Nostalgia - Storey of a restless Nomad in Hindi Biography by Ashoke Ghosh books and stories PDF | रोमन्थन - एक अथक खानाबदोश की कहानी

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रोमन्थन - एक अथक खानाबदोश की कहानी

  रोमन्थन  -  एक अथक खानाबदोश की कहानी

 

अबतरणिका

जब किसी विषय के बारे में कुछ इयादगार घट्नाय लिखने की इच्छा महसूस होती है, तो मन में सारे घटनाओं को साजाने और सुलझाने में काफी समय बित याते हैं और सोचते हैं कि कहां से शुरू करें। विशेष रूप से, जब विषय एक आत्मकथा हो, जिसके अधिकांश भाग में एक ऐसी मां की कहानी बर्णित है, जिनहोने अवर्णनीय रूप से हमेशा दुखभरि जिन्देगि बितायि, सहनशीला थि, और एक ऐसी मां जो सबका कल्याण चाहती थि, तब हर पल मे टूटने लगती हैं इयादें का धागा।

दुनिया में हमेशा ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने परिवार के अतीत के बारे में जानने में रुचि रखते हैं और अपने माता-पिता और परिवार के अन्य वरिष्ठ सदस्यों से अपने पूर्वजों के जीवन और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानकारी रखते हैं। मेरा सबसे प्यारा और इकलौता बेटा रिभु (दुसरा नाम अनिरुद्ध) उन चंद लोगों में से नहीं है। मेरे बेटे ने कभी भी अपने पूर्वजों के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, हालाँकि, मैंने कभी-कभी उसे अपने और अपने पूर्वजों के बारे में कुछ किस्से सुनाए हैं। मेरे बेटे की रुचि की कमी का मतलब यह नहीं है कि वह असंवेदनशील है या उसे अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान की कमी है। मैं जानता हूं कि मेरा बेटा सौम्य स्वभाव का है और बड़ों का बहुत आदर करता है। मेरी राय में, हर किसी को अपने माता-पिता और पूर्वजों के जीवन और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। इसलिए, मैंने यहां अपने जीवन और अपने पूर्वजों के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को इस आशा के साथ संक्षेप में बर्णन किया है कि मेरे शुभचिंतक और विशेष रूप से मेरा बेटा अपने अबसर पर इस जीवनकाहानि पढ़ेगा।

अशोक घोष

 

अध्याय एक

माँ के बारे में कुछ इयादें

तब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। उस समय भारत का बाङ्गाल प्रदेश मे कपोताक्ष नदी से नजदिक एक अज्ञात लेकिन समृद्ध गाँव थे गंगारामपुर। कालीपद रक्षित उस गंगारामपुर गांव के एक बनेड़ी परिवार का मुखिया था। उनकी पत्नी का नाम असालता था जिसका दूसरा नाम भवानी था। कालीपद रक्षित छह बेटों और चार बेटियों के पिता थे। १३४८ बङ्गाब्द में, कालीपाद रक्षित की दस संतानों में से पहली संन्तान बेटी थी, जिसका नाम "मीरा" रखा गया - मेरी गर्भधारिणी माँ।

मेरी माँ के जन्म के लगभग दो साल बाद, मेरी माँ का एक भाई हुआ और कुछ ही दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। फिर धीरे-धीरे माँ के नौ और भाई-बहन पैदा हुए।

उस समय ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की पारंपरिक शिक्षा लगभग न के बराबर थी। इसीलिए, सीखने में अत्यधिक रुचि के बावजूद, मेरी माँ ने घर पर ही बांला भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। माँ के पैतृक घर में रामायण, महाभारत, पुराणादि के अलावा अनेक पारंपरिक लेखकों की कहानियाँ और उपन्यासों का भंडार था, जिन्हें माँ बार-बार पढ़ती थीं।

दूसरी ओर, मेरी माँ की माँ यानी मेरी नानी अक्सर बीमार रहती थीं और हर दो/ढाई/तीन साल में गर्भधारण और बच्चों को जन्म देती थीं। परिणामस्वरूप, मेरी माँ ने बचपन में, जब वह गुड़ियों से खेलने की उम्र में थी, अपने छोटे भाई-बहनों को अत्यंत प्यार और स्नेह से पाला। इतना ही नहीं, नौ-दस साल की उम्र से ही मेरी मां ने अपनी नानी की देखरेख में खाना पकाने की जिम्मेदारी अपने दो छोटि सि हाथों में ले ली।

इस प्रकार पारंपरिक जीवन जीते हुए, दो बहनों और चार भाइयों के जन्म के लगभग छह महीने बाद केवल सोलह वर्ष की उम्र में १३६४ बङ्गाब्द मे मेरी माँ की शादी बंगाल के खालिशखाली गाँव में बटकृष्ण घोष के छोटे बेटे सुधीर कुमार घोष से हुई थी। मेरी मां सोलह साल की उम्र में दुल्हन बनकर नई दुनिया में उम्मीदों का पिटारा और आंखों में नया सपना लेकर आई थीं। मेरे दो बुया की बहुत पहले ही शादी हो चुकी थि, हालाँकि मेरा पिताजि का बड़ा भाइ इया नि मेरा ज्येठामशाई सिंगल थे।

मेरे दादाजि बटकृष्ण घोष एक सुशिक्षित, संवेदनशील और मानवीय व्यक्ति थे। आसानसोल मे एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश कंपनी में काम करने के दौरान आंखों की रोशनी कम हो जाने के कारण वह लगभग चालीसवें वर्ष उमर में घर लौट आए। मेरे पिता उनका दो बेटियों और दो बेटों में से तीसरी संतान थे।

मेरे पिता सुन्दर, सुगठित और काफी मेहनती थे। मेरे पिता ने विभिन्न व्यवसाय करके पारिवारिक संपत्ति में वृद्धि की।

मेरे माता-पिता का वैवाहिक जीवन सुख-शांति से भरा था और परिवार समृद्ध था। शादी के एक साल बाद मेरी दिदि का जन्म हुआ। मेरा जन्म दीदी के जन्म के डेढ़ साल बाद हुआ और मेरे छोटे भाई का जन्म मेरे जन्म के चार साल बाद और मेरी छोटी बहन का जन्म उसके तीन साल बाद हुआ। हमारे चार भाई-बहनों के नाम क्रमशः मनिका (उपनाम टुनटुन), हाबुल, मुकुल और कनिका (उपनाम बुलबुल) थे, बाद में मेरा दूसरा नाम अशोक रखा गया। मैं चार भाई-बहनों में सबसे भाग्यशाली था। सभी का प्यार और स्नेह मेरे प्रति बाकी तीन भाई-बहनों से भी अधिक था, जो मुझे बचपन से ही महसूस होता था।

इसी बीच मेरे जन्म के कुछ ही दिन बाद मेरे ज्येठामशाई (बड़े चाचा) की शादी हो गयी। ज्येथमशाई के बड़े शाड़ुभाइ देबेंद्रनाथ (देबू) सरकार थे। देबू सरकार कभी-कभी हमारे घर आते थे और वह मेरे पिता के साथ काफी समय बिताते थे। यह देबु सरकार जल्द ही एक भयानक काल बन कर हमारे खुशहाल परिवार को बरबाद कर दिया।

देवू सरकार के साथ घनिष्ठता से पहले मेरे पिता को कभी भी शराब या ऐसी किसी नशीली पदार्थ का नशा नहीं थी। दूसरी ओर, देबू सरकार नियमित शराब पीने वाला था। देबू सरकार कई बार आये और गये और एक समय उन्होंने मेरे पिता को तरह-तरह से शराब पीने के लोये आकर्षित किया और हमारे खुशहाल परिवार को अपरिहार्य विनाश के रास्ते पर धकेल दिया।

शुरू-शुरू में पिताजी तभी शराब पीते थे जब देबू सरकार कभी-कभी शाम को हमारे घर आते थे और पिताजी को अपने साथ शराब पीने के लिए ले जाते थे। कभी-कभार शराब पीने के परिणामस्वरूप, कुछ ही दिनों में मेरे पिता को शराब की बुरी लत लग गई और हालत ऐसा हो गिया था कि हर शाम वह शराब बेचने वाले के घर शराब पीने जाते थे। बाबा दो शराब बेचने वालों के घर जाते थे, जिनमें से एक खालिशखाली का लंबा ठाकुर था और दूसरा पास के गांव चोमारखाली का सुशील था। शराब की भयानक लत के कारण पिताजि की धीरे-धीरे पहले की तरह व्यापार करने और पैसा कमाने की मानसिकता ख़त्म हो गई। परिणामस्वरूप, अनिवार्य रूप से व्यापारिक पूंजी और उनकी अपनी भूमि की विभिन्न फसलों की बिक्री से प्राप्त धन दिन-ब-दिन शराब में बर्बाद हो रहा था।

मेरे दादा, दादी, माँ और अन्य शुभचिंतकों के लाख समझाने के बावजूद, पिताजी की शराब की लत बढ़ती गई और उनके मानवीय गुण और कोमल प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे भीतर से ख़त्म हो गईं। इसके साथ ही, नशे की लत का खर्च उठाने के लिए पिता ने मेरी मां के सारे गहने और मेरी बहन और मेरी कुछ सोने की चेन और अंगूठियां भी बेच दीं। जब मां ने पिता की इन सभी हरकतों का विरोध किया तो मां को अश्रव्य दुर्व्यवहार के साथ-साथ दर्दनाक मानसिक और शारीरिक अत्याचार का शिकार होना पड़ा। धीरे-धीरे हालात ऐसे हो गए कि हमारी आर्थिक स्थिति दो वक्त का खाना खाने की भी नहीं रही। कुछ दिन तो ऐसे भी रहे हैं जब माँ ने बड़ी मेहनत से इसमें कुछ शाक संग्रह करके और इसे थोड़े से नमक, हल्दी और तेल के साथ पकाके हमें खाने दिया, ताकि हम कम से कम जीवित रह सकें।

एक ओर पिता की अवर्णनीय अत्याचार, दूसरी ओर दिन-ब-दिन, साल-दर-साल चार छोटे-छोटे बच्चों को दो वक्त का खाना न खिला पाने का भयानक मानसिक दर्द मेरी माँ को सहना पड़ा।

जब पिताजी ने नशे की खर्च मिटाने के लिए मेरी मां के सारे गहने और मेरी दिदी और मेरी कुछ सोने की चेन और अंगूठियां बेच दीं, और घर में बेचने के लिए कुछ भी मूल्यवान चीजे नहीं था, पिताजी ने थोड़ा थोड़ा करके जमीन बेचनी शुरू कर दी और इस अवसर पर, मेरी ज्येठामशाय ने बाजार मूल्य की तुलना में लगभग आधी कीमत पर वह जमीन खरीदना शुरू कर दी। इस प्रकार, एक-एक करके हमारी सारी जमीन ज्येठामशाय ने मामूली कीमत पर खरीद ली।

अध्याय दो

मेरा बचपन और किशोरकाल

बचपन मे चारि और केया केया घटना घटते हे ओ इयाद नहि रहता, मैं बचपन में कैसा था, हर कोई मेरे साथ कैसा व्यवहार करता था ओ सब कुछ मुझे बाद में अपनी मां और कई अन्य लोगों से पता चला और इये भि मुझे बताया गया कि मैं बहुत बुद्धिमान और आज्ञाकारी था और सिर्फ एकबार शुनने से मेरा सब कुछ इयाद रह्ता था। बचपन में न केवल मुझे, बल्कि मेरे अन्य तीन भाई-बहनों को भी माँ ने बांला और अंग्रेजी अक्षरों का परिचय देने से लेकर बांला का पहला भाग, दूसरा भाग और अंग्रेजी में शब्द पुस्तिका पढ़ने तक बहुत ध्यान से सिखाया। मेरे दादाजि मुझसे बहुत प्यार करते थे और उन्होंने मुझे बहुत सी चीजें सिखाईं। जब मैं पाँच साल का था, मेरे दादाजि मुझे प्राथमिक विद्यालय ले गए और दूसरी कक्षा में दाखिला कराया। विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने मेरी कम उम्र के कारण मुझे दूसरी कक्षा में प्रवेश देने पर आपत्ति जताई, परंतु मेरे दादाजी के कहने पर वे मेरी मौखिक परीक्षा से संतुष्ट हुए और मुझे दूसरी कक्षा में प्रवेश दे दिया। जब मैं चौथी कक्षा में था तब मेरे दादाजि की मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले वह मेरी मां का हाथ पकड़कर खूब रोईं और मेरे बारे मे कहा, अगर मैं कुछ साल और जीवित रहती तो अपने पोते को बहत कुछ सिखा सकती थी। उसकी पढ़ाई का ध्यान रखो, तुम देखोगे कि एक दिन वह बड़ा होकर तुम्हारी सारी परेशानियां मिटा देगा।

