने पर बाध्य कर सकुं इतना अधिकार तो है ना तुम पर मेरा?”
“केशव सत्य कह रहा है, उत्सव।” गुल ने कहा। उत्सव रुक गया।
एक युवति, दो युवक। तीनों यौवन से युक्त। समुद्र का तट, चाँदनी, शीतलता, मंद मंद समीर, रेत, रात्रि, असीम आकाश के नीचे। इस अवस्था में भटक जाना किसी के भी लिए सहज होता है। किंतु, नहीं। 
भटक जाए ऐसे कहाँ है यह गुल, केशव और उत्सव? तीनों के भीतर कृष्ण के उपरांत अन्य कोई विषय, कोई चरित्र, कोई प्रश्न कहाँ थे? कृष्ण नाम का सूत्र, कितना अद्भुत !
“केशव, इतने वर्षों तक कहाँ थे? क्या कर रहे थे? और अब सहसा द्वारका का स्मरण?” गुल ने वार्तालाप का प्रारम्भ करते हुए प्रश्न कर दिए।
“यदि मैं पूरी कथा सुनाने लगा तो अनेक रात्रि इसी प्रकार वार्तालाप में ही व्यतीत हो जाएगी।”
“मुझे स्वीकार है।” गुल ने कहा।
“इसका कोई अर्थ नहीं है, गुल। और यदि हमने ऐसी बातों में व्यर्थ ही अनेक रात्रि गंवा दी तो हमारे प्रश्नों के उत्तर कब दोगी? वैसे भी इन प्रश्नों के उत्तर के लिए उत्सव ने चिर प्रतीक्षा की है। अतः मैं संक्षिप्त में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताता हूँ। ठीक है ना?”
गुल तथा उत्सव ने सम्मति दी।
“मुंबई से शिक्षा प्राप्त कर मैं अमेरिका चला गया। यह तो आप जानते ही हैं। वहाँ की अवकाश संशोधन संस्था नासा में वैज्ञानिक के रूप में मैंने कार्य प्रारम्भ किया। मैं मेरे कार्य से प्रसन्न था, संतुष्ट भी था। मेरी क्षमता, मेरे कौशल्य एवं मेरी कार्यनिष्ठा के कारण मुझे शुक्र ग्रह पर जाने वाले अवकाश यान के अभियान दल का सदस्य चुना गया। तीन वर्ष के कार्य के फल स्वरूप हमने उचित साधन सामग्री तैयार कर ली। अंतत: उस यान को शुक्र पर भेजनी की तिथि निश्चित कर दी गई। 
इन वर्षों में मेरे अमेरिका निवास के समय अमेरिका देश की संस्कृति के कारण मुझे व्यसन, मदिरापान, व्यभिचार, भ्रष्टाचार आदि अनेक प्रलोभनों का प्रतिकार करना पड़ा। अनेक षड्यंत्रों का भी प्रतिकार करना पड़ा। इस संघर्ष की अवस्था में हमारे देश के, गुरुकुल के संस्कारों ने मुझे प्रबल बल दिया और मैं इन सभी से बच गया।”
“यह तो चमत्कार है, केशव।”
“यही सत्य है। सत्य चमत्कार से भी प्रचंड होता है।”
“यही हमारे संस्कारों की शक्ति है। हैं ना केशव? हैं ना गुल?”
“अवश्य। आगे कहो। मैं अधीर हो रही हूँ।”
“इस अवकाश यान से जुड़ी एक घटना मैं बताता हूँ। यान सफलतापूर्वक छोड़ा गया। पश्चात मेरा दायित्व था धरती से उस यान का संचालन तथा नियंत्रण करना। मेरे साथ अनेक साथी भी थे। 
एक रात्रि मेरे साथ अन्य तीन व्यक्तियों का दल उस यान का निरीक्षण कर रहा था। यान को छोड़े सात दिन हो चुके थे।सब कुछ योजनानुसार चल रहा था। सब कुछ सामान्य था। अतः सब निश्चिंत थे। बाक़ी सदस्यों ने कहा कि इतने दिनों के परिश्रम के कारण वह थके हुए हैं। कुछ समय तक सोना चाहते हैं। कहते हुए निद्राधीन हो गए। मैं अकेला जगता रहा। यान का निरीक्षण एवं संचालन करता रहा। 
कुछ समय पश्चात यान ने संकेत भेजे। निश्चय ही वह संकेत आनेवाली समस्या के थे। मैंने उसे समझा, साथी सदस्यों को जगाया। किंतु सभी मदिरा पान कर सोए थे। अचेत पड़े थे। उन्हें जगाना व्यर्थ था, उनका जागना भी व्यर्थ था। मैंने स्थित एवं मति अनुसार यान को नियंत्रित करने का प्रयास किया। किंतु सब व्यर्थ !
