Manasvi - 2 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | मनस्वी - भाग 2

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मनस्वी - भाग 2

अनुच्छेद-दो 

मेरा ऊपर जाने का समय अभी कहाँ हुआ है?

           मेडिकल कालेज में दूसरा दिन। मनु आक्सीजन के सहारे अब भी साँस ले रही है। प्रातः का समय। मनु के चेहरे पर न कोई भय, न हताशा, न कोई कराह। चेहरा दमकता हुआ। माँ ने चेहरे को धो पोंछकर चमका दिया है। मनु अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से सबको देखती है। अपनी इच्छानुसार करवट न बदल पाने का थोड़ा सा दुख उसे होता है पर उसे झेलती हुई माता-पिता को प्रसन्न देखना चाहती है। उसके दिमाग की रील फिर चलने लगी।
           'मम्मी तुमने नाश्ता कर लिया', वह माँ से पूछती है। मम्मी और पापा ने केवल एक कप चाय पिया है। पर मम्मी कह देती है 'कर चुकी हूँ बेटे।' मनु जोर देती है, कहती है, 'झूठ मत बोलना मम्मी। नाश्ता ज़रूर कर लेना। तू कमजोर हो जाएगी तो मेरी देखभाल कौन करेगा? पापा खुद कितना दौड़ेंगे? डॉक्टर चाचू आते ही होंगे। आज मैं उनसे कहूँगी कि मुझे जल्दी अच्छा करो। भगवान जी से भी कहा है मैंने। वे ज़रूर सुनेंगे। मम्मी, आज डॉक्टर चाचू को अपने घर के बारे में बताऊँगी। यह भी बताऊँगी कि हमारा परिवार कितना बड़ा है? बड़ा परिवार अच्छा लगता है माँ। कहीं भी जाओ तो अपने लोग । मिलकर खुशी होती है। मम्मी कभी-कभी किसी से मिलकर बहुत खुशी होती है। तुम्हें भी होती है न? कभी-कभी किसी को देखकर मन होता है कि इनसे न भेट होती तो अच्छा रहता। ऐसा क्यों होता है माँ ? परिवार में ही लोग कभी-कभी एक दूसरे से नहीं बोलते हैं। कोई-कोई तो नाराज़ होकर खाना ही नहीं खाते। घण्टों उन्हें मनाओ तो एक-दो रोटी खाते हैं। बाबा से मैंने एक बार पूछा था कि लोग नाराज़ होकर खाना क्यों बन्द कर देते हैं। बाबा हँस पड़े थे। उन्होंने कहा था यही तो बात है कि आदमी जब नाराज़ होता है तब उसके सब काम ग़लत होने लगते हैं। अगर मनुष्य सामान्य न रहे तो वह सामान्य व्यवहार भी नहीं करता। बाबा के ही समझाने पर मैंने नाराज़ होना बन्द कर दिया था माँ। स्कूल में भी बच्चे खुट्टी कर लेते पर बाबा समझाते कि तुम्हें खुट्टी करने से बचना चाहिए और मैं बचने लगी थी। माँ, तभी तो सभी बच्चे मुझसे प्यार करने लगे। बच्चे आपस में खुट्टी कर लेते पर मेरी खुट्टी किसी के साथ नहीं होती थी। मैं सबके साथ हँसती, खेलती, बात करती। मेरी सहेलियाँ भी एक से एक हैं मम्मी। वे योजना बनातीं कि मध्याह्न अवकाश में किसी सहेली का टिफिन गायब कर दो। वह हर बच्चे की सीट पर जाकर ढूँढती और न पाती तो झुंझलाती। सभी सहेलियाँ हँसती और उसे बुला कर अपनी-अपनी टिफिन से एक-एक कौर खिलातीं। इस शरारत में भी बड़ा मजा आता था माँ।