ठाकुरदादा की मृत्यु के कुछ महीनों बाद एक भयानक युद्ध छिड़ गया, जिसके परिणामस्वरूप पुराना नाम पूर्वी पाकिस्तान मिट गया और एक नए स्वतंत्र देश बांग्लादेश का जन्म हुआ। उस युद्ध के दौरान, तत्कालीन पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तान समर्थक स्थानीय मुस्लिम संगठन रज़ाकार वाहिनी द्वारा सैकड़ों हजारों लोग मारे गए थे। परिणामस्वरूप, लाखों हिंदू परिवारों को अपना घर छोड़कर आश्रय के लिए भारत आने के लिए मजबूर होना पड़ा। हमारा गाँव आकार में बहुत बड़ा था और गाँव के अधिकांश परिवार अमीर थे। कुछ मुट्ठी भर परिवारों को छोड़कर हमारे गाँव के निवासी हिंदू थे। हमारे गांव के आसपास के कुछ गांव मुस्लिम बहुल थे। उस युद्ध के दौरान, हमारे गाँव में रहने वाले हिंदू समुदाय पर मुसलमानों द्वारा हमला नहीं किया गया था, क्योंकि हमारा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व था। इसके बावजूद, हमारे गाँव के अधिकांश हिंदू परिवार अपनी मातृभूमि छोड़कर भारत चले आये।

हमने भी भारत जाने का फैसला किया. लेकिन, मेरे जीवन में एक भयानक दुर्घटना के कारण हम नहीं आ सके। उस सुबह, मैं और मेरी उम्र के तीन दोस्त लुका-छिपी खेलने के लिए अपने घर से कुछ दूरी पर एक बगीचे में गए। बगीचे में या कर मैं एक बड़ा पेड़ पर चड़ गया और जिस शाखा पर मैं खड़ा हुया था वह अचानक टूट गई और मैं निचली शाखाओं से टकराकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। मुझे गिरता देख कर मेरे एक साथी ने दौड़कर घर में सूचना दी, मेरे पिता आये और मुझे उठाकर घर आये। तब गांव में कोई डॉक्टर नहीं था। घर लाए जाने के बाद लगभग दस घंटे की विभिन्न कोशिशों के बाद मुझे धीरे-धीरे होश आया। होश में आने के बाद मेरे पूरे शरीर में तेज दर्द हो रहा था और मैं अपने प्रयासों के बावजूद करवट लेकर लेट नहीं पा रहा था और अपने हाथ-पैर ठीक से नहीं हिला पा रहा था। उस दुर्घटना के बाद माँ की अथक सेवा और देखभाल से लगभग छह महीने बाद मेरा पुनर्जन्म हुआ और माँ की मदद से मैं फिर से खड़ा होने और चलने में सक्षम हो सका।

बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों के अदम्य साहस, आत्म-बलिदान और भारतीय सेना के प्रत्यक्ष समर्थन से खूनी युद्ध समाप्त हुआ और १५ दिसंबर, १९७१ का दिन बांग्लादेश के विजय दिवस के रूप में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। बांग्लादेश की आज़ादी के बाद मेरे जीवन के दो और वर्ष बेकार गुज़रे। इसी बीच मेरे पिता की अत्यधिक नशे की लत के कारण हमारे परिवार में अत्यधिक गरीबी आ गई और मेरी पढ़ाई भी बंद हो गई। मेरी शिक्षा फिर से शुरू करने के लिए, मेरे नानाजी मुझे गंगारामपुर गाँव में अपने यहाँ ले गए। चूँकि मुझे पढ़ना अच्छा लगता था, इसलिए मैं अपने नानाजि के घर पर रहते हुए रामायण, महाभारत, पुराणादि और कई पारंपरिक लेखकों की लगभग सभी किताबें छिप कर पड़्ता था। लेकिन नानाजि के घर पर ज्यादा दिन रुकना संभव नहीं हुया था। मेरे नानाजि के घर पर मेरी किशोरावस्था के दौरान, मेरे पिता ने मुझे नए सिरे से जीने की कोशिश करने के लिए भारत जाने का निर्देश दिया।

अध्याय तीन

किशोरकाल में शुरु हुया मेरी यात्रा अनिश्चित भविष्य की ओर

मैं अपने पिता के निर्देशन और प्रबंधन में एक दिन एक व्यक्ति के साथ भारत आने के लिए निकाल पड़ा। घर छोड़ने से पहले पिताजि ने बताया कि उन्हे कुछ दिनों में घर के सभी लोगों के साथ भारत मे चले आएंगे। जिस आदमी के साथ पिताजी ने मुझे भेजा था, उसका घर बांग्लादेश सीमा पर था, जहाँ से भारत में पश्चिम बंगाल का हकीमपुर बहुत करीब था। उस रात उस आदमी के घर से मैं अगली सुबह उसके साथ चल पद़ा और वहां से बस पकड़ कर हकीमपुर आया और दोपहर तक मछलंदपुर पहुंच गया। मछलंदपुर पहुंचने के बाद उस आदमी ने मुझे यसोहर मिष्ठान्न भंडार नामक एक बड़ी मिठाई की दुकान में ले गया। फिर मुझे बैठाया और दुकान के मालिक के पास जाकर कुछ कहा और उस्के बाद मुझे दुकान के मालिक के पास ले गया और कहा कि अब से तुम यहीं रहोगे और इसी दुकान में काम करोगे। दुकान का मालिक तुम्हें दो वक्त का खाना देगा और १५ रुपये महीना देगा। मैं किसी तरह एक अजीब सी घबराहट में अपना सिर हिला पाया। मैंने अपना परिचित बचपन और किशोरावस्था, बहुत प्रिय गांओ का जीवन, अपनी प्यारी मातृभूमि को छोड़ दिया, और एक पूरी तरह से मित्रहीन, अपरिचित, ईंट-पत्थर वाले शहर में एक नया जीवन शुरू किया। उस मिठाई की दुकान का मालिक बहुत सज्जन और संवेदनशील था। मिठाई की दुकान वाले के घर से मेरे लिए दो वक्त का खाना आता था। दुकान में मेरा काम ग्राहकों के दुकान में बैठने और मिठाई खाकर चले जाने के बाद टेबल साफ करना और कप-प्लेट धोना था। मेरे अलावा दो और लोग भी ऐसा ही करते थे। सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं दुकान बंद करके रात के करीब 11 बजे दुकान के अंदर बेंच पर सो जाता था और सुबह 6 बजे से पहले उठ जाता था। कुछ ही दिनों में मुझे धीरे-धीरे इस जिंदगी की आदत हो गई और मैं बेसब्री से पापा, मम्मी, भाई-बहनों के आने का इंतजार करने लगा।

आख़िरकार लगभग तीन महीने बाद पिताजि पूरे परिवार के साथ भारत आ गये। भारत आ कर और मछलंदपुर में मिठाई की दुकान के मालिक से बात करने के बाद, मेरे पिताजि मुझे ले गए और शचीन्द्रनाथ चौधरी के घर में अस्थायी आश्रय लिया, जो बहुत समय पहले हमारे गाँव से भारत मे चले आये थे और मछलंदपुर में अपने परिवार के साथ रह रहे थे। वहीं, शचीन्द्रनाथ चौधरी के पांच बेटे, तीसरे और चौथे, लगभग मेरी और मेरे छोटे भाई की उम्र के ही थे। वो दोनों भाई लोकल ट्रेन में मोमफलि बेचा करते थे। उनके घर याने का दो दिन बाद लोकल ट्रेन में मोमफलि बेचने की तरिका जानकर हम दोनों भाई लोकल ट्रेन में उनके साथ निकले और मोमफलि बेचने लगे। शचीन्द्रनाथ चौधरी का परिवार बहुत बड़ा था और उनके साथ रहना हमारे लिए कठिन था क्योंकि घर में आवश्यकता से कम जगह थी।

कुछ महीनों तक ऐसे ही रहने के बाद हम वहां से चले गए और गोबरडांगा के चंडीतला में पिताजी के दोस्त अजीत घटक के घर में शरण ली, जो कभी हमारे गांव में रहते जब मैं गोबरडांगा के चंडीताला में रह रहा था, थे। एक दिन मेरे पिताजि मुझे वहां से कोलकाता का बेलगाचिया में ललित स्मृति छात्रावास में ले गए कैंटीन में काम करने के लिए। और उस छात्रावास में आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज के छात्र रहते थे। इस सन्दर्भ में बता दें कि पिताजि के पास विभिन्न कार्यों में असाधारण योग्यता थी, उनमें से एक थी खाना पकाने में उनकी कुशलता। उस कैंटीन को चलाने का ठेका अजीत घटक के छोटे भाई असित घटक ने लिया था। उस कैंटीन में मेरा काम सब्जियाँ काटना और धोना, घर का साफाइ करना, छात्रों के खाने के बाद टेबल साफ करना और बर्तन धोना था और मेरे पिताजि का काम खाना बनाना था। मुझे नहीं पता था कि हमारे बीच इस काम के लिए पापा को कितनी सैलरी मिलती थी। कुछ महीनों तक वहां काम करने के बाद हम गोबरडांगा वापस चले गए और लौटने के दो दिन बाद मैंने फिर से लोकल ट्रेन में घूम-घूमकर बादाम बेचना शुरू कर दिया।

फिर १९७७ के अंत में हम हृदयपुर चले आये। हृदयपुर आकर हमने रेलवे लाइन के किनारे एक छोटा सा घर बनाया और वहीं रहने लगे। हृदयपुर आने के बाद कुछ ही दिनों में मैंने बादाम बेचना छोड़ दिया और बारासात कोर्ट के पास एक दुकान में 2 रुपये की दैनिक मज़दूरी पर काम करने लगा। उस दुकान में हर दिन सुबह ७ बजे से रात १० बजे तक काम करना पड़ता था। उस दुकान में काम शुरू करने के कुछ ही दिन बाद, एक शाम मेरे पिताजि ट्रेन की चपेट में आ गए और ४५ साल की उम्र में हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए। गोपाल घोष, अमर सिंह और पड़ोस के कई अन्य लोग जहां हम रहते थे, हमारे कठिन समय के दौरान हमारे साथ सहानुभूति रखते थे और उनकी वित्तीय मदद से हम किसी तरह पिताजि के अन्तिम संस्कार का काम कर पाये।

, जिन्होंने बाबा की असामयिक मृत्यु के कारण हमारी अवर्णनीय गरीबी में मदद का हाथ बढ़ाया उनमें गोपाल घोष और अमर सिंह का परिवार भी शामिल था। हम दोनों भाइयों की दैनिक कमाई तीन-चार रुपये थी। उस छोटी सी आय में पांच लोगों को दो वक्त का पेट भरके खाने का बन्दोबस्त करना नामुमकिन था। हमें दो वक्त का खाना खिलाने के लिए मां उल्टोडांगा में एक अगरबत्ती फैक्ट्री मे काम करने लगे, जहां से उन्हें रोजाना औसतन डेढ़ से दो रुपये की कमाई होती थी। इसके अलावा, गोपाल घोष और अमर सिन्हा के परिवार कभी-कभी हमें अपना बचा हुआ खाना देते थे, जो उस समय हमारी भूख को संतुष्ट करने में बहुत मदद करता था।

१९७८ के मध्य में, मैंने दुकान छोड़ दी और घर के पास दत्ता प्रिंटर्स नामक एक प्रेस में प्रिन्टिगं का काम सीखना शुरू कर दिया। वहां बांग्ला और अंग्रेजी में कंपोजीशन सीखने के बाद करीब छह महीने बाद जब मैं काम के लायक हो गया तो १५० रुपये प्रति माहिने कमाने लगा। प्रेस में मेरी प्रशिक्षुता के दौरान हमारे परिवार में अनटन और भी गंभीर हो गया था और मेरी माँ कभि कभि दिनभर भूखी रहकर जितना संभव हो हम चार भाइ-बहनो को उतना खाना खिलाने का कोशिश करति थी। १९७९ में मेरी बड़ी बहन की शादी कोलकाता में हो गई और १९८२ में मेरी छोटी बहन की शिलिगुड़ि मे शादी हो गई। दोनों बहनों की शादी का अधिकांश खर्च मेरे बड़े मामा ने किया और बाकी हमारे पड़ोस के सभी शुभचिंतकों ने किया। संयोग से, मेरी दोनों बहनों का विवाह में दूल्हे का कोई दावा नहीं था, और यदि कोई दावा होता भी तो हमारी आर्थिक स्थिति के कारण उसे पूरा करना संभव नहीं था।

