भाग 41
चाची कट्टर सनातनी थीं। उन्हें दूसरे धर्म के लोगों से खासी चिढ़ थी। वैसे तो वो उर्मिला अशोक की बहुत पसंद करती थीं। अपने सगे बेटे बहू से कम नहीं समझती थीं। उनके मान सम्मान देने से सदा खुश रहती थी। पर उर्मिला और अशोक का उनसे दोस्ती करना, उनके घर आना जाना, अपने बर्तनों में खिलाना पिलाना बिलकुल पसंद नहीं था। चाची का इच्छा का ही मान रख कर उर्मिला ने अपने जैसे ही बरतन उन लोगों के लिए भी अलग निकाल रक्खा था, जिससे किसी को महसूस नही हो की उन्हें अलग बरतनों में दिया जा रहा है।
फिर कौन सा ये लोग रोज रोज आते हैं। सलमा तो इतने वर्षों बाद आई है। हां नईमा, नाज़ और बब्बन का आना जाना लगा रहता था। पर आते जाते हुए चाची की वक्र दृष्टि देख कर वो भी निगाहें झुका कर चले जाते। फिर कई बार बुलाने के बाद ही आते थे।
चाची के इस तरह रुखाई से बोलने से उर्मिला को चुभ गया। पर खुद की भावनाओं को भरसक संयत रखते हुए वो उन्हें मानने की गर्ज से बोली,
"अब चाची बचपन में तो जाति पाति का ज्ञान होता नही है। वो लोग पड़ोसी थे। साथ में खेलते कूदते बड़े हुए इसलिए वो भी हमें अपने जैसे ही लगते हैं। कभी कुछ फरक महसूस ही नही हुआ। अब भी वैसा ही लगता है। अब खून तो सब के अंदर एक ही है। सबसे बड़ा धर्म तो इंसानियत ही होता है। उसकी इन लोगों के अंदर कोई कमी नही।"
चाची बिना उर्मिला की ओर देखे अपने पोपले मुंह को फुला कर बोली,
" हां…! वही तो बच्चों को थोड़ी ना पता होता है कि वे किसके साथ खेलें किसके साथ नही खेलें। ये ध्यान ध्यान तो मां बाप को रखना होता है कि उनका बेटा बेटी किसकी संगत में खेल घूम रहा है।"
उर्मिला तिलमिला गई चाची की बातों से। वो सीधा सीधा उसके मां बाप को गैर जिम्मेदार ठहरा रही थीं। पर संस्कार की वजह से जुबान पर ताला लगा हुआ था। बात टालने की गर्ज से बोली,
"अब जाने दो चाची..! पुरानी बातों को ले कर क्यों बैठना। आप बस घर में किसी से कह कर जानवरों की देख भाल करवा देना और रात को सोने भेज देना किसी को। पूरे घर की चाभी आपके पास ही रहेगी।"
चाची अब बिदक गई। गुस्से से बोली,
"अरी…बैल बुद्धि..! घर की देख भाल से मुझे कोई एतराज नहीं है। पर तू जा किसके साथ रही है, जरा ये भी तो सोच। बड़ा इंसानियत का ढिंढोरा पीट रही है। आधा देश बांटने को तुले हुए है ये मुल्ले। अभी कोई खबर वबर सुनाई नही देता क्या तुम लोगों को..? बाहर से आ कर हम पर राज किया और अब हिस्सा चाहिए इन्हें।"
उर्मिला बोली,
"चाची आप भी ना..! ना जाने कहां कहां से उल्टी सीधी खबर सुन लेती हो। ऐसा कुछ नही होने वाला। सब इतने प्यार से मिल जुल कर रहते हैं बिलकुल भाई के जैसे। कोई बंटवारा नहीं होने वाला। और गांधी बाबा क्या देश बांटने देगें..! आप बस यहां संभाल लो। हमको तीरथ करने जाने दो।"
फिर नरम स्वर में उन्हे मनाती हुई बोली,
" अरे… चाची..! इतना मत सोचो आप। आप हमारी मदद करोगी ना तो दर्शन का एक हिस्सा पुण्य आपको भी मिलेगा।"
उर्मिला की बातें सुन कर चाची थोड़ा नरम पड़ी। वो बोली,
"तुम लोग कोई गैर थोड़े ही हो। अशोक की मां उसे मेरे जिम्मे सौंप कर ही इस दुनिया से चैन से गई थीं। हमारी दयादिन नही बड़ी बहन जैसी थीं। माहौल को देख कर ही तुम सब की चिंता होती है। इनका ज्यादा साथ अच्छा नही है। हम सब देख भाल कर तो लेंगे। पर तुम सब कब जाओगे और कब आओगे..?"
