Nafrat e Ishq - Part 3 in Hindi Love Stories by Umashankar Ji books and stories PDF | Nafrat e Ishq - Part 3

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Nafrat e Ishq - Part 3



जैसे ही मनीषा ने अपने अंदर की उथल-पुथल को काबू में करने की कोशिश की, उसके दिल में एक नई उम्मीद जाग उठी। उसे महसूस हुआ कि यह नई शुरुआत ही उसके अतीत से उबरने का मौका हो सकता है। उसने तय किया कि वह खुद को मजबूत बनाएगी और अपने अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ेगी, पर उस अनजान शख्स का चेहरा अब भी उसके मन में तैरता रहा। जैसे ही वह अपने खयालों में खोई हुई थी, एक हल्का सा झटका उसे वर्तमान में खींच लाया।

"हाँ, हाँ क्या?" मनीषा ने अचानक हड़बड़ी में कहा।

"मैडम, क्या अब आपका केबिन दिखाऊँ? सब तैयार है," एक मीठी आवाज में मुस्कुराती हुई लड़की ने पूछा।

मनीषा ने उसकी ओर देखा और हल्के से मुस्कुराई। "अरे, तुम कौन हो?" उसने आश्चर्य से पूछा।

"मैं अंजू आहूजा हूँ, आपकी सेक्रेटरी," उस लड़की ने अपनी मुस्कान बरकरार रखते हुए जवाब दिया।

अंजू के सौम्य व्यक्तित्व और व्यावसायिक वेशभूषा ने मनीषा का ध्यान तुरंत खींचा। 5 फुट 6 इंच की लंबाई, तीखे नैन-नक्श और नेवी ब्लू फॉर्मल सूट के साथ वह एक आत्मविश्वास से भरी महिला दिख रही थी। उसकी आँखों पर हल्का चश्मा था जो उसकी आकर्षक छवि को और भी निखार रहा था।

"अच्छा, ठीक है," मनीषा ने आत्मविश्वास से कहा और अंजू के साथ लिफ्ट की ओर बढ़ी। रास्ते में, उसकी निगाहें एक बार फिर से उस अनजान शख्स को ढूंढ़ने लगीं, पर वह कहीं नज़र नहीं आया।

अंजू ने लिफ्ट का बटन दबाया और दोनों अंदर चली गईं। जैसे ही लिफ्ट के दरवाजे बंद हुए, मनीषा ने एक गहरी साँस ली और खुद को सहज करने की कोशिश की। नई शुरुआत के इस एहसास के साथ उसकी घबराहट थोड़ी कम हुई, लेकिन फिर भी एक हल्की बेचैनी उसके दिल में बनी रही।

वहीं दूसरी ओर, ऑफिस के एक कोने में सहदेव नाम का एक युवक पहले से ही मौजूद था। सहदेव एक मेहनती और आत्मविश्वासी युवक था, जो दिल्ली में अपनी नौकरी और फिटनेस का संतुलन बखूबी बनाए हुए था। वह अपनी चुटीली बातों और हल्के-फुल्के मजाक के लिए पूरे ऑफिस में मशहूर था। जैसे ही वह केबिन में घुसा, उसने देखा कि उसके दोस्त नक्श पहले से ही वहाँ बैठे हुए थे और उनके हाथ में एक गरम चाय का कप था।

नक्श लगभग 40 साल का, मस्कुलर कद-काठी वाला और पहलवान जैसी मजबूत काया का मालिक था। उसकी बॉडी लैंग्वेज से ही उसके व्यक्तित्व की सख्ती और मजाकिया अंदाज दोनों झलक रहे थे। वह फास्ट्रेक एडवरटाइजमेंट में सिक्योरिटी हेड था, और दिखने में जितना सख्त था, उतना ही मजाकिया भी। ऑफिस में उसके दोस्त भी कम नहीं थे, और उनमें से सहदेव उसका खास दोस्त था।

"अरे नक्श बाबू, किसको चकमा दे रहे हो? तुम तो हमेशा अपनी शरीफी का ढोल पीटते रहते हो," सहदेव ने अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ चुटकी ली।

"अरे भाई, मैं किसी को इल्यूजन में नहीं डाल रहा हूँ। बस यहाँ चाय पीने बैठा हूँ। तुम्हारी आँखें हैं या बटन, ये क्या देख रही हैं?" नक्श ने हँसते हुए जवाब दिया। उसकी बातों में आत्मविश्वास और हल्का सा व्यंग्य भी छिपा था।

सहदेव ने नक्श की ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा, "चलो, चलो, मुझे पता है तुम कितने हरिश्चंद्र के वंशज हो। वो हरी थैली में जो ब्लैक डॉग की बोतल है, वो मेरी नज़र से नहीं बच सकती।"