दो बहनो की शादी के बाद सितम्बर १९८३ में प्रेस की प्रिंटिंग मशीन पर काम करते समय दुर्घटनावश मेरे दाहिने हाथ के तीन उंगलियाँ बुरि तरह से टूट गईं। दुर्घटना के लगभग तुरंत बाद, मुझे निकटतम डॉक्टर बिभु चक्रवर्ती के पास ले जाया गया, जिन्होंने बोला कि मेरा तीन उंगलियां काटनी पड़ सकती हैं और मुझे तुरंत मेडिकल कॉलेज ले जाने के लिए कहा। डॉ. विभु चक्रवर्ती की सलाह पर, मुझे उस रात मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाया गया और डॉ. सुनील टैगोर के अधीन भर्ती कराया गया। अस्पताल में भर्ती होने के बाद, चूंकि बिस्तर उपलब्ध नहीं था, मुझे बारान्दा में लिटाए जाने के कुछ ही क्षणों के भीतर, कुछ डॉक्टर आए और मेरी टूटी हुई उंगलियों को अच्छी तरह से साफ किया, उन पर मलहम और इंजेक्शन लगाए। ५-६ दिनों के बाद अगले दिन से मुझे प्रतिदिन नियमित रूप से दवाएँ और इंजेक्शन देने कि बाद डॉक्टर ने मेरी उंगलियों से पट्टी हटा दी और घाव की जांच करने कि बाद कहा, "चलो, उंगलियां सुरक्षित हैं"। इसके दो दिन बाद एक नई समस्या शुरू हो गई - कुछ मांगों को पूरा करने के लिए डॉक्टरों की लगातार हड़ताल, जो काफी लंबे समय तक चलती रही। डॉक्टर की हड़ताल शुरू होने के अगले दिन, मुझे गंभीर भटकाव और भयानक कमजोरी के साथ तेज बुखार हो गया। चूँकि डॉक्टर हड़ताल पर थे, अस्पताल में ड्यूटी पर मौजूद नर्सों ने मलेरिया बुखार की दवा दी, हालाँकि दवा मेरी बीमारी पर बिल्कुल भी असर नहीं कर रही थी। जब मैं अस्पताल में भर्ती था, तब मेरी मां हृदयपुर से ट्रेन से आ कर सियालदह उतरने और पैदल मेडिकल कॉलेज जाने के बाद हर दिन दोपहर के समय मेरे लिए खाना लाती थीं। मां को कोलकाता की सड़कों के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी और वह कभी-कभी बड़ाबाजार या हेदुआ की ओर भटक जाती थीं। जब उन्हे गलत रास्ते पर होने का एहसास हुआ तो वह राहगीरों से पूछकर मेडिकल कॉलेज पहुंचति थो। इस बीच, जब मेरी बीमारी बढ़ती गई और शारीरिक कमजोरी बढ़ती गई, तो २१ दिनों के बाद मैंने अस्पताल से छुट्टी ले ली और अपने दोस्त तापस पाल की मदद से घर लौट आया। वापस लौटने के बाद डॉ. विभू चक्रवर्ती घर आए, मेरी शारीरिक स्थिति की जांच की और कहा कि मुझे टाइफाइड है और तदनुसार दवा दी। उस दवा को लेने के तीन दिन के भीतर मेरा बुखार और अन्य लक्षण ठीक हो गए। अस्पताल से घर लौटने के बाद, लगभग तीन महीने के पूर्ण आराम के बाद, धीरे-धीरे अपनी टूटी उंगलियों को हिलाने में सक्षम होने के बाद मैंने प्रेस का काम फिर से शुरू कर दिया।

१९८५ में, दुर्गा पूजा के दौरान, जब मैं प्रेस में नियमित रूप से काम करता था तो मेरी छोटी बहन और बहनुइ सिलीगुड़ी से हामारा घर आ कर मुझे बोल कि उनका एक दादाजि शिलिगुड़ि कोर्टमे वकालत करते है, आगर हम उनके पास काम करने के लिये राजि है तो ओ उनसे बात करेंगे। मेरा बहनुइ का बातो मे मै राजी हो गया किंउ कि उस समय मैं २५० रुपये मासिक वेतन पर प्रेस में काम कर रहा था और कम आय के कारण परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से चल रहा था। इसलिए मैंने छोटी बह्नुइ का प्रस्ताव मान लिया। सिलीगुड़ी लौटकर छोटी बह्नुइ ने अपने वकील दादा से बात की और मुझे जल्द से जल्द सिलीगुड़ी जाने के लिए कहा और मैंने देर नहीं की, नवंबर १९८५ में प्रेस की नौकरी छोड़ दी और सिलीगुड़ी चला गया एक नया उज्ज्वल भविष्य का सपना लेकर और अपनी माँ और छोटे भाई को हृदयपुर में अत्यधिक अनिश्चितता में छोड़ कर।

अध्याय चार

मेरा नया कार्यस्थल सिलीगुड़ी

छोटी बहिन कि पति के कहने पर नवंबर १९८५ में मैंने प्रेस का काम छोड़ दिया और प्रसिद्ध वकील जगदीश चंद्र घोष के पाश काम में शामिल होने के लिए सिलीगुड़ी चला गया। शुरुआत में काफी प्रतिकूलताओं का सामना करने के बावजूद जगदीश चंद्र घोष ने स्वयं जीवन में जबरदस्त सफलता हासिल की। मैट्रिक के बाद उन्होंने मोक्तारी पास की और १९५५ में सिलीगुड़ी कोर्ट में मोक्तार के रूप में अपना करियर शुरू किया। बाद में, जैसे ही अधिवक्ता अधिनियम अधिनियमित हुआ, उन्होंने उस अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक वकील के रूप में वकालत शुरु किया। वकालत के पेशे से अर्जित धन से उन्होंने एक भाई को जादवपुर से सिविल इंजीनियरिंग, एक भाई को बांकुरा मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री दिलाई। और छोटे भाई ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. पास की और चार बहनों की शादी अच्छे दुल्हे से की। इसके अलावा उन्होंने अपने बेटे को लंदन से एलएलबी की डिग्री दिलाई और बैरिस्टरी पास कराये।  उनकी एक बेटी थी जिसने हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद पढ़ाई नहीं की।

जगदीश चंद्र घोष से जुड़ने के बाद, पहले कुछ दिन मुझे यह समझने में बित गये कि मुझे क्या करना है। अदालत में विभिन्न मामलों से संबंधित कार्यों में, सभी मामले के दस्तावेजों को उचित रूप से व्यवस्थित करना, अदालत में विभिन्न मामलों में नियमित रूप से आवश्यक कदम उठाना मुवक्किलों के साथ नियमित रूप से संयोग करना, अदालत से मामले की अगली तारीख प्राप्त करना और प्रतिदिन सुबह-शाम सेरेस्ता में बैठकर मुवक्किलों को सूचित करते हुए मामले के अनुसार विभिन्न प्रकार दरखास्त की टाइपिंग करना, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के संबंधित निर्णयों वाली विभिन्न पुस्तकों को पैक कर अगले दिन न्यायालय में ले जाता था। याचिकाएं आदि यहां मैं आपको बता दूं कि जगदीश चंद्र घोष से जुड़ने के कुछ महीने बाद मैंने एक टाइपिंग स्कूल से टाइपिंग सीखी, जिससे मुझे टाइपिंग से कुछ अतिरिक्त आय होने लगी। इस नौकरी में कोई मासिक वेतन या नियमित आय नहीं थी। हर महीने की आमदनी इस बात पर निर्भर करती थी कि उस महीने में जगदीश बाबू का कितने मुकदमे लड़े थे, कितनी ज़मीन और मकान के दलिले बानाये थे और उन कामों से कितनी कमाई हुई थी। इस नौकरी में शामिल होने के बाद मैंने पहले महीने में लगभग ८०० रुपये कमाए थे। बाद में मेरी मासिक कमाई धिरे धिरे काफी बढ़ गई। सिलीगुड़ी जाने के बाद मैं पहले कुछ महीनों तक अपनी छोटि बहिन के घर पर रहा। बाद में, जब आमदनी थोड़ी बढ़ी तो मैंने १९८६ के बिच में एक मकान किराए पर लिया और अपनी मां को हृदयपुर से सिलीगुड़ी ले गया। हालाँकि उस समय इतनी आर्थिक सुविधा नहीं थी, फिर भी मेरी माँ आशा की एक किरण देखकर बहुत खुश हुई क्योंकि आर्थिक कठिनाई दूर हो गई और अत्यधिक निराशा और असहनीय पीड़ा समाप्त हो गई। कुछ वर्षों तक जगदीशबाबू के काम में शामिल होने के बाद उन्होने मुझ पर बहत निर्भर करने लागे। उस समय उन्होने सभी प्रकार के आवेदन पत्र, दस्तावेज़ आदि स्वयं लिखकर मुझे देते थे और कह्ते थे अशोक उन्हें ध्यान से जाँच करो और देखो कोई गलती तो नहीं है। यदि हाँ, तो इसे सुधारें और टाइप करें। इसके अलावा, कभी-कभी वह मुझे सामान्य याचिकाओं, दस्तावेजों, मकान किराया समझौतों आदि के मसौदे देते थे और विभिन्न मामलों में वह मुझसे विभिन्न पुस्तकों (लॉ जर्नल) से विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा घोषित उचित निर्णयों का पता लगाने के लिए कहते थे जो ऐसे ही मामलों में अदालतें हमारे मुवक्किलों के मामलों की लिये लाभदायक होती हैं। सिलीगुड़ी में रहने के दौरान मैं कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों के संपर्क में आया, जिनमें से एक श्री अनुप देव थे, जिन्हें बाद में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। जगदीश बाबू को सीमा शुल्क एवं केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में वकील के रूप में नियुक्त किया गया और मेरी कई सीमा शुल्क एवं केंद्रीय उत्पाद शुल्क अधिकारियों से गहरी दोस्ती हो गयी, जो आज भी कायम है।

इस बीच, १९८६ के अंत में, मेरे छोटे भाई ने हृदयपुर में रहते हुए अपनी पसंद से शादी कर ली, और १९८७ के अंत और १९८९ के बीच, मेरे भाई की दो बेटियों का जन्म हुआ। उस समय, जब मेरी आय थोड़ी बढ़ गई, तो मैं १९८९ के अंत में अपने भाई को हामारा साथ रहने के लिए सिलीगुड़ी ले आया। सिलीगुड़ी आने के बाद, मेरे भाई ने २००० रुपये के मासिक वेतन पर एक दुकान में नौकरी कर ली, जिससे वह परिवार की जरूरतों की तुलना में बहुत कम पैसे खर्च कर पाता था। मेरे भाई की दोनों बेटियाँ बहुत प्यारा थि और मुझसे बहुत प्यार करती थीं।

जगदीश बाबू अपनी बेटी की शादी के लिए काफी चिंतित थे, लेकिन अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण, उन्हें उपयुक्त दुल्हा की तलाश करने का समय नहीं मिलत था। एक दिन उन्होने बातों बातों में मेरे रिश्तेदारों के बारे में पूछा तो मैंने उसे अपने मामा के बारे में विस्तार से बताया। उस समय दुर्गापुर में मेरे बड़े मामा का पाश रहे कर मेरे चौथे मामा एम.ए. पाश करके नौकरी पाने की कोशिश कर रहा था। तब जगदीश बाबू ने मुझे सुझाव दिया कि मैं मामाओं से बात करूँ, अगर दूल्हा-दुल्हन देखने के बाद दोनों परिवार सहमत हो जाएँ तो मेरे चौथे मामा के साथ उनकी बेटी से शादी हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि वह मेरे चौथे मामा के लिए एक अच्छे चाय बागान में सहायक प्रबंधक के रूप में नौकरी की व्यवस्था करेंगे। ऐसे में बता दें कि चाय बागान के असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी काफी आकर्षक थी. फिर मेरी मध्यस्थता और दोनों पक्षों की सहमति से दिसंबर १९९० में मेरे मामा और जगदीशबाबू की बेटी की शादी हो गयी।

मेरे मामा की शादी के एक साल बाद मेरी माँ और अन्य रिश्तेदार मुझ पर शादी के लिए दबाव डाल रहे थे, लेकिन मैं नहीं मान रहा था। क्योंकि उस समय, मेरे भाई के परिवार, माँ और मुझे मिलाकर छह लोग, एक किराए के घर में रहते थे, मेरी भाइ का दो बेटियों का स्कूल में दाखिला कराते थे और उनकी शिक्षा और घर के अधिकांश खर्चों की ज़िम्मेदारी उठाते थे, इस लिये शादी करने का यह सोचना मेरे लिए एक विलासिता थी। शादी करने मे  मेरी आपत्ति के बावजूद मां ने मेरे लिए दुल्हन चुनी और उसकि तसबिर लाके मुझे दिखाने कि बाद कहा कि उसकि साथ मुझसे शादी करना है।

मैं शादि करने मे माँ कि साथ सहमत नहीं था, इसलिए उस लेड़्कि को मेरे किराया का घर के पास उसकी दिदि के घर लाने की व्यवस्था की गई और उसे मुझे दिखाया गया। मेरे फैसले से मेरी माँको बहुत दुख हुया और कुछ दिनों के बाद वह दुर्गापुर में अपनी भाइ के पास चली गईं और कुछ दिनों के बाद वह बेहाला में दीदी के पास चली गईं। लगभग छह महीने तक हमें छोड़ने और दिदि के साथ रहने के बाद, मैंने अपना मन बदल दिया और शादी करने के लिए सहमत हो गई और अपने भाई से मेरी माँ को लाने के लिए कहा। भाई अगले दिन कोलकाता गया और मां को बेहाला में दीदी के पास से ले आया। फिर १२ दिसंबर १९९४ को मेरी शादी सिलीगुड़ी के देशबंधुपाड़ा के राधापद बोस की दूसरी बेटी मीना बोस से हुई। हमारी शादी के दो साल बाद, ३१ दिसंबर, १९९६ को एक शुभ क्षण में, मेरे इकलौते बेटे के जन्म ने हमारे परिवार के सभी सदस्यों के जीवन में खुशियाँ और आनन्द ला दिया। मेरे बेटे के जन्म के अगले दिन, जब मैं उसे घर लाया, मेरी पत्नी बहुत बीमार पड़ गई और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और लगातार १७ दिनों तक अस्पताल में इलाज के बाद, मैं उसे घर ले आया। मेरा नवजात पुत्र दुर्भाग्यशाली था कि उसकी माँ के स्तन में दूध सूख जाने के कारण वह माँ के दूध से पूरी तरह वंचित हो गया। मेरे बेटे का दो नाम मेरी माँ ने रखा, एक नाम रिभु और दुसरा नाम अनिरुद्ध। इन दो नामों के अलावा मेरी माँ उसे प्यार से धनो कहकर बुलाती थी। दरअसल, मां बेहद प्यार से उन्हें धन शब्द से धनो बुलाती थीं। माँ उसे प्रतिदिन धूप में लिटाती, उसके पूरे शरीर पर अच्छे से तेल मालिश हाल्का गरम पानी से नहलाती थि। मेरी दो बहनो कि दो लड़के हैं, जिसकी  पयदा होने का समय भि माँ दोनो कि बच्चों की उचित देखभाल करती थी और कुछ महीनों के बाद मेरे पास लौट आती थी।