              एक बार मेरी भी टिफिन सबने गायब कर दी थी। मैं भी ढूँढती हैरान होती रही, सहेलियाँ मुस्कराती हँसती रहीं। फिर सबने कहा आओ-आओ, तुम्हारा टिफिन कोई कबूतर उठा ले गया है। आओ, हम लोग अपने में से तुम्हें खिलाते हैं। सहेलियों की टिफिन से एक एक कौर में ही मेरा पेट भी भर गया। और जानते हैं माँ, छुट्टी होते ही सबने टिफिन मेरे सामने लाकर रख दिया। मैं भी मुस्कराई और सोचा, चलो अच्छा हुआ। यह भी एक खेल है। मैंने भी एकबार यही खेल किया था। मेरी सहेली जैसे ही अपनी कापी दिखाने के लिए मैम के पास गई, मैंने उसका टिफिन छिपा दिया। कापी दिखाकर वह आई, उसी समय मध्याह्न अवकाश की घण्टी बजी। हम सबने अपना-अपना टिफिन निकाला और वह हैरान। वह जितनी ही हैरान होती हमें उतनी ही खुशी होती ।
            ऐसा क्यों होता है माँ? किसी की हैरानी में दूसरे को खुशी क्यों होती है? क्या तुम जानती हो माँ? लौटकर चलूँगी तो बाबा से पूछेंगी। बाबा एक बार मुस्करायेंगे फिर दसों उँगलियों को जोड़ते हुए बताना शुरू करेंगे। जब तक मेरी समझ में न आ जाएगा, वे बार-बार समझाते रहेंगे। बाबा कितनी ही बातें समझाते हैं। शाम को इसी लिए मैं उनके साथ बैठती हूँ माँ। मैं उनसे सवाल करती हूँ, वे उत्तर देते हैं। कभी-कभी बाबा सीधे सवाल कर देते। छोटे-छोटे सवाल। जब मैं उनका उत्तर देती तो बड़े सवालों का जवाब उनमें छिपा होता। बाबा कहते कि देखो तुम्हारे इन उत्तरों से पहले सवाल का उत्तर निकल आया। मैं भी खुश होती कि देखो मेरी मेहनत से आखिर उत्तर निकल ही आया। जब भी मैं किसी शब्द का अर्थ पूछती। अर्थ जानते हुए भी वे मुझे शब्दकोश देखने के लिए कहते। माँ, अब मैं हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत कोषों में शब्दों का अर्थ बहुत जल्दी खोज लेती हूँ। यह अच्छी बात है न। कभी-कभी बड़े बच्चे भी शब्दकोष से जल्दी अर्थ नहीं खोज पाते। लौटकर चलूँगी तो रोज शाम को बाबा के पास बैठकर कुछ न कुछ सीखूँगी।'
          माँ से बात करते हुए मनु की दृष्टि दरवाजे से आते हुए डॉक्टर चाचू पर पड़ती है। जैसे ही वे मनु के पास आते हैं, वह बोल पड़ती है, 'डॉक्टर चाचू प्रणाम'। प्रणाम का उत्तर देते हुए वे पूछ लेते हैं, 'मनु तुम्हें अच्छी नींद आई।' 'हाँ' मनु का उत्तर था। 'आप मुझे कब यहाँ से छुट्टी देंगे डॉक्टर चाचू ?' 'बस तुम ठीक हो जाओ उसके बाद छुट्टी ही।' तो मैं कहानी सुनाती हूँ। मनु अपने परिवार के बारे में बताना शुरू कर देती है।