सहदेव की बात सुनते ही नक्श चौंक गया। अपने को संभालते हुए बोला, "अबे यार, धीरे बोल! अगर किसी ने सुन लिया तो मेरी इज्जत का फालूदा हो जाएगा। और मैनेजमेंट में ये बात पहुँच गई तो समझो नौकरी से धक्के मारकर बाहर निकाल देंगे।"

सहदेव ने आँखों में एक शरारती चमक के साथ जवाब दिया, "काम भी तो वैसे ही करते हो! तुमसे शरीफी की उम्मीद तो वैसे ही बेमानी है।"

नक्श ने मुस्कुराते हुए अपनी चाय का घूँट लिया, फिर पास रखी हरी थैली में से धीरे से ब्लैक डॉग की बोतल बाहर निकाल ली। सहदेव ने अपनी भौहें चढ़ाते हुए नक्श को देखा।

"चलो, अब बताओ कैसे पता चला कि मेरे पास ये बोतल है?" नक्श ने पूछा।

"भाई, वही दुकान पर था जहाँ से तुमने ये खरीदी थी। सब देख लिया था मैंने। तुम्हारी चालाकी मेरी नजरों से बच नहीं सकती," सहदेव ने हँसते हुए जवाब दिया। नक्श ने यह सुनकर हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया, जैसे कि उसने हार मान ली हो।


वहीं दूसरी तरफ, 






एलीवेटर में मनीषा और अंजू के बीच एक असहज सी खामोशी पसरी हुई थी। अंजू ने जबसे मनीषा के साथ एलीवेटर में कदम रखा था, उसने महसूस किया कि नई मैनेजर का चेहरा कुछ ज्यादा ही गंभीर और तनावग्रस्त है। अंजू की नजर बार-बार मनीषा के चेहरे पर जा रही थी; कई बार वह कुछ कहने के लिए मुंह भी खोलती, पर रुक जाती। आखिरकार, अपनी जिज्ञासा और चिंता को दबा पाना उसके लिए मुश्किल हो गया।

“मैडम, आप ठीक हैं? आपको देखकर ऐसा लग रहा है जैसे किसी चिंता में हों,” अंजू ने थोड़े संकोच के साथ पूछा।

मनीषा के चेहरे पर एक क्षणिक असमंजस उभरा। उसने मन ही मन सोचा, “क्या इसे सच बताना ठीक होगा? आखिर मैं इसे ठीक से जानती भी नहीं हूँ। कहीं इस पर गलत असर ना पड़े… या शायद यह बात किसी और तक पहुँच जाए। नहीं, मुझे सावधानी बरतनी होगी।” उसने अपने विचारों को सँभाला और चेहरे पर हल्की मुस्कान लाकर बोली, “अरे नहीं, अंजू। बस नया जॉब है, और कुछ पुरानी फाइलों का दबाव है, इसी को लेकर थोड़ी घबराहट है।”

अंजू ने समझते हुए सिर हिलाया और मुस्कुराकर कहा, “मैडम, आप चिंता मत कीजिए। कुछ ही दिनों में सब ठीक से समझ जाएँगी। नए माहौल में सब ऐसा ही महसूस करते हैं।”

इतने में एलीवेटर की घंटी बजी, और दोनों बाहर निकल आईं।


फास्ट्रेक एडवर्टाइजमेंट ब्रांच की इमारत छह मंजिलों की थी, और मनीषा का केबिन सबसे ऊपरी मंजिल पर था। अंजू ने उसे उसके केबिन में पहुँचा दिया। केबिन काफी भव्य और आधुनिक था। पीछे बड़ी-सी खिड़की से शहर का दृश्य दिखाई दे रहा था, और हरियाली के लिए छोटे पौधों के गमले भी रखे गए थे। सामने एक बड़ा सा काउंटर था, जिस पर कंफर्टेबल चेयरें सजी हुई थीं। दाईं तरफ एक घूमने वाली शानदार अलमारी थी, जिसमें कांच लगे हुए थे और जिसे आसानी से घुमा कर जगह बदली जा सकती थी। 

बैंगनी रंग के सोफे और सुंदर डेकोरेशन से केबिन का माहौल काफी आकर्षक लग रहा था। इसके साथ ही मनीषा के केबिन के पास एक छोटा-सा काउंटर था, जहाँ उसकी सेक्रेटरी अंजू बैठा करती थी। केबिन में प्रवेश के लिए दो गेट थे—पहले गेट से सेक्रेटरी की जगह से होकर जाना पड़ता था, फिर दूसरा गेट मैनेजर के केबिन का था।

“अंजू, एक काम करो, मुझे बिना चीनी का एक कैप्पुचीनो ले आओ,” मनीषा ने आदेश दिया।

“जी मैम, बस पाँच मिनट में लेकर आती हूँ,” अंजू मुस्कुराई और बाहर चली गई।

मनीषा ने केबिन को अच्छे से देखा, फिर जाकर कुर्सी पर बैठ गई। उसने गहरी साँस ली और कुछ पलों के लिए आँखें बंद कर लीं। विचारों की हलचल उसे भीतर ही भीतर परेशान कर रही थी। उसने अपने माथे को हाथ से सहलाया, चेहरे पर तनाव साफ झलक रहा था।