मेरे जीवन का सबसे कठिन और दुखद दौर मेरी शादी के कुछ महीनों बाद शुरू हुआ। एक ओर, मेरी माँ के सभी गुणों और सहनशीलता के बावजूद, वह कभी भी किसी भी चीज़ के लिए दूसरों पर निर्भर करना पसंद नहीं करती थीं और उम्मीद करती थीं कि घर में हर कोई उनकी बात माने। दूसरी ओर, मेरी पत्नी काफी घरेलू महिला है और मेरे प्रति उसके अटूट प्रेम के बावजूद, किसी की बात सुनना बिल्कुल भी पसंद नहीं करती। मेरी पत्नी के अड़ियल चरित्र का कारण मुझे यह समझ आया कि मेरे ससुर की पाँच संतानों, चार लड़कियाँ और एक लड़का में से मेरी पत्नी दूसरी संतान थी और वह मेरे ससुराल की हर चीज़ पर हावी थी। नतीजा यह हुआ कि मेरी मां और मेरी पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर कभी-कभार बहस होने लगी और दोनों के रिश्ते में दरार आ गई, जो लगातार बढ़ती गई। मैंने उन दोनों को विभिन्न तरीकों से समझाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका। धीरे-धीरे दोनों के बीच बातचीत बंद हो गई, जो मेरी मां के जीवन के आखिरी दिनों तक जारी रही। जीवन के अलग-अलग समय में माँ को कई लोगों से मिली चोटें, जीवन भर अकथनीय कष्ट और मेरी पत्नी द्वारा माँ के साथ किया गया व्यवहार, विशेषकर जिसे वह मेरी आपत्तियों के बावजूद बहू के रूप में घर ले आई, माँ के मन पर गहरा प्रभाव डाला, जिसके लिए उन्होंने मानसिक रूप से बहुत परेशान था। जब परिबार मे ऐसा अशांति का माहौल था ओर मुझे अधिक धन की आवश्यकता थी, मेरी आय पहले की तुलना में कम होती गयी। ऐसि असहनीय स्थिति चलते चलते मेरा बेट का उम्र सात महीने हो गया। बचपन में मेरा बेटा इतना सुंदर था कि जो कोई भी उसे देखता वह उसे उठाकर गले लगाना चाहता था। मेरे और बाकी सभी के लिए सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि मेरे बेटे का बहुत छोटी उम्र से ही मेरे प्रति अजीब आकर्षण था। उसे मेरी गोद में रहना सबसे ज्यादा पसंद था। जब भी वह रोती तो मैं उसे गले लगा लेता ओर वह शांत हो जाती।

जब मैं ऐसी स्थिति से गुजर रहा था, मेरे मामा जो चाय बागान में काम करते थे और उन्होंने जगदीशबाबू की बेटी से शादी की थी, मेरी दादी कई महीनों के लिए उन मामा के पास रहने आ गईं। जगदीशबाबू की बेटी यानि मेरी मामी कुछ दिन बाद बाद माइके आती रहती थीं। जब भी मामी पिता के घर आते थे वो आपना पिता से कुछ ना कुछ शिकायत करति थि, तो अपनी बेटी की शिकायत के आधार पर जगदीशबाबू मेरी दादी के बारे में ऐसी टिप्पणियाँ करते थे, जो मुझे बिल्कुल अविश्वसनीय लगती थीं। क्योंकि, मेरी दादी एक दयालु और बहुत ही सरल इंसान थीं और उन्होंने कभी भी किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जिससे उन्हें तकलीफ हो। पहले तो मैंने जगदीशबाबू की शिकायत के जवाब में कहा कि मेरी दादी बहुत भोली-भाली इंसान हैं, वह ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती हैं? जगदीशबाबू का जवाब था - आप ऐसा इसलिए कहेंगे क्योंकि "Blood is thicker than water"।

एक तरफ घटती आय और पारिवारिक अशांति और दूसरी ओर कर्म्स्थल मे अप्रिय स्थितियों के संयोजन के कारण मैंने एक बार आत्महत्या के बारे में सोचा था। लेकिन जल्द ही मैंने ऐसे विचारों को अपने दिमाग से निकाल दिया क्योंकि मुझे अपने जीवन से भी अधिक प्यारे बच्चे के लोये सपने को साकार करना है और मैं अपने परिवार को, जो मैंने शून्य से बनाया था, नष्ट होने देकर अपनी माँ को उनके जीवन का सबसे क्रूर आघात नहीं दे सकता। आख़िरकार मैंने अपना धैर्य खो दिया और अगस्त १९९७ के दूसरे सप्ताह में बिना किसी को बताए नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपनी माँ, पत्नी और छोटे बेटे को अपने छोटे भाई के पास छोड़कर अज्ञात मार्ग पर निकल गया। जब मैंने सिलीगुड़ी छोड़ा, तो मैंने कागज के एक छोटे से टुकड़े पर लिखा, "परिबार में लगातार उथल-पुथल से निराश होकर, मैं अज्ञात के रास्ते पर निकल पड़ा। मेरी तलाश मत करो अगर मैं जीवन में कुछ कर पायेंगे तो वापस आऊंगा।

अध्याय पांच

मेरी शिक्षा

जैसा कि पहले बाताया, प्राथमिक स्तर के बाद मेरे पास औपचारिक शिक्षा का कोई अवसर नहीं था और न ही कोई वित्तीय सहायता थी। भयानक बाधाओं के बावजूद, मुझमें शिक्षा प्राप्त करने की तीव्र इच्छा थी। शिक्षा की इस तीव्र इच्छा से प्रेरित होकर, हृदयपुर में रहने के दौरान, मैं शाम को काम से लौटने के बाद अपने पड़ोस में आठवीं, नौवीं और दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले सभी लड़कों से एक एक विषय पर एक एक किताब लाया करता था। इसके अलावा, मैं और मेरी मां कई लोगों से प्रसिद्ध लेखकों द्वारा लिखी गई विभिन्न कहानियों और उपन्यासों की किताबें लाकर पड़ते थे। हृदयपुर में हमारे एलाका में के पदक्षेप क्लब के सौजन्य से मुझे और मेरी माँ को असंख्य किताबें पढ़ने का अवसर मिला। पदक्षेप क्लब में एक छोटी सी लाइब्रेरी थी जिसमें लगभग पाँच हजार किताबें थीं और हर रविवार को यह लाइब्रेरी सदस्यों से किताबे लेने और देने के लिए खोली जाती थी। मैं नियमित रूप से उस पुस्तकालय से अलग-अलग किताबें लाता था और अपनी माँ के साथ पढ़ता था। किताबें पढ़ने में मेरी रुचि देखकर क्लब ने मुझे कुछ ही दिनों में लाइब्रेरी की देखभाल की जिम्मेदारी दे दी, इसलिए मैं सप्ताह में एक किताब के बजाय पाँच या छह किताबें ले आता था और पूरे सप्ताह मैं और मेरी माँ पढ़ते थे। उसके बाद १९८५ के अंत में जब मैं हृदयपुर से सिलीगुड़ी चला गया, तब तक मैं उस पुस्तकालय की अधिकांश पुस्तकें पढ़ चुका था।

सिलीगुड़ी जाकर जगदीश चंद्र घोष के पाश काम से जुड़ने के बाद मैंने अंग्रेजी की शिक्षा शुरू की। वकीलों को अपनी व्यावसायिक आवश्यकताओं के लिए कानूनी पुस्तकों का एक बड़ा संग्रह रखना पड़ता। सिलीगुड़ी के वकीलों में, जगदीश बाबू की कानूनी पुस्तकों की मात्रा सबसे बड़ी और काफी उल्लेखनीय थी। मैंने उनकी बड़ी संख्या में विभिन्न कानून की किताबें नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया। मैंने बिना किसी ब्यक्ति की मदद के सिर्फ डिक्शनरी की मदद लेकर अंग्रेजी सीखना, बोलना ओर लिखना शुरू किया। इस प्रकार, अपनी अंग्रेजी शिक्षा के अलावा, मैंने विभिन्न बांला कहानियाँ और उपन्यास भी संग्रह किए और खरीदे, जिन्हें मैंने और मेरी माँ ने पढ़ा। हालाँकि प्राथमिक स्तर के बाद औपचारिक शिक्षा प्राप्त करना मेरे लिए संभव नहीं था, फिर भी मैंने जीवन भर खुद को इसी तरह से शिक्षित करने का प्रयास किया है। मैं अपनी मां और दादाजी का सदैव आभारी रहूंगा, जिन्होंने मुझमें शिक्षा के प्रति तीव्र इच्छा पैदा की।

अध्याय छह

सिलीगुड़ी से मेरा कोलकाता आगमन

१९९७ के दूसरे सप्ताह में बिना किसी को बताये मा, पत्नी और नान्हा बेटे को मैं अपने छोटे भाई के पास राख कर सिलीगुड़ी छोड़कर कोलकाता मे बेहाला आ कर मेरी दिदि के पास आया और आने का कारण भि बाताया। मेरा दिदि बहुत स्नेही हैं और मेरे जिजा भी। फिर मैं कुछ महीनों तक अपनी दिदि के पास रहा। जब वह वहां थी, तो वह मुझे मेरे दैनिक खर्चों के लिए कुछ पैसे भि देती थी। दीदी के वहां आने के कुछ दिन बाद मैं नौकरी ढूंढने लगा।

मैं नौकरी की तलाश में निकाल कर सबसे पहले स्ट्रैंड रोड स्थित सीमा शुल्क कार्यालय में इस आशा के साथ गया कि शायद मेरे करीबी कोई अधिकारी उंहापे जरुर होंगे जो सिलीगुड़ी से स्थानांतरित होकर कोलकाता कार्यालय में शामिल हुए थे और उनमें से कोई मेरी मदद करने में सक्षम हो सकता है मुझे नौकरी दिलाने मे। सौभाग्य से मुझे वहां मेर कुछ करीबी अधिकारी मिल गये। उन अधिकारियों में सुजन दास और सुजीत चक्रवर्ती भी शामिल थे। मेरी सारी बातें यथासंभव संक्षेप में सुनने के बाद उन दोनों ने मुझे आश्वासन दिया कि वे मेरी नौकरी के लिए अवश्य अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेंगे। कुछ दिनों बाद जब मैं सुजन दास और सुजीत चक्रवर्ती से दोबारा मिला, तो उन्होंने मुझे बताया कि तब तक मेरी नौकरी का कोई प्राबन्धि संभव नहीं हुया, हालांकि वे कोशिश कर रहे थे। उस साक्षात्कार के अंत में, सुजनबाबू मुझे स्टेट्समैन अखबार के कार्यालय में ले गए और अपने खर्च पर नौकरी चाहने वाले कॉलम में मेरे नाम का विज्ञापन करने की व्यवस्था की। उस विज्ञापन के प्रकाशित होने के बाद मुझे कई नौकरी के प्रस्ताव मिले। चूँकि मुझे जिन कंपनियों से प्रस्ताव मिले उनमें से कोई भी प्रति माह १००० रुपये से अधिक का भुगतान करने के लिए तैयार नहीं थी। अंततः मैं अक्टूबर १९९७ में न्यू अलीपुर में इंटरनेशनल पैकर्स एंड मूवर्स नामक कंपनी में १००० रुपये प्रति माह पर टाइपिस्ट के रूप में शामिल हो गया।

जब मेरी दिदि कि वहां थीं, मैं पड़ोश्बाले के घर से अंग्रेजी दैनिक "द टेलीग्राफ" लाता था और उसे पढ़ता था, खासकर "नोकरी खाली" पेज। जनवरी १९९८ के मध्य में एक दिन मैंने उस अखबार में एक अजीब नौकरी का विज्ञापन देखा। बांला में अनुवादित विज्ञापन का अर्थ है "यदि आपके पास अंग्रेजी बोलने और लिखने का अच्छा कौशल है तो कृपया नीचे दिए गए बॉक्स नंबर पर आवेदन करें"। हालाँकि विज्ञापन में कंपनी का नाम या उनके कार्याबलि के बारे में कोई विवरण शामिल नहीं था, मैं केवल अनुमान लगाया कि नौकरी में निश्चित रूप से अंग्रेजी में विभिन्न प्रकार के अनुबंध लिखना और बातचीत करना शामिल होगा। वैसे भी, विज्ञापन देखने के बाद मैंने अंग्रेजी में विभिन्न प्रकार के अनुबंध लिखने और आवश्यकतानुसार बोलने से संबंधित अपनी सामान्य शैक्षिक योग्यता और कार्य अनुभव के संक्षिप्त विवरण के साथ एक आवेदन लिखा और विज्ञापन में उल्लिखित बॉक्स नंबर पर भेज दिया।

एक शुक्रवार की रात, आवेदन भेजने के पंद्रह दिन बाद, अपनी दिदी के घर मे काम से लौटने कि बाद मुझे एक पत्र मिला। मैंने पत्र खोलकर देखा तो उसमें एस. जालान एंड कंपनी नामक एक सॉलिसिटर फर्म ने मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया लेकिन दुर्भाग्य से साक्षात्कार उसी दिन निर्धारित था। अगले दिन बड़ी उम्मीदों के साथ मैंने पत्र में लिखे फोन नंबर पर संपर्क किया और कंपनी के एक पार्टनर श्री नरेश बालोदिया से बात करने के बाद उन्होंने मुझे सोमवार सुबह १० बजे मिलने के लिए कहा. बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने विज्ञापन दिया था.'