            'कल मैंने आपको अपने बाबा के बारे में बताया था। मेरा परिवार बहुत बड़ा है डॉक्टर चाचू। मेरे बाबा तीन भाई हैं। मँझलें बाबा गाँव पर रहते हैं। जानते हैं, उन्हें मैं क्या कहती हूँ? आप हँसेंगे यह सुनकर कि मैं उन्हें गोदी वाले बाबा कहती हूँ। गोद में लेकर मुझे सबसे अधिक उन्होंने ही खिलाया है। उनका अपना कोई बच्चा नहीं है। मुझे लेकर घण्टों वे कभी कन्धे पर बिठाते, कभी गोद में लेकर झुलाते, कभी पीठ पर बिठाते। बहुत प्यार पाया है मैंने उनसे। जो भी मैं कहती वे तुरन्त करने को तैयार हो जाते। मैं कहती-बाबा झूला डाल दो, वे तुरन्त रस्सी लेकर खपड़ैल की धरन में झूला डाल देते। बड़े से पीढ़े को बाँधकर बैठने का स्थान बनाते। मुझे बिठाकर झूला झुलाते। उनके लिए मेरी इच्छा ही सब कुछ होती। वे कभी इनकार न करते। चाहे चाकलेट की माँग हो या बड़ी-बड़ी बेर की। वे पीठ पर बिठा लेते और खेत, तालाब सब की सैर कराते और कहानियाँ ऐसी सुनाते कि बार-बार सुनने को मन करता। वे गाँव घुमाते, सबके बारे में बताते। डॉक्टर चाचू, हमारे गोदी वाले बाबा किसी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते है। जब मैं छोटी थी तो कभी-कभी रात में कहती कि मैं गोदी बाबा के पास जाऊँगी। मैं जिद करती तो माँ को मुझे उनके पास ले जाना ही पड़ता और वे इतने खुश होते कि क्या कहूँ? तभी तो बार-बार मन करता है कि गोदी बाबा के पास चली जाऊँ।  उन्हें पापा ने बताया नहीं है कि मनु यहाँ बिस्तर पर पड़ी हैं नहीं तो वे यहाँ भाग कर आते। पापा ने अच्छा ही किया है। उन्हें इतनी दूर इस गर्मी में दौड़ाना, कोई अच्छी बात तो नहीं है। ठीक हो जाऊँगी तो चलकर उनसे खुद मिलूँगी। कितने खुश हो जाएँगे वे? घर पर तीन ही लोग तो रहते हैं। दादी अम्मा, परसपुर वाली दादी और गोदी वाले बाबा। आकाश चाचू भी वहीं रहकर पढ़ते हैं। कभी रहते हैं, कभी घर चले जाते हैं। जानते हैं डॉक्टर चाचू मेरी दादी अम्मा की उम्र अस्सी से ऊपर हो गई है। उन्हें सुगर जरूर है पर वे चलती फिरती और काम करती रहती हैं। उनका दिमाग बहुत तेज है डॉक्टर चाचू । आप मिलोगे तो खुद देखोगे। गाँव पर रहने वाली दादी परसपुर क्षेत्र में काम करती हैं। इसीलिए हम उन्हें परसपुर वाली दादी कहते हैं। आप हँसोगे डॉक्टर चाचू। पर जब दादियाँ बहुत हों तो सबके लिए कुछ अलग-अलग पहचान बनानी ही पड़ती है। उन्हें हफ्ते में एक दो बार परसपुर जाना ही पड़ता और हम उन्हें परसपुर वाली दादी कहने लगे। दादी अम्मा और परसपुर वाली दादी दोनों हमें कितना प्यार करते हैं? इसीलिए मैं अक्सर पापा से कहती कि पापा मैं भी गाँव चलूँगी। दादी अम्मा, गोदी वाले बाबा और परसपुर वाली दादी से मिल लूँगी। गाँव के वे बच्चे जिनके साथ मैं खेला करती थी उनसे भी मिलूँगी। पापा मुझे अक्सर गाँव ले