Sanyasi - 28 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सन्यासी -- भाग - 28

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सन्यासी -- भाग - 28

और फिर उसने फौरन ही चूल्हा बालकर बैंगन और टमाटर भुनने को रख दिए और जयन्त से बोली...."आप थोड़ी देर रुकिए,मैं बगल वाले खेत से ताजा धनिया और ताजी हरी मिर्च लेकर आती हूँ,तभी तो हरी चटनी खाने का मज़ा आएगा"    और फिर आँची जब तक धनिया और मिर्च लेकर आई तब तक बैंगन और टमाटर भुन चुके थे,फिर उसने सिलबट्टे पर ताजे धनिये,अदरक,लहसुन और ताजी मिर्च की चटनी पीसी,भुने हुए बैंगन और टमाटर के छिलकों को छीनकर भरता बनाया,इसके बाद एक छोटी सी मटकी में उसने ताजा छाछ लिया उसमें नमक मिर्च डाला और एक मिट्टी के दिए को आग पर रखकर गरम करके उसमें सरसों का तेल डालकर राई डाली और वो गरम दिया उसने छाछ में डालकर बघार लगा दिया फिर ज्वार का आटा माँड़कर वो चूल्हे पर गरमागरम रोटियाँ सेंकने लगी,जब एकाध रोटी सिंक गई तो उसने जयन्त के सामने थाली परोसकर कहा..."आइए जयन्त बाबू खाना परोस दिया है",    फिर जयन्त हाथ धोकर खाना खाने बैठा और थाली देखकर बोला...."वाह...क्या खाना है,हरी चटनी,बैंगन का भरता,बघारी हुई छाछ और ये देशी घी में चुपड़ी हुई ज्वार की गरमागरम रोटियाँ, आँची सच में तुम्हारा पति बहुत खुश रहेगा तुमसे",   फिर जयन्त की बात सुनकर आँची शरमा गई और जयन्त खाना खाने लगा,जयन्त जब खाना खा चुका तो वो आँची से बोला..."अब मैं चलूँगा आँची,क्योंकि बनारस जाने वाली बस पक्की सड़क पर अब आने ही वाली होगी","जी! अच्छा!",आँची अनमने मन से बोली....    और जयन्त वहाँ से चला आया,उसे घर पहुँचते पहुँचते रात के करीब आठ बज चुके थे,वो घर के दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि उसे घर में से बहुत जोर जोर से चीखने चिल्लाने की आवाजें सुनाईं दीं ,फिर उसने दरवाजे पर दस्तक दी,तब उसकी बड़ी भाभी सुरबाला ने दरवाजा खोला और दरवाजे खोलते ही जयन्त ने अपनी बड़ी भाभी से पूछा..."क्या हुआ भाभी! ये शोर कैंसा हो रहा है घर में?", "मत पूछो देवर जी! कि क्या हुआ,तुम पहले भीतर आओ",सुरबाला ने जयन्त से कहा...."अरे! बताओ तो कि क्या हुआ?",जयन्त ने भीतर आते हुए दोबारा पूछा....तब सुरबाला टूटे फूटे शब्दों में बोली...."वो सुहासिनी बिन्नो ने.....",इतना कहकर सुरबाला शान्त हो गई तो जयन्त ने फिर से पूछा..."क्या किया सुहासिनी ने?","वो आज तुम्हारे बड़े भइया को किसी रेस्तरांँ में दिखी थी",सुरबाला घबराई हुई सी बोली..."तो क्या हो गया वो रेस्तराँ ही तो गई थी और ये कोई इतना परेशान होने वाली बात तो नहीं है",जयन्त ने सहजता  से कहा..."लेकिन देवर जी ! वो वहाँ डाक्टर अरुण के साथ गई थी",सुरबाला ने ये कहकर अपनी पलकें झुका लीं..."तो क्या हो गया अगर वो वहाँ डाक्टर अरुण के साथ चली गई तो",जयन्त बोला...."लेकिन तुम्हारे बड़े भइया के पूछने पर सुहासिनी बिन्नो और डाक्टर बाबू ने बताया कि वे दोनों एकदूसरे को पसन्द करते हैं" सुरबाला हैरान होकर बोली..."तो इसमे गलत क्या है?",जयन्त ने सुरबाला से कहा..."देवर जी! तुम्हें इसमें कुछ भी गलत नहीं लग रहा,सुहासिनी बिन्नो ने पूरे समाज में हमारी नाक कटवा दी और तुम कहते हो कि इसमें गलत क्या है?",सुरबाला ने जयन्त से कहा..."अच्छा! पहले भीतर चलते हैं,मैं भी तो देखूँ कि आखिर बात क्या है?",     और ऐसा कहकर जयन्त भीतर पहुँचा तो हाँल में शिवनन्दन जी के अलावा सभी मौजूद थे और सभी सुहासिनी पर चिल्ला रहे थे,बेचारी सुहासिनी अपनी माँ नलिनी के पीछे बैठी बैठी आँसू बहा रही थी,तब जयन्त भी वहाँ पहुँच गया और उसने बड़े भइया देवराज से पूछा..."