सोमवार को एक निश्चित समय पर आशा और शंका के साथ में एस. जालान एंड कंपनी के दफ्तर पहुंचने के १० मिनट के अंदर ही नरेशबाबू ने मुझे अपने चैंबर में बुलाया। अपने कक्ष में प्रवेश करने के बाद उन्होंने मुझसे बैठने को कहा। मेरे बैठने के बाद उन्होंने मुझसे अदालत में दीवानी और आपराधिक मामलों के बारे में कुछ प्रश्न पूछे और मैंने प्रत्येक प्रश्न का सही उत्तर दिया। तब नरेशबाबू ने मुझसे विभिन्न मामलों पर बातचीत करने में मेरे अनुभव के बारे में पूछा, तो मैंने उन्हें विस्तार से बताया। जब सवाल-जवाब का सिलसिला खत्म हुआ तो उन्होंने ऑफिस से एक लड़के को बुलाया और मुझसे कुछ सफेद कागज और एक पेन देने को कहा और मुझसे कहा कि मैं उनके साथ जाऊं और ऑफिस के एक खाली कमरे में बैठकर जमीन की बिक्री के दलिल, बिक्री के समझौते नामा, हलफनामा, किराया समझौता नामा और जमानत के लिये आवेदन अंग्रेजी में लिखने के लिये बोला। नरेशबाबू के निर्देशों के अनुसार, मैंने सुबह 11 बजे शुरुआत की और शाम ५-३० बजे तक अनुबंध लिखना समाप्त करके नरेशबाबू को सौंप दिया। इस तरह साक्षात्कार से गुजरने के बाद, मैं नौकरी पाने को लेकर काफी आश्वस्त था। लगभग दो सप्ताह बाद मुझे दूसरे साक्षात्कार के लिए कॉल आया। मेरा दूसरा साक्षात्कार वहां के मैनेजिंग पार्टनर श्री अभिक साहा द्वारा बहुत संक्षिप्त रूप से आयोजित किया गया और मैंने उचित उत्तर दिया। दस दिन बाद मुझे तीसरे इंटरव्यू के लिए पत्र मिला। नियत तिथि पर तीसरे साक्षात्कार के लिए उपस्थित होने के कुछ ही समय बाद, एक व्यक्ति आया और मुझे एक बड़े कक्ष में ले गया, जहाँ एक भारी-भरकम दिखने वाला बुजुर्ग व्यक्ति बैठा था और नरेश बाबू उसके बगल में एक कुर्सी पर बैठे थे। बाद में मुझे पता चला कि उस बुजुर्ग व्यक्ति का नाम श्री श्यामानंद जालान था और वह वास्तव में एस. जालान एंड कंपनी के मालिक। उन्होंने मुझे अपने चैंबर में एक सोफे पर बैठने के लिए कहा। सोफे पर बैठे हुए, मैंने उसे मेरे द्वारा लिखे गए अनुबंधों को देखते हुए और कभी-कभी उन्हें रेखांकित करते हुए देखा। थोड़ी देर बाद वह मेरी ओर मुड़ा और केवल एक ही सवाल पूछा- मुझे कितना भुगतान मिलने की उम्मीद है। इस सवाल पर मैं अचानक थोड़ा घबरा गया और ढाई हजार रुपए महीना बताया। दरअसल, मैंने उस कंपनी का सैलरी स्ट्रक्चर नहीं जानते और नौकरी पाने के लिए ढाई हजार रुपए प्रति माह की बात कही। मेरा जवाब सुनने के बाद उन्होंने मुझे अगले दिन से कंपनी में कानूनी सहयोगी के रूप में शामिल होने के लिए कहा। उस कंपनी में शामिल होने के कुछ दिनों बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं वहां की वेतन संरचना के अनुसार बहुत कम वेतन मांगा था।

 

अध्याय सात

गहरी अन्धकार के बाद मेरे जीवन में एक नया सूर्योदय

हालाँकि मुझे अगले दिन से काम में शामिल होने के लिए कहा गया था, लेकिन मैंने कुछ समय लिया और २३-०३-१९९८ तारिख एस. जालान एंड कंपनी में मैं एक कानूनी सहयोगी के रूप में शामिल हुआ और सुनहरे भविष्य की ओर अपनी यात्रा शुरू की।

एस. जालान एंड कंपनी का दफ्तर पूरी तरह वातानुकूलित था। मेरे बैठने की जगह की मेज पर लिखने के सामग्री, सफ़ेद कागज़, नोटबुक और एक कंप्यूटर रखा हुआ था। मैंने अपने जीवन में पहली बार कंप्यूटर देखा और मुझे नहीं पता था कि इसका उपयोग कैसे करना है। मुझे सौंपी गई कुर्सी पर बैठने के बाद, नरेश बाबू ने मुझे तीन केस फाइलें दीं और उन्हें अलग से पढ़ने और अपनी राय लिखने के लिए कहा। उनके अनुसार मैंने फाइलें पढ़ीं और एक सारांश और अपनी राय लिखी और उन्हें तीन घंटे के भीतर जमा कर दिया और उन्हें पढ़ने के बाद वह काफी खुश हुए। मैंने देखा कि कार्यालय में लगभग सभी के डेस्क पर कंप्यूटर है और हर कोई कंप्यूटर पर टाइप कर रहा है। उस समय कंप्यूटर में वर्डस्टार, DOS आदि ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग किया जाता था। ताकि मैं अपने डेस्क पर कंप्यूटर पर काम कर सकूं, मैंने कुछ दिन यह सीखने में बिताए कि बाकी सभी लोग कैसे काम कर रहे हैं। इस तरह मैं लगभग एक महीने में कंप्यूटर पर अच्छी तरह टाइप करना सीख गया। हालाँकि मेरे लिये एक स्टेनोग्राफर नियुक्त किया गया था, लेकिन मैं स्वयं ही कंप्यूटर में टाइप करता था, जिससे मुझे बहुत कम समय में मुझे दिया हुया काम पूरा करने में मदद मिलती थी। मार्च में उस कंपानी में शामिल होने के बाद, मैं अपनी दिदि के घर छोड़ कर जुलाई माहिना में गोबरडांगा में एक घर किराए पर लिया।

एस. जालान एंड कंपनी में शामिल होने के छह महीने बाद, अपने काम से संतुष्ट होकर, अक्टूबर १९९८ से मेरा वेतन २५०० रुपये से बढ़ाकर ५००० रुपये कर दिया गया। वेतन में वृद्धि के बाद, मैंने आमतला के कन्यानगर में दो कमरे का घर किराए पर लिया और नवंबर में अपनी मां, पत्नी और बेटे को सिलीगुड़ी से ले आया। वहां दो महीने रहने के बाद, मैं जनवरी १९९९ में दो हजार रुपये प्रति माह पर दो कमरे का मकान किराए पर लेकर बारासात के पास बामनगाछी चला गया। मेरे बामनगाछी आने के तीन महीने बाद मेरा भाई भी अपने परिवार के साथ एक अलग मकान किराए पर लेकर बामनगाछी चला आया।

मैं ३१ जनवरी २००० तक एस. जालान एंड कंपनी में काम करने के बाद ६००० रुपये के मासिक वेतन पर १ फरवरी को टीटागढ़ इंडस्ट्रीज/टीटागढ़ वैगन्स ग्रुप में लॉ ऑफिसर के रूप में शामिल हुए। एस. जालान एंड कंपनी से मेरे इस्तीफे के समय, नरेश बाबू, अभिक साहा और श्यामानंद जालान, इन तीनों ने अलग-अलग मुझे बहुत आकर्षक प्रस्ताव दिए थे और मुझसे इस्तीफा न देने का अनुरोध किया था। लेकिन, चूंकि मैंने पहले ही टीटागढ़ ग्रुप से नियुक्ति पत्र स्वीकार कर लिया था, इसलिए मैंने उनका प्रस्ताव नहि माना।

टीटागढ़ ग्रुप में शामिल होने के बाद मैंने अपने बेटे का दाखिला बारासात इंदिरा गांधी मेमोरियल हाई स्कूल (अंग्रेजी माध्यम) में कराया। बामनगाछी से स्कूल आने-जाने की कठिनाई के कारण, मैं बामनगाछी से हृदयपुर के कैलासनगर में दो हजार रुपये प्रति माह पर दो कमरे का मकान किराए पर लेकर चला गया। ६००० रुपये के मासिक वेतन से २००० रुपये घर का किराया चुकाने के बाद बाकी पैसों से बड़ी मुश्किल से घर चलाना पड़ता था। मेरा बेटा बचपन में अक्सर बहुत बीमार रहता था। परिवार के दैनिक खर्चों और अपने बेटे के चिकित्सा खर्चों को पूरा करने के बाद मेरे पास कोई अतिरिक्त पैसा नहीं रह्ता था। ऐसी स्थिति में, जब मुझे अपने बेटे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए केवल ढाई हजार रुपये की जरूरत थी और मेरे पास वित्तीय सहायता नहीं थी, मेरी एक महिला सहकर्मी सरोज दे (बल्दवा), जो एस. जालान एंड कंपनी में मेरा एक सहकर्मी भी थी, मुझे बिना शर्त २५०० रुपये का ऋण दिया था, हालाँकि मैं छह महीने के बाद पैसे चुकाने में सक्षम हुया था। सरोज का वह अनचाहा उपकार, जिसके कारण मैं अपने बेटे को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में दाखिला कर सका, मुझे जीवन भर याद रहेगा। मई २००१ तक टीटागढ़ ग्रुप में सामिल रहने के बाद जून माहिना में सॉलिसिटर फर्म एल.पी. अग्रवाला एंड कंपनी से जुड़े और ३१ दिसंबर, २००१ तक वहां काम किया। फिर जनवरी २००२ में मुझे टीटागढ़ ग्रुप में दोबारा नियुक्त किया गया।

टीटागढ़ ग्रुप में दूसरी बार शामिल होने के बाद मैंने कई बार नौकरियाँ बदलीं। अक्टूबर २००३ में टीटागढ़ ग्रुप के चेयरमैन से एक बिषय पर असहमति के कारण मैंने दूसरी बार इस्तीफा दे दिया। फिर, नवंबर २००३ से अक्टूबर २००५ तक जेसोप एंड कंपनी में सहायक प्रबंधक के रूप में, नवंबर २००५ से अक्टूबर २००६ तक एस. जालान एंड कंपनी में दूसरी बार सीनियर एसोसिएट के रूप में, नवंबर २००६ से अप्रैल २००७ तक मुव्याबल गृहनिर्माण प्राइवेट लिमिटेड नामक एक रियल एस्टेट कंपनी में कानूनी सलाहकार और वार्ताकार के रूप में, मई २००७ से दिसंबर २००८ तक मानव संसाधन और कानूनी महाप्रबंधकके रूप में फ्रेन्च मोटोर कार कंपनी मे, जनवरी २००९ से अक्टूबर २००९ तक ट्रांसेंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड नामक एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी में कानूनी प्रबंधक के रूप में, दिसंबर २००९ से मई २०११ तक अमेरिकन टॉवर कॉरपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड नामक एक मोबाइल टावर कंपनी में कानूनी सलाहकार का रुप मे, जून २०११ में मूववेल कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड में सिर्फ एक महीने के लिए फिर से कानूनी सलाहकार और जुलाई २०११ से नवंबर २०२३ तक स्क्यार फोर हाउसिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड में लीगल हेड के रूप में इमान्दारि ओर सम्मान के साथ काम किया। प्रत्येक कार्यस्थल पर शीर्ष अधिकारी मेरे प्रदर्शन से अत्यधिक संतुष्ट थे और प्रत्येक संस्था में सहकर्मियों के साथ मेरे संबंध बहुत प्यारभरि ओर गहरे थे।

वरिष्ठों कार्य्यकर्ता के साथ असहमति और वेतन असमानता दो ऐसे कारण थे जिनके कारण मैंने कई बार नौकरियां बदलीं। मेरा अत्यधिक कुशलता के बावजुद, सिर्फ औपचारिक शिक्षा प्रमाणपत्र न होने के कारण मेरी वेतन वृद्धि तथाकथित औपचारिक शिक्षा से शिक्षित ब्यक्तिओं से काफी कम हुया करता था।

 

अध्याय आठ

१९९८ से २०२३ के बीच मेरे जीवन की कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ

तब मेरा बेटा रिभु के उम्र छह साल और सात साल का बिच मे था। उस दिन मेरे ऑफिस पहुंचने के कुछ ही देर बाद मेरी पत्नी ने घर से फोन करके बताया कि स्कूल के लिए तैयार होने के लिए बारान्दे में साइकिल चलाते समय रिभु का पैर गलती से डेकची में रखे उबलते अरारोट में घुस गया था और वह बुरी तरह जल गई। मैं घर वापस गया और देखा कि उसका दाहिना पैर पूरी तरह से जल गया था और छाले पड़ गए थे और गंभीर रूप से सूज गया था। वह रो नहीं रही थी, बल्कि दाँत पीसकर दर्द सहन कर रही थी और कभी-कभी उसका छोटा सा शरीर दर्द से काँप रहा था। उसे उस दर्द को सहने की कोशिश करते देख कर मेरे सीने कि अन्दर खून बहने लगा और मैं उसका सिर अपने सीने में दबाकर बस इतना ही कह सका कि सब ठीक हो जाएगा पापा, मैं हूं ना। जो आदमि उसका घाव ड्रेसिंग करने आते थे वो आदमी ने अपने पेशेवर तरीके से घाव को रगड़ कर साफ करता था और मेरा छोटाछा बेटा दर्द से चिल्लाकर रोता था। दो दिनों के बाद रिभु ने मुझसे कहा कि बाबा आप ड्रेसिंग कर दो क्योंकि उसे विश्वास था कि बाबा उसे चोट नहीं पहुँचाएँगे। तब से मैं उसे ऐसे ड्रेसिंग कर देता था कि उसे दर्द न हो। मेरा बेटा को बहुत दिन तक कष्ट सहना पड़ा।