जाते। घण्टे दो घण्टे के लिए घर पर छोड़ देते। मैं खेलती, कूदती, सबसे मिलती, दादी अम्मा से बात करती, गोदी वाले बाबा की गोद में बैठकर बतियाती। परसपुर वाली दादी अपने हाथ से खिलातीं, मुझे खूब मजा आता। गाँव के बच्चों से मिलती। मुझे देखकर वे खुद ही मिलने चले आते। मैं सबको लेकर छिपी छिपान खेलती। एक बात बताऊँ डॉक्टर चाचू । अपने घर में मैं अकेली बच्ची थी। गाँव में मेरे घर के बगल से रास्ता जाता है। मैं चाहती कि कोई मुझसे खेले। इसीलिए गाँव के छोटे बच्चे-बच्चियाँ जब मेरे घर से होकर गुजरते, मैं उन्हें बुलाती और कहती आओ खेला जाए। बच्चे अगर किसी जरूरी काम से न जा रहे होते तो खेलने के लिए तैयार हो जाते और हम एकल, दुक्कल, छिपी-छिपान जाने क्या-क्या खेलते। छोटे बच्चों को अपने बराबर के बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं। उनके साथ खेलना-कूदना सब कुछ बहुत अच्छा लगता है। बच्चे यह नहीं जानते कि वे किस घर के बच्चे के साथ खेल रहे हैं। वह घर बड़ा है या छोटा, इसकी परवाह कौन करता है? हम तो बच्चे थे, बच्चों के साथ खेलते थे। माँ जरूर कहने लगी है कि तेरा बारहवाँ लग गया है। क्या मैं बड़ी हो गई हूँ डॉक्टर चाचू ? कभी-कभी माँ कह देती है अब तुम बड़ी हो गई हो छोटे बच्चों के साथ क्या खेलती हो? क्या बड़े होने पर छोटों के साथ नहीं खेल सकते ? छोटे बच्चे अब भी मुझे बहुत प्यारे लगते हैं। संजय चाचू का बेटा है न। मैं उसे खूब खिलाती हूँ। अच्छा लगता है मुझे। मम्मी कहती हैं कि छोटे बच्चों से भगवान रोज बतियाते हैं। मैं भगवान जी से कहूँगी कि मैं बड़ी जरूर हो गई हूँ पर मुझसे बतियाने उन्हें आना ही पड़ेगा। वे सबका दुःख देखते हैं तो मेरा क्यों नहीं देखेंगे?
            यह आक्सीजन वाली नली कब निकलेगी डॉक्टर चाचू। क्या हमेशा लगी रहेगी? मेरी साँस ठीक से चलने लगेगी न। यह साँस तेज क्यों हो जाती है? एक छोटी सी किताब में मैंने पढ़ा था कि साँस ही जीवन है। जीवन है तो साँस है। तब इसमें गड़बड़ी क्यों होती है डॉक्टर चाचू ?
मेरा बुखार कम हुआ है न ?......आज कुछ कम हुआ है तो कल कुछ और कम हो जायेगा....... और फिर मैं ठीक हो जाऊँगी. खेलने कूदने लायक.... अगर हम ठीक होते तो इस चारपाई पर पड़े थोड़े रहते। बल्ला और गेंद लेकर क्रिकेट खेलते। सभी बच्चों को बुलाकर मैदान में चौका, छक्का लगाते। कितना मजा आता? पूरी टीम न होती तो बैडमिंटन ही खेल लेते। कोई भी एक बच्चा साथ देता। कभी मन करता तो एकल, दुक्कल खेलते और छिपी छिपान तो होता ही। बच्चों का बिस्तर पर पड़ा रहना, क्या अच्छा लगता है? आपका मन भी खेलने को करता होगा। आप खेलते हैं न। तो मुझको क्यों यहाँ बिस्तर पर डाल रखा है?