क्षण प्रतिक्षण यान मेरे नियंत्रण से बाहर जा रहा था। वह अस्थिर हो गया। संतुलन खोने लगा। अपनी नियत भ्रमण कक्षा से भटकने लगा। मेरे सभी प्रयास विफल हो रहे थे। 
यान की स्थिति को समझ कर मैंने दल के अन्य सदस्यों का सम्पर्क करने का प्रयास किया किंतु अज्ञात कारण वश संचार की सभी व्यवस्था निष्क्रिय हो गई थी। मेरे लिए कोई सहायता उपलब्ध नहीं रही। 
मैं था, अस्थिर यान था एवं विवशता थी। हारकर मैं रो पड़ा। रोते रोते मुझे ईश्वर का स्मरण होने लगा, द्वारिकाधीश का स्मरण हो गया। उसे हृदय से प्रार्थना की, विनती की। 
मैं प्रार्थना करता रहा, विनती करता रहा, यान को नियंत्रित करने के सभी उपाय करता रहा। ईश्वर के स्मरण से, प्रार्थना से, विनती से मेरे भीतर श्रद्धा जन्मी। नयी ऊर्जा का संचार होने लगा। मैं पुन: उन सभी प्रयासों में लग गया जो यान नियंत्रित करने के लिए करने होते हैं। मेरी दृष्टि यान की गतिविधि पर स्थिर थी। 
कुछ समय पश्चात सहसा यान की बाहरी सतह पर किसी के हाथ होने का आभास हुआ। मैंने पुन: देखा। हाथ ही थे किसी के। तत्क्षण यान स्थिर हो गया। मैंने प्रसन्न होकर नियंत्रण कक्ष में देखा। सब कुछ सामान्य हो गया। मैंने पुन: उस बाहरी सतह को देखा। वहाँ अब कुछ नहीं था। केवल ब्रह्मांड था। यान अपनी निर्धारित कक्षा में भ्रमण करने लगा। पूर्ववत् कार्य करने लगा। 
दूसरे दिन जब रात्रि की घटना का विश्लेषण हो रहा था तब एक साथी एक मुद्रित अंश लेकर आया। सभी ने उसे देखा। उसमें यान को स्थिर कर रहे दो हाथ वाला दृश्य भी मुद्रित हो गया था वह सभी ने देखा। सभी ने मुझे उस विषय में, उसके रहस्य के विषय में पूछा। किंतु मेरे पास उसको व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे। मैं मौन रहा।”
“तो तुम इस का श्रेय द्वारिकाधीश को देना चाहते हो?”
“अवश्य, उत्सव। और किसका हाथ उस ब्रह्मांड में हो सकता है?”
“किंतु, केशव। तुम इस घटना से पूर्व तक द्वारिकाधीश का विस्मरण कर चुके थे। तुम कृष्ण को भूल गए थे।”
“यह सत्य है कि मुझे कृष्ण का विस्मरण हो गया था। किंतु उस क्षण के पश्चात एक भी क्षण बिना कृष्ण स्मरण की व्यतीत नहीं की मैंने।”
“सत्य तो यह भी है कि उस क्षण तक तुम्हें द्वारका, द्वारिकाधीश, गुरुकुल आदि का स्मरण नहीं था। तो तुम मेरा स्मरण करते होंगे ऐसी कल्पना करना व्यर्थ ही है, केशव।”
“यह सत्य को मैं स्वीकार करता हूँ, गुल।”
“केशव, यही हमारी मित्रता है? यही …।”
“विस्मरण हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ, गुल।”
“गुल, केशव को क्षमा कर दो।”
“उत्सव, तुम भी?”
“हाँ गुल। केशव में सत्य कहने का, सत्य का स्वीकार करने का साहस है। इस आधार पर क्षमा का अधिकार है केशव का।”
“अर्थात् तुम दोनों पुरुष एक पक्ष में हो गए। मैं क्षमा करनेवाली नहीं हूँ।” गुल रुष्ट हो गई।
“गुल, आज मेरा मन तेरे साथ लड़ाई करने का नहीं है। लड़ाई कल सूर्योदय के पश्चात कर लेंगे। चलेगा ना?”
केशव की इस बात ने गुल के कृत्रिम क्रोध को पिघला दिया। वह हंस पड़ी। 
“चलेगा। किंतु वचन दो कि कल तुम मुझ से लड़ाई अवश्य ही करोगे।” उत्सव और केशव दोनों हंस पड़े। 
“एक अन्य घटना सुनाता हूँ। वास्तव में उसने ही मुझे द्वारका बुलाया है।”
“कौन है वह? भगवान द्वारिकाधीश?” गुल ने पूछा।
“नहीं गुल। वह व्यक्ति तुम हो, गुल तुम हो।”
“नहीं, केशव। वह ना तो द्वारिकाधीश है ना ही गुल है।” 
“तो कौन है वह?”
“इस प्रश्न के उत्तर से पूर्व हमें कहीं जाना होगा।”
“कहाँ?” 
“चलो मेरे साथ।”
“अभी? इस रात्रि में?” 
“गुल, रात्रि की चिंता क्यों करती हो? हमें जहां जाना है वहाँ तक का मार्ग इस चाँदनी में हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देगा। है ना केशव?”
“हाँ उत्सव।”