२००३ में जेसोप कंपनी में शामिल होने से कुछ महीने पहले, बीआईएफआर का ऑर्डर पर 72% शेयर बेचकर कंपनी का सरकारि से निजीकरण कर दिया गया था। मेरे जेसप में शामिल होने के तीन महीने बाद सरोज दे वहां शामिल हुईं। कई सालों तक किराए के घर में रहने के बाद, मैं अक्सर एक आपना घर का सपना देखता था। नवंबर २००४ में एक दिन, काम पर जाने के लिए हृदयपुर स्टेशन पर प्रतीक्षा करते समय, मैंने हृदयपुर के एक साथी यात्री को इस बारे में बताया, जिसने मुझे बाताया की उनका कोइ दोस्त आपना मकान बेचेंगे और अगले रविवार वो मुझे मकान दिखाने के लिए ले गया। मुझे घर पसंद आया, भले ही वह एक मंजिला और अधूरा था। घर के मालिक ने जो कीमत मांगी, मैं उस पर राजी हो गया। मुझे १७,००० रुपये प्रति माह वेतन मिलता था और परिवार के सभी खर्चों को पूरा करने के बाद इसमें से कुछ भी बचाना संभव नहीं था। इस बीच, मैं घर खरीदने के लिए तैयार हो गया लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि पैसे कैसे जुटाऊं। इसलिए, मैंने घर के मालिक से घर के दस्तावेजों की फोटोकॉपी उपलब्ध कराने के लिए कहा और उनको बोला मैं एक सप्ताह के भीतर बयाना के रूप में कुछ पैसे दे दूंगा और वह मेरे प्रस्ताव पर सहमत हो गया। अगले दिन जब मैं गृह ऋण प्राप्त करने के बारे में पूछताछ करने के लिए बैंक में गया जहां मेरा खाता था, तो उन्होंने मुझे बताया कि ऋण देना संभव नहीं है, क्योंकि मेरा कार्यस्थल जेसोप एक बीमार कंपनी है और ऋण देने पर प्रतिबंध है उन लोगों के लिए जो ऐसी कंपनियों में काम करते हैं। फिर मैंने अगले तीन दिनों में 5 और बैंकों से पूछताछ की और वही प्रतिक्रिया पाकर निराश हुआ। जब मैं इतनी निराशा में थी तो अचानक एक लड़का आया और बोला कि वह गृह ऋण का बन्दोबस्त कर देगा। अगले दिन शुक्रवार को लड़का मुझे स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ले गया और बैंक अधिकारी ने सभी दस्तावेज़ देखने के बाद मुझसे घर खरीदने का समझोता नामा और घर के दस्तावेज़ों के साथ वेतन प्रमाण पत्र जमा करने के लिए कहा ओर बोला कि आप ऋण के लिए आवेदन करने से वो स्वीकृत कर देंगे। मै कुछ पैसे जुटा कर और मकान मालिक कि साथ समझोता नामा करके और अन्य आवश्यक दस्तावेजों के साथ बैंक में ऋण आवेदन जमा किया और बैंक ने दिसंबर के मध्य में मेरे आवेदन को मंजूरी दे दी। तब मेरे सामने स्टाम्प ड्यूटी और पंजीकरण शुल्क के लिए कम से कम पचास हजार रुपये इकट्ठा करने की समस्या थी, क्योंकि बैंक अधिकारी दस्तावेज़ को पंजीकृत करने का समय ऋण देंगे। मैं अपने कुछ संबंधित रिश्तेदारों से अस्थायी रूप से पैसे उधार ले सकता था, लेकिन निराश होने की शंका  से मैं किसी रिश्तेदारों से अस्थायी रूप से पैसे उधार लेने का बात कर नहि पाया। ऐसे में जब जनवरी २००५ के पहले सप्ताह के अंत में सरोज ने मेरा घर खरीदने के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें अपनी समस्या के बारे में बताया। उस दिन दोपहर को सरोज ने मुझे ५० हजार रुपए दिए और कहा कि मकान की रजिस्ट्री करा लेना और जब बैंक से रुपए मिल जाएं तो मुझे दे देना। आख़िरकार १९ जनवरी २००५ को मेरा अपना घर होने का सपना सच हो गया। घर खरीदने के बाद मेरा पूरा परिवार बहुत खुश था और खासकर मेरी मां इतनी खुश थी कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

मेरा अपना घर होने का सपना जनवरी २००५ में पूरा हुआ। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, मेरा वेतन भि बढ़ा और मेरी वित्तीय स्थिति भी बेहतर हुई। फिर २०१० में मैंने एक नई इंडिका विस्टा कार खरीदी और घर की दूसरी मंजिल पूरी की। मेरी दो भतीजियों की शादी हो चुकी है। चूंकि मेरे भाई की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए मैंने दोनों की शादी के लिए 40 हजार रुपये नकद दिए ओर सभी गहने भि दिए थे। मैंने हमेशा अपने भाई, उसका पत्नई और दो बेटियों को अपने परिवार का सदस्य माना है। इसके अलावा किसी भी समस्या में मैं अपनी तरफ से यथासंभव उनकी मदद करता हूं।' न केवल मेरे छोटे भाई का परिवार, बल्कि मेरी दिदि और छोटी बहन का परिवार मे जब भी कोई समस्या आती, तो मैंने यथासंभव उनकी मदद करने की कोशिश की। अपने भाई-बहनों के अलावा, मैं अपने कार्यालय के सहकर्मियों, पड़ोसियों, परिचितों और अजनबियों, गरीब और असहाय लोगों मे से किसिका बेटियों की शादी, किसिका बेटों या बेटियों की शिक्षा का खर्च, किसि का इलाज के लिए हर संभव मदद करता हूँ, बदले में किसी से कुछ भी आश न करने के बावजूद कुछ लोगों ने मेरे नाम जनंती पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ और बेइमानि भि किया है।

हर इंसान सपने देखता है, कभी सोते हुए तो कभी जागते हुए। व्यक्ति को नींद के दौरान जो सपना आता है वह उसके अवचेतन मन की जाग्रत अवस्था में देखे गए विभिन्न विचारों, इच्छाओं और घटनाओं का एक असंगत प्रतिबिंब होता है। दूसरी ओर, जाग्रत अवस्था में व्यक्ति जो सपना देखता है वह वास्तव में उसके मन में तीव्र इच्छा का सावधानीपूर्वक पोषण और उसे साकार करने का अथक प्रयास होता है। लोग जागते हुए जो सपने देखते हैं, उनमें से कई सपने उनके जीवन में साकार नहीं हो पाते, जबकि कई सपने सफल होते हैं। मैंने अपने बेटे के जन्म के समय से ही उसके बारे में सपना देखा था कि मैं उसे मानवीय गुणों वाला डॉक्टर बनाऊं। मैंने अपने बेटे को बचपन से कई बार कहा है कि तुम्हें डॉक्टर बनना होगा चाहिए और गरीब लोगों की विभिन्न तरीकों से मदद करना होगा और उनका मुफ्त इलाज करना होगा। वह थोड़ा बड़ा होने के बाद मुझसे केवल एक बार पूछा था कि डॉक्टर न बनकर दुसरा कुछ बन कर भि तो गरीब लोगों की मदद कर सकता है। जवाब में मैंने कहा कि डॉक्टर बनकर आप किसी मरते हुए व्यक्ति का इलाज करके उसे बचा सकते हो, जो किसी और कुछ बन कर संभव नहीं है और इसके लिए डॉक्टरी पेशा सबसे अच्छा मानवीय पेशा है। मेरे उस सपने को साकार करने के लिए ओर सरकारि मेडिकेल कालेज मे दाखिल करने के लिये ११वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेरे बेटे का दाखिला दो प्रसिद्ध प्रशिक्षण केन्द्रों आकाश इंस्टिट्यूट और सी.बी. क्लासेस में। फिर, कई उतार-चढ़ाव के बावजूद, मेरा बेटा अपने लक्ष्य पर अटल रहा और २०१७ में कोलकाता के एक प्रसिद्ध मेडिकल स्कूल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट-ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजी) में एक छात्र के रूप में शामिल हो गया। पहले वर्ष में, मेरा बेटा और उसका दोस्त अर्णव अकेले में शरीर रचना विज्ञान का अध्ययन करने के लिए दोपहर में कॉलेज से निकल कर नेशनल मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर के पास अध्ययन करने के लिए उल्टोडांगा चले जाते थे। एक दिन दोपहर करीब ३ बजे, जब मैं एक्साइड मोड़ के पास ऑफिस में व्यस्त था, अर्नव ने मुझे फोन किया और कहा कि सड़क पार करते समय रिभु का एक्सीडेंट हो गया है और उसे पास के एक नर्सिंग होम में ले जा रहे हैं। समाचार सुनकर, मेरा दिलमे तुरंत ऐसा महसूस हुआ जैसे यह अस्थायी रूप से रुक गया है। मैं सारा काम छोड़कर तुरंत कार लेकर मौके पर गया और देखा कि रिभु का शरीर आतंक और दर्द से कांप रहा था और उसके शरीर पर कई जगहों पर गहरे घाव थे जिनका नर्सिंग होम ने इलाज किया और इंजेक्शन और दवाइयां दीं। फिर मैंने सावधानी से उसे कार में बिठाया और उस नर्सिंग होम से घर ले आया। अंततः २०३३ में मेरे प्यारे इकलौते बेटे एमबीबीएस को दो स्वर्ण पदकों से सम्मानित किया गया और प्रथम स्थान प्राप्त किया ओर ऐसे डिग्री हासिल करने से मेरा सपना सच कर दिए।

अगर मेरी माँ कहीं दूर जाना चाहती थी, तो वह दूरी और संचार व्यवस्था के आधार पर ट्रेन या ऑटोरिक्शा में सफर करति थी, लेकिन बस या निजी कार से कहीं नहीं जा पाती थी क्योंकि उसे उल्टी हो जाती थी और वह बहुत कमज़ोर हो जाती थी। मेरे बेटे को दो स्वर्ण पदक और एमबीबीएस में प्रथम स्थान प्राप्त होने से माँ को इतनी अवर्णनीय खुशी हुई कि वह बच्चों जैसी खुशी से झूम उठीं। एम.बी.बी.एस. उत्तीर्ण होने के बाद ०४.०५.२०२३ तारिख मे प्रमाण पत्र देने के अवसर पर कुछ दवाइयाँ ले कर ओर हमारे साथ कार में सवयार हुये दीक्षांत समारोह में माँ अपने पोते को प्रमाण पत्र प्राप्त करते हुए अपनी आँखों से देखेंगे। दीक्षांत समारोह के अंत में, माँ ने ख़ुशी से अपने पोते के साथ कुछ तस्वीरें लीं, जो अब दुखद ओर सुखद यादें हैं। फोटो खींचने के कुछ ही देर बाद माँ इतनी बीमार हो गईं कि उन्हें दो बार उल्टियां कि और वह अस्पताल के अंदर सड़क पर तड़पते हुए लेट गईं। फिर मेरा बेटा और उसके साथ मौजूद दो वरिष्ठ डॉक्टर माँ के लिए कुछ दवा खिलाया और उसके बाद उन्हें मेरी गोद में सिर रखकर शोटा हुया मेरि कार में घर ले आए।

अध्याय नौ

रिभु को नैतिकता सिखाने का मेरा छोटा सा प्रयास

रिभु को सभी मानवीय गुणों वाला इंसान बनाने का बचपन से ही मेरा अथक प्रयास रहा था। स्कूल की पाठ्यपुस्तकों के अलावा, मैं उन्हें महाकवि कालिदास, भारवि, भवभूति, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रफुल्लचंद्र रॉय, जगदीशचंद्र बोस आदि जैसे विभिन्न महापुरुषों की जीवन कहानियाँ सुनाता था। मैं रामायण, महाभारत, पुराणादि की छोटी-छोटी शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाता था। इसके अलावा मैं दुनिया में प्रकृति, पौधों, जानवरों आदि की भूमिका और आवश्यकता के बारे में भी बात करता था। उसे अपने साथ लेकर सड़क पर या ट्रेन में अगर कोई भिखारी मेरे सामने आ जाता तो मैं उसे अपने हाथ से पैसे दिला देता। मैं उससे कहता था कि जीवन में कभी भी अपने माता-पिता के अलावा किसी और से कुछ पाने की इच्छा मत रखना, क्योंकि अगर इच्छा पूरी नहीं होगा तो दिल में दुख होगा।