              जल्दी से ठीक कर दो न। मैं भी खेलूँ, कूदूँ घमा चौकड़ी मचाऊँ। मेरे सीने में हल्का सा दर्द हो रहा है डॉक्टर चाचू। आपके आले में क्या मेरा दर्द आया है?.. . ठीक है मैं बर्दाश्त कर लूँगी। दर्द इतना अधिक नहीं है। जो दवा आप दे रहे हैं, खा लूँगी। कभी कभी मन करता है कि दवा न खाऊँ पर बिना दवा के तो ठीक भी नहीं हो पाऊँगी। चलो आँख बन्द कर कड़वी दवा भी खा लेती हूँ। सब कुछ अच्छा ही कहाँ होता है? कुछ कड़वी गोली खानी पड़ती है। आपने देख लिया डॉक्टर चाचू। सब ठीक है न? ठीक है...........और बच्चों को भी तो देखना है। सबको ठीक होना है। केवल मैं ही ठीक हो जाऊँ, यह कोई अच्छी बात है ! सबका ठीक होना ही अच्छा है। ये बच्चे हमारी ही तरह बहुत दूर से आए हैं। डॉक्टर चाचू हमारी ही तरह इन्हें भी ध्यान से देखना।'

डॉक्टर साहब के जाने के बाद भी मनु का मन तरह-तरह की बातों
में लगा रहा। उसके पापा सिरहाने आकर उसके माथे पर हाथ रखते हैं। माँ एक स्टूल पर मूर्तिवत बैठी हुई। पापा उसका माथा सहलाते हैं। मनु को अच्छा लगता है। 'पापा आपने जो केले का बाग लगाया था अब तो बढ़ गया होगा।' पापा 'हाँ' में उत्तर देते हैं। 'तुम्हारे बराबर हो गये हैं।' तब तो बहुत अच्छा रहेगा पापा। छिपी छिपान खेलने में बहुत मजा आएगा। उसमें केले के घर लगेंगे न? उन्हें पकाऊँगी मैं। पापा एक घर मुझे दे देना। पका कर सब बच्चों को खिलाऊँगी। केले से पैसे मिलेंगे न। ठीक है पैसे की जरूरत तो पड़ती है। छोटे बाबा ने भी केले का बाग लगाया है। इस समय वही देखभाल कर रहे होंगे। कैसे-कैसे दिन आ जाते हैं? छोटे बाबा को फोन कर देना। केला पानी बहुत चाहता है पापा। पानी न पाने पर पौधे कहीं सूख न जाएँ? छोटे बाबा रहकर पानी दिला देंगे। पानी पाएगा तभी तो ऊपर बढ़ेगा केले का पौथा। पापा तुम्हें बहुत दुख हो रहा है न? मेरे कारण सो भी नहीं पाते आप? सोना जरूरी है स्वास्थ्य के लिए। मैं जीना चाहती हूँ, इसे भगवान जी क्या नहीं जानते? उनसे कहूँगी मैं मुझे बुला लोगे तो मम्मी-पापा दुखी होंगे। दुख देना तुम्हारा स्वभाव नहीं है और मैं तो बच्ची छोटी सी मुझे बुला लोगे तो...........।
          नहीं पापा, आप दुखी न हों। मम्मी की हँसी लौट आए तो कितना अच्छा हो। मुझे लगता है कि मैं भाग रही हूँ। कात्यायनी मेरे पीछे दौड़ रही है। इस बार मामा के यहाँ चलेंगे पापा। उनके पास आम का बाग है न। बाग में आपके साथ चलेंगे। मीठे मीठे आम टपकेंगे। मैं दौड़ दौड़कर उठाऊँगी। मामा भी दौड़ेंगे, विश्वजीत और कात्यायनी भी।
           राशी, उसके भय्या, मौसी-मौसा को भी गोरखपुर से बुला लेंगे। मौसा पूछेंगे- 'मनु क्या खाओगी तुम ?' मैं कुछ न बोलूँगी तो वे स्वयं कोई न कोई चीज मँगाकर बैठ जाएँगे। राशी मुझसे बड़ी है न? मुझे कहानियाँ सुनाएगी। हम लोग ज्ञान की बातें करेंगे। राशी को मैं दीदी कहती हूँ पर कात्यायनी को कात्यायनी ही कहती हूँ। मुझे उसको भी दीदी कहना चाहिए न? पर मैं कहती नहीं। कभी-कभी नाम लेकर पुकारना ज्यादा अच्छा लगता है। वह मेरी दोस्त भी तो है। राशी बड़ी है। उसको तो दीदी कहना हीं पड़ेगा। पापा, मौसी-मौसा आ जाएँगे तो हम सब लोग मामा के साथ सुल्ताना