क्या हुआ भइया! आखिर आप सब सुहासिनी पर क्यों चिल्ला रहे हैं?",तब प्रयागराज गुस्से से आगबबूला होकर जयन्त से बोला..."इस लड़की ने हमें कहीं भी मुँह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा,दिनदहाड़े ये उस डाक्टर के साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी","ओह...तो ये बात है,लेकिन इस में गलत क्या है",जयन्त बोला..."पागल हो गया है क्या तू? घर की सयानी लड़की एक जवान लड़के के साथ घूम रही है और तुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लग रहा",देवराज बोला..."वो बालिग हो चुकी है और उसे अपना मनचाहा वर चुनने का पूरा पूरा अधिकार है"जयन्त ने देवराज से कहा..."अन्धेर ना कर जयन्त! हमारे खानदान में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने अपनी पसन्द का वर या कन्या चुनी हो,तू अनोखी रीत मत चला,यहाँ शादी ब्याह का फैसला बुजुर्ग करते हैं और अब भी वही करेगें ",प्रयागराज बोला...तब जयन्त प्रयागराज से बोला...."हाँ! तुमने बिलकुल सही कहा प्रयाग भइया! तुमने बुजुर्गों की पसन्द से शादी की थी तभी तो तुम रात में उस मुन्नीबाई के कोठे पर पड़े रहते हो,अगर तुम्हारी पसन्द की शादी होती तो तुम भाभी को छोड़कर उस मुन्नीबाई के पास थोड़े ही जाते,ये नतीजा है बुजुर्गों की पसन्द से शादी करने का","तेरे कहने का मतलब है कि हम सुहासिनी का ब्याह किसी गैरजाति वाले से करवा दें,अपना धरम भ्रष्ट कर दें,तू इतनी नीचता भरी बातें कर सकता है ये मैंने नहीं सोचा था"देवराज गुस्से से बोला..."मतलब! शादी अपनी जाति वाले लड़के से होनी चाहिए,भले ही फिर चाहे वो शराबी और अय्याश क्यों ना हो,डाक्टर अरुण में क्या कमी है,खूबसूरत हैं,सलीकेदार हैं,पढ़े लिखे हैं,अच्छे खानदान से हैं और क्या चाहिए आप लोगों को",जयन्त ने पूछा..."लेकिन वे ब्राह्मण हैं और हम क्षत्रिय हैं,ये मेल कभी नहीं हो सकता",प्रयागराज बोला...तब जयन्त प्रयागराज से बोला...."कैंसी बातें कर रहो प्रयाग भइया! ये हमारे घर की लड़की है कोई दुश्मन नहीं है हमारी,तुम्हें क्या लगता है कि इसकी शादी तुम कहीं और करवाऐगे तो ये खुश रहेगी,कभी खुश नहीं रह पाऐगी ये किसी और से शादी करके,जैसे कि तुम और गोपाली भाभी खुश नहीं हो अपनी शादीशुदा जिन्दगी में,उस बेचारी की खुशियों से समझौता मत करो, जीने दो उसे अपनी जिन्दगी,कुछ हासिल नहीं होगा उससे उसका प्यार छीनकर","लेकिन बाबूजी को भी ये सम्बन्ध कभी स्वीकार नहीं होगा,जब उन्हें सुहासिनी की करतूतों के बारें में पता चलेगा तो सोच कि उनके दिल पर क्या गुजरेगी",देवराज जयन्त से बोला...तब जयन्त सबसे बोला...."मुझे मालूम है कि वे भी तुम लोगों की तरह ही सोचेगें,लेकिन सुहासिनी के बारें में कोई भी फैसला लेने से पहले एक बार दोनों भाभियों के चेहरों की तरफ जरूर देख लेना और दोनों से पूछना कि क्या वे इस घर में शादी करके खुश हैं,उनके पति उन्हें कितना प्यार करते हैं,चलो...ये भी छोड़ो तुम जरा माँ से पूछो कि वे बाबू जी से शादी करके खुश हैं या नहीं,अगर माँ ने अपनी जिन्दगी में इतना झेलने के बाद भी सुहासिनी का साथ नहीं दिया तो फिर समझ लेना कि मैं ही तुम सब में गलत हूँ,लेकिन तुम लोगों ने सुहासिनी की मरजी के खिलाफ अगर उसकी जिन्दगी का कोई भी फैसला लिया तो फिर मैं तुम लोगों का साथ कभी नहीं दूँगा और फिर इसके बाद मुझे अपनी बहन की खुशी के लिए कुछ भी करना पड़े तो मैं करूँगा,लेकिन अपनी बहन को अपनी आँखों के सामने दुख के दलदल में धकेलने नहीं दूँगा",    और इतना कहकर वो अपने कमरे की ओर चला गया....

क्रमशः...

सरोज वर्मा...