मैंने उसे समझाया कि जीवन में दूसरों से उपहार के रूप में कुछ प्राप्त करना एक अस्थायी खुशी हो सकती है, लेकिन ऐसा प्राप्त करना लालच को जन्म देता है। दूसरी ओर, यदि आप गरीबों और असहाय लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं और जितना हो सके मदद के लिए हाथ बढ़ाते हैं, तो आप देखेंगे कि किसी से कुछ प्राप्त करने की तुलना में देना कहीं अधिक खुशी और संतुष्टि है, और आपका मन मुक्त हो जाएगा पाने की चाहत से। मैंने उससे यह भी कहा, तुम मेरे माध्यम से इस दुनिया में आए, इसलिए एक पिता होने के नाते यह मेरी जिम्मेदारी और कर्तव्य है कि मैं तुम्हें इस समाज में एक ईमानदार, सुंदर, सुशिक्षित और मानवीय व्यक्ति के रूप में स्थापित करूं और मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा, लेकिन बदले में मैं तुमसे मुझे कुछ भी उम्मीद नहीं करता हुं क्योंकि तुम्हें इस मामले में जो सही लगेगा वह करने का पूरा अधिकार है।

अध्याय दस

कुछ निराशा, कुछ दर्द, कुछ गलतियाँ

मैं बहुत शांतिपूर्ण, दृढ़निश्चयी और अनम्य व्यक्ति हूं। मेरा बेटा रिभु भी बचपन से शांत स्वभाव का है। रिभु बचपन से लेकर मेडिकल की पढ़ाई तक अपनी दादी के बगल में और इंटर्नशिप के दौरान एक अलग कमरे में सोते थे। हर रात और जब भि वह अपनी दादी के पास सोने जाती थी, तो मेरी माँ उसे कहानियाँ सुनाती थी, उसके सिर और पीठ को थपथपाती थी, लोड शेडिंग के दौरान उसे बिना बिजली के पंखे से हवा देती थी ताकि वह ठीक से सो सके। मेरी माँ कभी-कभी उसे मेरी पत्नी के अपनी माँ के प्रति दुर्व्यवहार के बारे में बताती थी, शायद इस उम्मीद से कि उसका प्यारा पोता अपनी दादी के भावनात्मक दर्द को समझेगा, लेकिन परिणाम विपरीत हुआ। अबोधगम्य रूबर्ब का परिणाम क्या है इये शायद ना समझ्कर अनजाने में, वह अपनी माँ को बताती थी कि उसकी दादी उसकी माँ के बारे में क्या कहती थी, जिससे मेरी माँ और मेरी पत्नी के बीच दूरियाँ बढ़ गईं। मैंने अपनी माँ और पत्नी के बीच की अंतहीन भावनात्मक दूरी और कभी-कभार छोटी-छोटी बातों पर होने वाली असहमति के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। भले ही मैं असफल रहा, लेकिन मुझे पूरी उम्मीद थी कि मेरा बेटा रिभु बड़ा होकर अपनी माँ और दादी के बीच की दूरी को मिटाने में प्रभावी भूमिका निभाएगा। मेरी आशा निराशा में बदल गयी। मेरा बेटा बुद्धिमान, मेधावी और सौम्य स्वभाव का होते हुए भी समझदार नहीं बन सका।

रिभु की इंटर्नशिप के दौरान एक दिन की घटना ने मेरी माँ और मेरे दिल पर गहरा घाव छोड़ दिया। उस दिन जब मैं ऑफिस से घर लौटा तो मेरी माँ मेरे पास आईं और मुझे बताया कि घर के पीछे मेरी माँ द्वारा लगाए गए अमरूद के पौधे की टूटी हुई शाखा देखकर मेरी पत्नीने तोड़ा यह सोच कर कुछ तीखी टिप्पणी कर रही थी, उसे सुनकर तभी रयु आ ओर उसकि माँ मेरी माँ को कुछ भला-बुरा कहा। मैं अपनी माँ को जब समझाने की कोशिश कर रहा था उसे सुनकर तभी रयु आ गई और मेरी माँ को कुछ भला-बुरा कहने लगी तो मैंने उसे डांटकर उंहासे निकाल दिय। उस्के बाद माँ को बिस्तर पर बैठा दिया और जब मैं उसे समझाने की कोशिश कर रहा था तो वह बार-बार धीरे धीरे बोल रही थी, मेरा पोता, वह मुझे बहुत प्यार करत है। वो दिल से मुझे बुरा नहीं कहा होगा। माँ की बातें सुन कर मेरे अंदर के बहुत तकलिफ हुया लेकिन मै कठोरता का मुखौटा पहनकर खुदको रोकने की कोशिश कर रही थी।

मैंने अपनी माँ को घरपे राख कर अपनी पत्नी और बेटे को कई बार हवाई मार्ग से विभिन्न स्थानों पर ले गया था। मैं समझ सकता हूं कि माँको भि अपने साथ न ले जाना उसके लिए बहुत दुखद रहा होगा, लेकिन उसने कभी इसे व्यक्त नहीं किया। माँ मेरे बारे में हर किसी से कहती थी कि मैंने माँ को बहुत खुश राखा है और मैं माँ के लिए एक खास रत्न हूँ। लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे मां माँ लिए जो करना चाहिए था और जो मैं कर सकता था, मैंने लगभग कुछ भी नहीं किया, जो मेरे लिए एक अक्षम्य अपराध है।

कभी-कभी मेरे ऑफिस से वापस आने के बाद माँ मुझे अकेला पाकर मेरी पत्नी के बारे मे शिकायत करती थी। शुरू-शुरू में माँ की शिकायतें सुनने के बाद कभी-कभी मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता था और कभी-कभी जब मैं अपनी पत्नी को माँ की शिकायत के आधार पर कुछ कहने लगता था, तो वह तुरंत तीखी बहस में बदल जाती थी। तब से कई दिन ऐसा भि हो गए जब मैं ऑफिस से लौटकर ऑफिस के कपड़े छोड़कर बाथरूम में जाकर मुंह-हाथ-पैर धोकर घर में बैठा तो मैंने देखा कि बगल वाले कमरे से मेरी माँ बीच का दरवाजा खोल रही हैं और मेरे कमरे की ओर आ रहे हैं। और यह देखकर मुझे लगा कि कहीं माँ मेरी पत्नी के खिलाफ शिकायत न कर दे, इसलिए मैं उठकर बगल वाले भोजन कक्ष में चला जाता था।

२०२३ में आम के मौसम के दौरान, माँ ने कई हिमसागर आम खरीदे और कई आमसत्व बनाए और पोते-पोतियों सहित सभी को एक-एक आमसत्व दिया और सबसे बड़ा आमसत्व मेरे लिए रखा। जब मैं कई बार ऑफिस से वापस आया तो माँ मेरे पास आमसत्व लेकर आईं और कहा कि मैंने सभी को एक-एक आमसत्त्व दिया है, तु यह आमसत्त्व खा लेना। हर बार मैंने अपनी माँ को लौटा दिया और उनसे कहा कि इसे अभी रहने दो और बाद में खा लेंगे। माँ दुःखी हुई और पुनः वापस गई और बड़ि यतन से वापस रख दिया। फिर वह शापित समय आया जब माँ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। अस्पताल में रहने के दौरान मेरी माँ ने मुझसे कई बार कहा कि अलमारी में कागज में मोड़के वो आमसत्व राखा है, निकल कर खा लेना, नहीं तो यह खराब हो जाएगा। हालाँकि मेरी माँ ने मुझसे बार-बार कहा, फिर अस्पताल जब मैं घर वपास आता तो मैं आमसत्व के बारे में भूल जाता था क्योंकि मैं अपनी माँ की बीमारी के बारे में सोचते रहता था। कुछ दिन बाद माँ संसार की सारी माया तोड़ कर हमे छोड़ कर अंजान दुनिया मे चलि गइ और माँ की अलौकिक लीलाएँ पूर्ण होने के कुछ दिन बाद मुझे आमसत्त्व की याद आई तो मैंने अलमारी से निकाला और देखा कि वो आमस्त्त्व पूरी तरह से नष्ट हो चुका था। वो आमसत्त्व की यह हालत देखकर अनजाने ही मेरी आँखों से आँसू निकल आया। वो आमसत्त्व बिल्कुल भी खाने योग्य नहीं था फिर भि मैंने उसमें से एक छोटा टुकड़ा तोड़ कर खा लिया था।

मेरे बेटे कि प्रति मेरी दो हल्की-फुल्की अनुचित टिप्पणियों के कारण मेरे बेटे बेहद अभिमान और अपमानित महसूस किया और इस लिये मेरे साथ एक भावनात्मक दूरी बना ली है, जिसका मुझे लगातार एहसास होता है। मैंने पहली टिप्पणी एक सैलून के मालिक चंचल को की, जहां रिभु अपने बाल कटवाता था। एक सुबह जब रिभु सत्रह साल का था, मैंने चंचल से कहा कि रिभु आएगा, उसका बाल छोटा करके काट देना, जवाब में उसने कहा कि रिभु को अपने बाल ज्यादा छोटे करना पसंद नहीं है। मुझे गुस्सा आ गया और मैंने कहा कि वह अभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं है और जब मैं पैसे दूंगा तो मेरा कहेने के अनुसार उसके बाल काट देना। मैंरा यह बात चंचल रिभु को बताई और वह सदमे में आ गया। दूसरी टिप्पणी फुटपाथ पर नए जूते पॉलिश करने को लेकर अनुचित तरीके से की गई थी। रिभु मेडिकल के अंतिम वर्ष में पढ़ रहा था। मैंने उसके लिए एक जोड़ी नए महंगे जूते खरीदे, जो पहली बार पहन कर कॉलेज आने के बाद, वह कॉलेज के बाद मेरे ऑफिस आया और मेरे बगल में बैठ गया और कहा, पिताजी जूते की जोड़ी गंदी हो गई थी इसलिए मैंने उन्हें नीचे फुटपाथ से पॉलिश करवा लिया। इतना कहते ही मैंने बिना सोचे-समझे और गुस्से में ऑफिस के दो-तीन सहकर्मियों के सामने कह दिया कि तुम्हें पीटना चाहिए, इतने महंगे जूतों को फुटपाथ की उस गंदी स्याही से पॉलिश करने के बजाय घर पर ही अच्छी स्याही से पॉलिश किया जा सकता था। यह टिप्पणी करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत गलत था और मुझे यह टिप्पणी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए थी। मेरे एक पुराने सहकर्मी को यह टिप्पणी बहुत बुरी लगी। इस बीच, इस टिप्पणी के बाद, मैंने देखा कि रिभु की आंखों से आंसू बह रहे हैं। जब मैंने रिभु की आंखों में आंसू देखे तो मैं खुद पर काबू नहीं रख सका, इसलिए मैंने खड़े होकर उसे गले लगाया और उसे चूमा और अपनी गलती स्वीकार की, लेकिन साथ ही मुझे एहसास हुआ कि मेरी गलत टिप्पणी में बहुत गहरा असर था उस पर असर।

अध्याय ग्यारह

माँ के तिरोधन ने मुझे कांगाल कर दिया

२०१७ में मेरी माँ के सेरेब्रल अटैक के कारण मेरी माँ के शरीर का बायां हिस्सा बहुत कमजोर हो गया था. सेरेब्रल अटैक के बाद मैंने अपनी माँ का घर पर ही इलाज किया और डॉक्टर की सलाह के अनुसार नियमित दवाएं लेने पर वह काफी स्वस्थ थीं और अपने सभी काम खुद करते और शाकाहारी खाना खुद पकाते थे। माँ को दूसरों पर निर्भर रहना बिल्कुल पसंद नहीं था। मैंने माँ से कई बार कहा कि मैं आपकी पसंद के किसी व्यक्ति को आपके सारे काम करने के लिए राख देता हूं, लेकिन उन्हें मना नहीं सका।

जुलाई २०२३ के प्रथम सप्ताह के अंत में अचानक माँ के उपर हुआ एक हमला जो मेरे जीवन में अशुभ संकेत लेकर आया। जब माँ को पेट में भयानक दर्द हो रहा था, तब रिभु अस्पताल में ड्यूटी पर था और मैंने उसे फोन करके पूछा कि माँ के पेट दर्द से राहत के लिए क्या करना चाहिए तो उसने बोला ड्रटिन नाम का दावा माँ को देने के लिये। वह दवा लाकर अपनी माँ को खिलाने के बाद भी कोई खास फायदा नहीं हुआ तो मैंने दोबारा रिभु को फोन किया और कहा कि एक इंजेक्शन ले आओ और अपनी माँ को दे दो, मैंने वह इंजेक्शन लाकर अपनी माँ को दे दिया तो कुछ घंटों के लिए दर्द से राहत मिली और यह फिर से पहले की तरह शुरू हो गया। जब मैंने इस बारे में रिभु को फोन किया तो उसने मुझसे कहा कि मैं माँ के पूरे पेट का अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी करवा लूं। अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी के बाद देखा गया कि माँ के पित्ताशय में एक बड़ी और कई छोटी पथरी हैं। अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी रिपोर्ट मिलने के बाद, माँ को डॉ. गौतम कुंडू नामक एक वरिष्ठ सर्जन के पास ले गया, जिन्होंने विभिन्न रक्त परीक्षण और छाती का एक्स-रे कराने लिये बोला और उनके पेट को साफ करने और दर्द से राहत देने के लिए कुछ दवाएं दीं। अगले दिन रक्त परीक्षण और छाती के एक्स-रे की रिपोर्ट लेकर उनको दिखाने के बाद, उन्होंने मुझे पिछले नुस्खे के अनुसार दवाएँ देने के लिए कहा। जब मैंने ऑपरेशन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी इसकी जरूरत नहीं है। डॉ. गौतम कुंडू द्वारा बताई गई दवा देने के बाद भी माँ के दर्द में कोई राहत नहीं मिली तो रिभु माँ को कई बार पी.जी. अस्पताल ले ​​गयाऔर अस्पताल मे विभिन्न विशेषज्ञ डॉक्टरों को देखने की व्यवस्था किया। उन डॉक्टरों की सलाह पर माँ के कई टेस्ट हुए, जैसे कई ब्लड टेस्ट, सीटी स्कैन, अल्ट्रासाउंड सोनोग्राफी, केयूवी, एमआरसीपी, कोलोनोस्कोपी आदि करने के बाद डॉक्टर ने माँ को अस्पताल में भर्ती करने को कहा। इस लंबे प्रयोग के दौरान माँ ने खाना लगभग बंद कर दिया और जो कुछ भी वह खा पाती थीं, ज्यादातर समय उल्टी कर देती थीं।