गाँव चलेंगे। वहाँ मामा की खेती है न। वहाँ से हिमालय बहुत साफ दिखता है। आम के पेड़ की छाया में बैठकर आराम से पहाड़ देखेंगे। फिर वहीं से पहाड़ के नजदीक चलेंगे। पहाड़ के पेड़ों को हाथ से छुएँगे। एक बार आपके साथ गए थे न पापा। नाले से होकर रास्ता था। नाले में छोटे-बड़े पत्थर भरे हुए। दो रंगीन पत्थर मैं लाई भी थी। उससे खेलने में मुझे मजा आता। सहेलियों से कहती-यह पत्थर लाई हूँ। बाबा कहते थे कि यह ग्रेनाइट है। बहुत चिकना पत्थर। अब भी मेरी छोटी मेजपर रखा होगा। पहाड़ियों पर चढ़कर देखा जाएगा पापा कि मैदान के गाँव कैसे लगते हैं। पहाड़ के किनारे तो थारू ज्यादा बसते हैं। मम्मी थारुओं से मिलने में घबराती हैं। मुझसे कहती हैं कि उनके बीच में जाने पर वे नाखुश न हो जाएँ। पर मैं एक बार जाऊँगी। देखूँगी कि वे कैसे रहते हैं? किताब में मैंने थारुओं की फोटो देखी है। उनके छप्पर के घरों का भी फोटो देखा है। छप्पर से बने घर, साफ-सुथरे। हमारा घर तो पक्का बना है लेकिन थारू छप्पर के घरों में कैसे रहते हैं? यह देखूँगी। क्या उनका घर पक्का नहीं हो सकता पापा ? उनके बच्चों का फोटो देखकर लगता है कि वे पढ़ नहीं पा रहे हैं। ऐसा क्यों होता है? स्कूल तो वहाँ भी होंगे। बचपन से ही उन्हें काम करना पड़ता होगा, पढ़ने का समय ही न मिलता होगा। बहुत दुःख होता है पापा, जब देखती हूँ बच्चे स्कूल नहीं जाते। वे एक झोली में रोटी बाँधे बचपन से ही काम पर लग जाते हैं। उनकी पढ़ाई के लिए कुछ करना चाहिए पापा। थारुओं के गाँव होते हुए हम लोग लौटेंगे। मामा के घर रुकेंगे। सहेट-महेट भी देखना चाहती हूँ पापा। गौतम बुद्ध की कहानी मैंने पढ़ी है। बाबा बताते थे कि गौतम बुद्ध सहेट-महेट में पच्चीस बरसात रहे थे। बाबा यह भी बताते थे कि गौतम बुद्ध बरसात के महीनों में भ्रमण नहीं करते थे। किसी एक जगह पर रहकर प्रवचन का कार्य चलाते थे। अंगुलिमाल की कहानी भी मैंने किताब में पढ़ी है। वह किताब अलमारी में रखी है पापा। आप भी देख लेना। उसको उसके गुरु ने ही गलत रास्ता दिखा दिया था। गुरुओं को ऐसा नहीं करना चाहिए पापा। वह अंगुली काट कर माला बना, पहनता था। इसीलिए उसे अंगुलिमाल कहते हैं। गौतम बुद्ध ने उसे साधु बना दिया था। अच्छे गुरु मिल जाएँ तो किसी भी आदमी को अच्छा बनाया जा सकता है।
         बाल्मीकि की कहानी में भी तो यही बात कही जाती है। पढ़ लिखकर अगर मुझे पढ़ाने का मौका मिला तो मैं बच्चों को भरपूर प्यार दूँगी, मेहनत से पढ़ाऊँगी और सही रास्ता दिखाकर उन्हें आगे बढ़ाऊँगी। बच्चों को पढ़ाना कितना बड़ा काम है पापा ? मैं कहाँ पहुँच गई। पता नहीं अध्यापक बन भी पाऊँ या नहीं। मन जरूर कहता है कि अध्यापक ही बनूँ पर सब कुछ अपने मन के हिसाब से कहाँ होता है? हमारे कई चाचू बाबा से मिलने आते हैं। वे बताते हैं कि वे भी अध्यापक बनना चाहते थे, मेहनत से पढ़ाना चाहते थे पर उन्हें मौका ही नहीं मिल पाया। सहेट-महेट से हम लोग लौटेंगे तो मामा के यहाँ दो चार दिन रहकर फिर अपने घर चले आएँगे। बाबा के कमरे की सफाई भी तो करनी रहती है। हम बहुत दिन बाहर रहेंगे तो सफाई कौन करेगा? बाबा काम करते रहेंगे तो उन्हें पानी कौन पिलाएगा?
