Angad - 8 in Hindi Fiction Stories by Utpal Tomar books and stories PDF | अंगद - एक योद्धा। - 8

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अंगद - एक योद्धा। - 8

जंगली जानवरों से अंगद का सामना पहले भी हो चुका था। जानवरों से उसे भय तो कभी महसूस ना हुआ, जब भी उसका सामना किसी जंगली जानवर से होता तो वह या तो जानवर को डरा कर वहां से भगा देता या खुद होशियारी से जानवर को चकमा देकर वहां से नौ दो ग्यारह हो लेता था।  जानवर को भगा देना, डरा देना या खुद उसे चकमा देकर वहां से चंपत हो लेना अंगद को आनंदित करता था, परंतु यह काम उसे कभी संतुष्ट न करता।

उस दिन मानो अंगद का हृदय बरसों से विलुप्त संतुष्टि कहीं से ढूंढ निकालना चाहता था चाहे उसके लिए उसे जो भी जतन करना पडे, आज अंगद ने वक्र के साथ आंख-मिचौली नहीं खेली। अपितु, उसकी आंखों में आंखें डाल कर मानो वह उसके मन के भीतर की आवाज सुन रहा था और उसे अपने हृदय तल में झांकने दे रहा था। अंगद और वक्र की धमनियां अब समान हो चुकी थी, उनके दोनों के टकराव से जो शीलता उत्पन्न हुई थी,  अब वह शीलता उन दोनों के अंतर मन में धीरे-धीरे आनंदित हो रही थी।  कुछ ही क्षणों में वह दोनों ऐसे खिलंदड़ी करने लगे जैसे नन्हे शावक, जिन्हें ज्ञात ही नहीं होता कि इसके अलावा उन्हें क्या करना है। यह अनुभव दोनों के लिए बिल्कुल नया था, अब उन दोनों के मन एक दूसरे के सामने किसी खुली किताब की भांति उजागर थे, जिस किताब को अंगद जहां से चाहे पढ़ सकता था। यह अनुभव अंगद की जिज्ञासा को एक नया पैमाना दे रहा था, उसे वह सब किसी स्वप्न जैसा प्रतीत हो रहा था... किसी अच्छे सपने जैसा।

उसकी इंद्रियां एक नए आयाम पर जा स्थापित हुई थी, विशालतम हलचल से लेकर प्रकृति की सूक्ष्मतम आहट को अंगद भली भांति महसूस कर सकता था। अपने भीतर एक-एक रक्त कण की गति को वह भाप सकता था व उसे नियंत्रित करने का अद्भुत कौशल उसके अंदर जन्म ले रहा था। वक्र के संग कुछ देर खेलने के पश्चात वह वन में आगे बढ़ गया। उसके पाँव पृथ्वी का कंपन और दूब की कोमलता दोनों के महसूस कर रहे थे, प्रकृति की कोई ध्वनि उसके कानों से अछूती नहीं थी। उसकी आंखें अब हर सूक्ष्म, अ-सूक्ष्म जीव-वस्तु का चित्रण कर रही थी, इस अकल्पनीय आभास का कभी अंगद ने स्वप्न भी ना देखा था। वह अविश्वसनीय भाव से यह सब समझने का प्रयास कर रहा था और जितना वह समझता उतना ही गहरा प्रकृति की गोद में उतर जाता। प्रकृति का वह अब अभिन्न अंग बन चुका था। संभवत अब वह अपने आप को पहचानने के बिल्कुल निकटतम बिंदु पर खड़ा था, परंतु खुद को जानने में एक अड़चन थी..,"परिभाषा"। अपने गुण, अपनी क्षमता व अपना कौशल पहचानने के बाद अंगद उसे परिभाषित नहीं कर पा रहा था। वह खुद ही से अपना परिचय कराने में असमर्थ था।

ऐसा प्रायः चेतन मनुष्यों के साथ हुआ करता है। पर्याप्त ज्ञान व अनुभव होने पर भी हम अपने को परिभाषित करने में कच्चे रह जाते हैं। अपना परिचय तो हम सामाजिक मापकों के आधार पर दूसरों से करवा सकते हैं, परंतु जब स्वयं का आंकलन करते हैं तो स्वयं की परिभाषा में उलझ कर रह जाते हैं। यह मनुष्य का नियत गुण है। इसी स्थिति से अंगद जूझ रहा था...।