उर्मिला बोली,
"चौथे दिन जाना है चाची। अब तीन दिन तो जाने में ही लग जायेगा। तीन दिन वापस आने में भी लगेगा ही। अब देखो दर्शन में कितना वक्त लगता है। मान के चलो… पंद्रह सत्रह दिन तो लग ही जायेगा।"
चाची समझाने के गर्ज से बोली,
"देख अशोक बहू..! तू अपनी है इसलिए समझा रही हूं। रहने दे मत जा। और कही चली जा दर्शन कर आ। बाबा काशी विश्वनाथ चली जा, बाबा बैजनाथ धाम चली जा, कोई जरूरी है कि वहीं जा।"
नही चाची इन सब जगह तो आदमी कभी भी जा सकता है। पर कटास राज के दर्शन दुर्लभ है। इसलिए हम तो वहीं जायेंगे।"
चाची निराश हो गईं। उनका कुछ भी समझाना बेकार था। अब जब फैसला कर लिया है तो मेरे रोकने से थोड़े ना रुकेंगे। वो बोली,
"ठीक है जाओ तुम लोग। हम बड़का को बता देंगे। वो सब संभाल लेगा।"
उर्मिला ने चाची के पैर छुए और बोली,
"आपका बहुत बहुत उपकार चाची। अब मैं चैन से जा सकूंगी। जाऊं अंदर अपनी गोतनियों से मिल लूं थोड़ा फिर जा कर तैयारी करूं।"
चाची ने सिर पर हाथ रख कर आशीष दिया बोली,
"सदा सुहागन रह। जा अंदर चली जा। सब बत कही में जुटी होंगी। काम धंधा तो होता नहीं इन फूहरों से।"
उर्मिला घर के अंदर चली गई।
उसे जाते देख चाची चिंता में पड़ गईं। जाने क्यों उनका दिल गवाही नहीं दे रहा था कि वो उनके जाने में सहयोग करें। दिल में अजीब सी बेचैनी हो रही थी। जैसे कुछ हो ना जाए इन्हें इतनी दूर जाने पर। पर रोकने का कोई उपाय भी नही दिख रहा था। उर्मिला के अंदर जाते ही चाची अपना पूरा जोर दिमाग पर डाल कर तेजी से सोचने लगी कि क्या जुगत लगाई जाए कि इनका जाना रद्द हो जाए।
कुछ देर सोचा पर कुछ समझ नहीं आया। फिर सोचा एक आखिरी कोशिश शाम को जब अशोक आएगा तब उसे समझा कर देखती हूं।
कुछ देर बाद उर्मिला सब से मिल जुल कर बाहर निकली। जाने की उमंग से हुलसती उसकी आवाज कुछ अलग ही सुनाई दे रही थी।
जैसे ही अपने घर की ओर मुड़ी अचानक से चाची के दिमाग में एक उपाय सूझ गया। वो मन ही मन खुश हो हैं। चलो बहुत होगा तो यही ना कि कुछ दिन नाराज रहेंगे। उससे ज्यादा कुछ नहीं होगा। बड़े बुजुर्गो ने झूठ थोड़े ना कहा है। जब घी सीधी उंगली से ना निकले तो उंगली टेढ़ी कर लेनी चाहिए।