आख़िरकार ११ अगस्त, २०२३ को माँ को पी.जी. अस्पताल ले गया ओर अपनी माँ को अस्पताल के वुडबर्न ब्लॉक में भर्ती कराया। मेरी बड़ी भतीजी सुमी मेरी माँ को माँ कहकर बुलाती थी और माँ की तरह ही प्यार करती थी। अपनी माँ की बीमारी की खबर सुनने के बाद वह दस दिन पहले अपनी माँ को अस्पताल में भर्ती कराने क सिलसिले मे आयीं और माँ के भर्ती होने के बाद दो दिनों के लिए वो अस्पताल मे माँ के पास रहने के बाद वापस दुर्गापुर चली गयीं। अस्पताल में भर्ती होने के दिन से ही माँ का इलाज शुरू हो गया। मेरी दिदि लगभग हर दिन बेहाला से मेरी माँ को देखने आती थीं। इलाज शुरू होने के बावजूद मां की शारीरिक स्थिति इतनी बिगड़ती चली गई कि उन्हें थोड़ा सा पानी पीने पर भी उल्टी होने लगी। जब माँ की हालत ऐसी थी तो एक दिन माँ ने मुझसे प्यार से कहा कि बहन से कहो कि माँ के लिए दाल का सूप ले आये। दीदी कई बार लायी लेकिन दो दिन तक दो-तीन चम्मच खाने के बाद माँ फिर नहीं खा पाती थी। मैं दो वक्त अपनी माँ से मिलने जाता था और डॉक्टर के आदेश के अनुसार दाबाइंया ला कर देता था। इसके अलावा, रिभु, उस अस्पताल में एक डॉक्टर होने के नाते, माँ के डॉक्टरों के साथ नियमित संपर्क में रहे, माँ के इलाज में सक्रिय रूप से सहायता की और मेरी अनुपस्थिति में दाबाइंया की व्यवस्था करता था। जब माँ अस्पताल में दर्द से कराह रहा था तो मेरी माँ मुझसे कभी-कभी कहती थीं, मैंने तुम्हें हर तरह से खत्म कर दिया है। बल्कि मुझे दर्द से राहत देने के लिए कोई जहरीला इंजेक्शन देने के लिये डॉक्टर को बोल दो, वही अच्छा रहेगा। मैं बस अपने मन में व्याप्त भयानक दर्द को दबाते हुए माँ को थोड़ा डांटकर आश्वस्त करने की कोशिश करता था।

माँ की सभी प्रकार की शारीरिक जांच के नतीजे देखने के बाद डॉक्टरों को संदेह हुआ कि उन्हें कैंसर है और एफ.एन.ए.सी. जांच के लिए रेडियोलॉजी विभाग भेजा गया तो वहां से बताया गया कि माँ की शारीरिक स्थिति के कारण एफ.एन.ए.सी. परीक्षण संभव नहीं है। तब डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मेरी माँ के इलाज के दो तरीकों में से एक है कि जैसे इलाज चल रहा है वैसे ही इलाज जारी रखा जाए और दूसरा उनका ऑपरेशन किया जाए। यदि हम पहला करते हैं, तो माँ ऐसे दर्द के साथ कुछ और दिनों तक जीवित रह सकती है और यदि हम दूसरा करते हैं, तो ऐसा भी हो सकता है कि ऑपरेटिंग टेबल पर ही माँ को जान चले जा सकति है। जिस तरह से माँ को दर्द हो रहा था, उससे मैं बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी, इसलिए मैंने डॉक्टर से ऑपरेशन करने के लिए कहा।

मेरी सहमति के बाद सितंबर के पहले दिन ऑपरेशन का दिन तय किया गया. ऑपरेशन के दिन मेरे और रिभु के अलावा मेरी बहन, भातिजि सुमी और दामाद राजीव और मेरा बचपन का दोस्त तरुण सुबह से ही अस्पताल में मौजूद थे। दोपहर करीब १२ बजे माँ का ऑपरेशन शुरू हुआ। हम सभी उत्सुकता से ऑपरेशन थियेटर के बाहर इंतजार कर रहे थे। दोपहर करीब १-३० बजे वरिष्ठ सर्जन प्रोफेसर डॉ. जयेश कुमार झा ऑपरेशन थिएटर से बाहर आए और मुझे बुलाया और कहा कि उन्होंने जितना संभव हो सके उतना अच्छा ऑपरेशन किया है और वीडियो कॉल पर रिभु को पूरा ऑपरेशन दिखाया। उन्होंने यह भी कहा कि ऑपरेशन में पूरी पित्ताशय, लीवर का एक बड़ा हिस्सा, कई लिम्फ नोड्स और दो ट्यूमर हटा दिए गए। अगले आधे घंटे के बाद जूनियर सर्जन बाहर आये और मुझे बताया कि ऑपरेशन अच्छा हुआ ओर साथ ही, उन्होंने मेरे हाथ पर ऑपरेशन करके माँ के शरीर से निकाले गए हिस्सों एक डिब्बे मे देकर बायोप्सी करने के लिए भी कहा। डॉक्टर के कहे अनुसार बायोप्सी करने के बाद मुझे पता चला कि ऑपरेशन से निकाले गए सभी हिस्से कैंसरग्रस्त थे। ऑपरेशन के बाद माँ को चार दिनों तक आईटीयू में रखा गया और वापस वुडबर्न के केबिन में भेज दिया गया।

ऑपरेशन के बाद विभिन्न दवाएं, दर्द निवारक इंजेक्शन, सेलाइन, कैथेटर, ऑक्सीजन, राइस ट्यूब आदि देने के बावजूद माँ की शारीरिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। फिर १३ सितंबर को डॉक्टर बाबू बताया कि उन्होंने माँ के इलाज के लिए हर जरूरी काम कर लिया है और अब जरूरत इस बात की है कि माँ को उनके परिचित माहौल यानी घर पर ही रखा जाए और उनके रिश्तेदारों द्वारा उनकी देखभाल की जाए, इससे बेहतर परिणाम मिलेंगे। डॉक्टर की सलाह पर मैं ३६ दिन बाद अपनी माँ को अस्पताल से घर ले आया। घर पर उचित इलाज और देखभाल के लिए सभी दवाओं और २४ घंटे प्रशिक्षित नर्स की व्यवस्था की। माँ की शारीरिक स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी।

माँ के नौ छोटे भाई-बहनों में से एक बहन बारासात में रहती है, दो भाई और एक बहन दुर्गापुर में रहते हैं, एक भाई साल्ट लेक में रहता है, एक भाई सिलीगुड़ी के पास एक चाय बागान में रहता है। चूँकि मेरी नानी अधिकांश समय बीमार रहती थीं, इसलिए माँ ने इन भाई-बहनों को बचपन में बहुत प्यार से पाला। आखिरी बिस्तर पर लेटे हुए माँ को एक अनकही आशा थी कि शायद उसके भाई-बहन कभी-कभी उससे मिलने आएँ। दुर्भाग्य से, अस्पताल से घर आने के तीन दिन बाद केवल बारासात की बहन ही उससे कुछ समय के लिए मिलने आई और अन्य भाई-बहन एक बार भी उससे मिलने नहीं आए।

मेरी माँ को फिर से ठीक होने की तीव्र इच्छा थी। मेरी माँ ने मुझसे कई बार कहा, सायद  डॉक्टर मेरा ऑपरेशन ठीक से नहीं कर पाए, जिसकी वजह से मेरा शरीर ठीक नहीं हो रहा है। मैं माँ को यह न बता सका कि तुम्हारे सारे शरीर में यह भयंकर रोग फैल गया है। माँ दो चम्मच मुसंबी नींबू और आनार के रस और दो चम्मच एनश्योर के अलावा कुछ भी नहीं खा पाती थीं और उन्हें अक्सर उल्टी हो जाती थी। इस प्रकार माँ का इलाज और देखभाल जारी रखने के बाद अक्टूबर के अंत में उन्हें अचानक पेशाब के साथ खून आना शुरू हो गया और पाज़ नामक इंजेक्शन देने के बाद खून बहना बंद हो गया। माँ की ऐसी शारीरिक हालत देखकर मैंने दिदि को अपने घर बुला लिया। ३० अक्टूबर से माँने बात करना बंद कर दिया। फिर २ नवंबर को दोपहर से माँ को सांस लेने में भयानक दिक्कत होने लगी और घर-घर की आवाजें आने लगीं। अपनी माँ की हालत देखने के बाद मैंने अस्पताल से रिभु को बुलाया और रात करीब ११:३० बजे अपनी मां को नारायणा नर्सिंग होम ले जाने के बाद ११-४५ बजे तक मेरा दुनिया उजाड़ कर, मेरि माँ आपना स्नेहाशीष का हाथ मेरा सिर से हटा लिया और मुझे पूरी तरह अनाथ बना कर सारे दुखों से मुक्ति ले कर मेरी माँ कभि न टुटनेबाला गहरा निंद मे चलि गई।

परिशिष्ट

मेरे जन्म के बाद से लगभग ६३ वर्षों तक, मेरी माँ के आंचल के निचे रहे कर, स्नेहाशीष के मार्ग पर चल कर और उनकी प्रेरणा से, सभी बाधाओं को पार करते हुए, जब मैं वांछित लक्ष्य तक पहुँच गया, तो मेरी माँ ने चार महीने तक दर्द और पीड़ा से भयानक शारीरिक कष्ट झेलने के बाद मुझे हमेशा के लिए अनाथ बाना के वह परम शांति की नींद में सो गया, जिस नींद से कोई जागृति नहीं होती। शून्य से शुरू कर जिंदगी की कठिन डगर पर कई उतार-चढ़ाव पार किए, अंधेरी सुरंग में कंटीली राहों पर लंबे समय तक चलने के बाद माँ के आशीर्वाद से मैं रोशनी की राह पर पहुंच कर मैंने पा लिया है जीवन में सफलता और समृद्धि जिसका सपना भि मैं नहीं देखा था। मेरा कठिन सफर में माँ मेरे साथ थि रोशनी की किरण स्वरुप।

मुझे आज भी नहीं पता कि माँ को खाने में क्या पसंद था या उनकी पसंद-नापसंद क्या थी, कभी जानने की कोशिश नहीं की। लेकिन माँ को मेरी सारी पसंद-नापसंद का पता था। मेरी माँ हमेशा बहुत थोड़ि सि में खुश रहती थीं। अगर मैं कभी उनके लिए कोई महँगी साड़ी खरीदकर लाते तो माँ बहुत नाराज़ हो जाती थीं। माँ सलाह देती थीं कि अतीत को कभी मत भूलो।

माँ के इस तरह गुजर जाने के बाद मैं कभी-कभी जब पी.जी. अस्पताल जाता हूं, तो सेल्युलाइड पर तैरती फिल्म की तरह, मैं देखता हूं कि मेरी मां को हाथ पकड़कर, कभी मेरी गोद में, कभी स्ट्रेचर पर विभिन्न परीक्षणों के लिए अस्पताल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में ले जाया जा रहा था और मेरी आंखों आंसु से भर आति। घर पर भी, मैं लगातार मन के आंखो से देखता रह्ता हूँ के अपनी माँ शाकाहारी सब्जियाँ पकाने के लिए तरह-तरह की सब्जियाँ काटते हुए, अपने कपड़े और बर्तन खुद धोते हुए, मेरे लिए पान बनाके डिब्बे भरते हुए, और कार्यालय से लौटने के बाद कभी-कभी कटोरी भर कर पीठा, पैस, पतीसपता, तालक्षीर मुझे देकर खाने के लिए कहते हैं और जितना अधिक मैं इन दृश्यों के बारे में सोचता हूं, उतना ही मेरे अंदर दर्द होता रहता है। मैं अपनी माँ के सिसकते हुए शब्द नहीं भूल सकता, "डॉक्टरों ने मेरा ऑपरेशन सायद ठीक से नहीं किया, जिसके कारण मेरे शरीर में कोई सुधार नहीं हो रहा है।"

मेरा जीवन आज खालीपन से भरा है। हर कदम पर मेरी प्रेरणास्त्रोत, जीवन की कठिन यात्रा में प्रकाश की मार्गदर्शक, मेरी सदा दुःखी माँ, मेरे सिर से अपने दोनों प्यार भरे हाथ उठाकर, शायद कुछ शांति की तलाश में, हमेशा के लिए किसी अज्ञात देश में चली गई है, और मैं रह गया हूँ एक जीवित शरीर में मृत आदमी कि तरह, जीवन भर की घटनाओं के रोमन्थन करने के लिए ।

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