         पापा ! तुम दुखी क्यों हो रहे हो? आप माथा सहलाते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। पापा मुझे एक सहारा दे कर करवट बदल दो। दायीं करवट कर दो। थोड़ा आराम कर लूँ। चित पड़े रहने पर कभी-कभी मन ऊब जाता है। सबेरे भगवान जी आए थे। मैंने उनसे कहा कि मैं जीना चाहती हूँ। वे अपनी तर्जनी से चक्र घुमाते हुए बहुत खुश दिख रहे थे। मेरी बात को उन्होंने अच्छी तरह सुना, मुस्कराए और चले गए। इस मुस्कराहट का क्या अर्थ होता है पापा? वे दुःखी बिल्कुल नहीं थे। क्या इससे यह समझें कि उन्होंने मेरे ठीक होने का निर्देश दे दिया है। हम सब दुःखी होते हैं तो भगवान जी की ओर क्यों भागते हैं पापा? क्या भगवान जी हम लोगों के सुख-दुख का हिसाब रखते हैं? कितना बड़ा दफ्तर होगा उनका जिसमें सबका हिसाब रखा जाता होगा। तब भी कोई न कोई घपला तो हो ही जाता होगा। इनका कागज उनकी फाइल में जुड़ जाता होगा। गलत आदेश हो जाते होंगे। भगवान के दूत जब किसी को उठा ले जाते होंगे, उनकी पेशी होती होगी। पता चलता होगा कि यह तो गलत आदमी उठा लाए हैं। कितनी मजेदार बात है यह। रोहन की जगह सोहन यमराज के सामने हाजिर हैं। यमराज भी डाटते होंगे। क्यों ले आए इसे? इसे तो अभी पन्द्रह साल और जीना है। मेरी भी फाइल यमराज के पास रखी होगी। वे बार-बार देखते होंगे, झुंझलाते होंगे, कहते होंगे बड़ी मुश्किल है यह फाइल। उनकी झुंझलाहट पर मुझे हँसी आती है। क्या मेरी फाइल इतनी मुश्किल है कि कुछ समझ में ही नहीं आता। अरे भाई दिमाग लगाओ। बहुत काट कूटकर नहीं सीधे सीधे लिखो तो समझ में भी आए। उसी में घोंचते रहोगे तो क्या समझ में आएगा? कुछ न समझ में आए तो मुझे पढ़कर सुनाना। मैं एक-एक बात बताती चलूँगी। अपनी फाइल में संशोधन कर लेना। जो गड़बड़ होगा उसे काट कर साफ-साफ लिख देना। इससे निर्णय लेने में आसानी होगी। अभी दूत मत भेजना। मेरा ऊपर जाने का समय अभी कहाँ हुआ है? हाँ दधीचि की तरह मेरी हड्डियों से भी बज्र बनाना हो तो दूसरी बात है। पर मैं पूछना चाहती हूँ कि वज्र की जरूरत ही क्यों पड़ती है? पापा अब आप भी कुछ आराम कर लो। मैं ठीक हूँ। अब सोना चाहती हूँ। पलकें भारी हो रही हैं।'