अब अंगद के जीवन में एक नई यात्रा की शुरुआत हुई। यह आरंभ था नहीं चेतना का, नए उत्साह का , नए साहस का। परंतु हर उपलब्धि की कुछ कीमत होती है, अंगद ने अपनी नई कौशलता, तेज व बल से परिचय तो किया, उन्हें स्वीकार भी किया, समझ भी लिया परंतु यह सब क्यों हुआ, वह क्या कारण है, तरह इस तरफ उसका ध्यान ही न गया।
क्षमताओं के भव्य शौर में उसकी पवित्र जिज्ञासा कहीं छिप गई थी। इसलिए मैं इससे सहमत हूं कि मनुष्य भी किसी पशु से भिन्न नहीं है। जैसे किसी पालतू पशु को समय से भर-पेट भोजन मिलता रहे तो उसे बंद चार दिवारों से बाहर क्या है, यह विचार ही नहीं आता। कोई स्वतंत्र पशु अगर भूखा हो तो भोजन की खोज में वह स्वयं निकल जाता है परंतु किसी खूंटे से बंधा कोई पशु भूखा भी होगा तो अपने मालिक की प्रतीक्षा ही करता रहेगा। ऐसा ही चार दिवारी में अब अंगद अनजाने में गिर गया था।
उसका यह बदलाव उसमें उन्माद भर रहा था। कारण जानने की इच्छा से अंगद रिक्त होता जा रहा था, जैसे उसे भूत - भविष्य- वर्तमान, सबका ज्ञान हो। आगे अंगद के जीवन में चाहे जो घटना हो, परन्तु यह तो निश्चित था कि कोई भी घटना अब उसे संकुचित नहीं कर सकती थी। यदि अंगद को व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखें, तो आभास होता जैसे उसकी इन्द्रियां अब सम्पूर्णत: उसके वश में थी।
एक शाम खूब शारीरिक भाग दौड़ करने करने के बाद, अंगद घर लौटा। भरपेट भोजन के पश्चात वह जल्द ही सोने चला गया परंतु आजकल नींद में भी अंगद जैसे सोता न था। सोते हुए भी उसका मन मस्तिष्क चेतन रहता था, दूर ..पशु पक्षियों की आवाज़, मनुष्यों की शयन ध्वनि, हवा की सुरसुराहट उसे हरदम सुनती रहती थी, उसकी निद्रा केवल शारीरिक हो गई थी। मस्तिष्क से वह निरंतर जगा रहता था। आज अंगद कुछ क्षणों के लिए इन सब आवाजों आवाजों से मुक्त हुआ, एक स्वप्न के कारण। बहुत दिनों बाद आज उससे कोई स्वप्न दिखा। सामान्यतः हमें स्वप्न में हमारी रोज़-मर्रा की घटनाओं से प्रेरित कोई घटना दिखाई देती है, परंतु अंगद को कुछ अलग , कुछ नया, अपूर्व आभासित सा चित्रण दिखाई दिया। स्वप्न में वह कहीं किसी रेतीले मरुस्थल में अकेला खड़ा था, जहाँ सूरज की गर्मी इतनी थी कि आसपास की रेट पर से उसे भाप उडती हुई दिखाई दे रही थी, जैसे कुछ क्षण पहले ही सूर्य देव ने उसे भूमि भाग पर अपना संपूर्ण बल प्रदर्शित किया हो। परंतु विचित्र यह था, कि अंगद के ऊपर छाया थी, गहरी काली छाया। अपने पैरों तले उसे ठंडी लगी, बेहद ठंडी। उसे अपने पांव सुन्न पड़ते महसूस हो रहे थे। सूरज का ताप बढ़ता ही जा रहा था। ज्यों - ज्यों सूर्य का ताप बढ़ता त्यों - त्यों ही अंगद को ज्यादा ठंड महसूस होती। अब वह ठंड के मारे कांप रहा था। प्रतीत होता, रक्त संचालन जैसे बिल्कुल रुक गया हो। वह जितना प्रयत्न करता उस छाया से निकलने का, उतना ही खुद को जकड़ा हुआ पाता।
अब धीरे-धीरे छाया वृत्त सिकुड़ने लगा, वह ताप का दानव अंगद की ओर बढ़ने लगा...