“क्या वह व्यक्ति वाकई यहाँ है?” उसने धीरे-से खुद से कहा। “उसे मिले हुए तो 40 दिन हो चुके हैं, लेकिन उस एक मुलाकात ने कितना असर छोड़ा था… वह पहली ही बार में ऐसा लगा था, जैसे सात जन्मों का कोई रिश्ता हो।”

एक तीव्र बेचैनी उसके भीतर उठी। कहीं यह सब एक इत्तेफाक तो नहीं? या फिर उसे यहाँ भेजा गया हो? इतने सारे सवाल उसके दिमाग में घुमड़ने लगे।

मनीषा अपने आप से बात करते-करते खो सी गई थी। उसने अपनी आँखें बंद कर रखी थीं कि अचानक एक हल्का-सा खटखटाने की आवाज आई। वह चौंककर उठ बैठी। 

“मैडम, आपकी कैप्पुचीनो,” अंजू ने दरवाजे से झाँकते हुए कहा।

“अरे, हाँ… रख दो, अंजू।” मनीषा ने खुद को संभाला, चेहरे पर हल्की मुस्कान लाई और कप को उठाते हुए सोचा कि शायद उसे इन बातों को अपने दिल से निकाल देना चाहिए। लेकिन क्या इतना आसान होगा?

जैसे ही अंजू केबिन से बाहर गई, मनीषा फिर से अपने विचारों में खो गई। "क्या उसने भी मुझे पहचाना होगा? उस रात की बात को वो यूँ ही भूल गया होगा या अब भी उसकी यादों में है?" मन ही मन उसने सोचा। वह नहीं चाहती थी कि किसी को उसके मन में छुपे इस रहस्य का पता चले। 

कुछ ही पलों बाद दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई। मनीषा ने संयत होकर दरवाजा खोला, इस बार सामने नक्श खड़ा था। नक्श, फास्ट्रेक एडवरटाइजमेंट ब्रांच का सिक्योरिटी हेड, जिसकी उम्र करीब 40 के आसपास थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी चंचलता थी, जो उसके सख्त और गंभीर व्यक्तित्व को एक नया आयाम देती थी।

“क्या हाल हैं, मैडम?” नक्श ने मुस्कुराते हुए पूछा। उसकी आवाज में एक हल्की चुटकी लेने का अंदाज़ था। 

“अरे, नक्श जी, आप यहाँ?” मनीषा थोड़ा असहज हुई लेकिन फिर संयम से बोली।

“बस, मैडम, नए मैनेजर के स्वागत के लिए आया था। वैसे तो आप नई हैं, लेकिन आपकी ख्याति यहाँ पहले से ही फैल चुकी है,” नक्श ने मजाकिया लहजे में कहा और एक झलक उसकी मुस्कुराहट की ओर फेंकी।

“ओह, ये ख्याति का मामला है या कोई गपशप?” मनीषा ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, लेकिन उसकी आवाज में थोड़ी संजीदगी थी।

“अरे नहीं मैडम, बस आपके काम के बारे में सुना है। हम आपके सहयोग की उम्मीद करते हैं। वैसे अगर कोई परेशानी हो, तो मुझसे बेहिचक कहिएगा।” नक्श ने हल्के से सिर झुकाते हुए कहा और अपने विशेष अंदाज में मुस्कुराते हुए चला गया।

नक्श के जाने के बाद मनीषा के मन में उसके बारे में संदेह और भी गहराने लगा। वह इस सोच में पड़ गई कि क्या नक्श वही व्यक्ति था या फिर यह सब उसका सिर्फ वहम था। 

मन की उलझनों में खोई मनीषा को एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हुई। आखिर वह किससे बात करे, कौन उसकी मदद कर सकता है? अपने विचारों में खोई हुई वह यह सब सोच ही रही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी। 

“हैलो, मैडम! मैं राहुल बोल रहा हूँ, हमारी पिछली मीटिंग में जो डिस्कशन हुआ था, उस पर आगे बात करनी है,” फोन पर एक नई आवाज सुनाई दी।

“अरे हाँ, राहुल! मैं बिल्कुल तैयार हूँ। आप बताइए, कहाँ मिलना है?” मनीषा ने खुद को संयत किया और प्रोफेशनल अंदाज में जवाब दिया। लेकिन उसके भीतर के सवाल अनसुलझे थे, और उसकी आंखों में उन सवालों की गहराई झलक रही थी।

“जी, तो अगले घंटे में आपके केबिन में आता हूँ।” राहुल ने बात खत्म की और मनीषा ने धीरे से फोन रख दिया।

फोन रखकर उसने फिर से एक गहरी सांस ली। क्या इस नई शुरुआत में उसे अपने अतीत से जूझना पड़ेगा, या फिर यह सब सिर्फ एक इत्तेफाक था?