भाग 29
पुरवा इस किताब को पढ़ चुकी थी। इस लिए ये बस यूं ही रक्खी हुई थी। उसे कोई एतराज नहीं था इसे देने में। वो बोली,
"कोई बात नही.. आप आराम से पढ़िए। हम पढ़ चुके हैं इसे।"
सलमा जो इन दोनो की सारी बातें सुन रही थी बोली,
"अमन तुम आराम से पढ़ो। कोई जल्दी नही है इसे वापस करने की। बल्कि कुछ और भी तुम्हारे मतलब की किताबे हो तो ले लो।"
अमन घूरते हुए अम्मी को देखा और चुप रहने का इशारा किया कि इतना बे तकल्लुफ नही हो वो।
"क्या अम्मी आप भी…! फिर भला इतनी जल्दी मैं पढ़ कैसे पाऊंगा…?"
सलमा मुस्कुरा कर खुशी से बोली,
"बेटा..! बात ये है कि वापस करने की कोई जल्दी नही है क्योंकि उर्मिला, अशोक जी और पुरवा भी हमारे साथ चल रहे हैं। आराम से जितनी किताबें मन करे ले लो और आराम से पढ़ो। जो नही पढ़ पाना, उसे साथ लिए चलना। वापसी में पुरवा को दे देना।"
पुरवा को इस बारे में कुछ भी पता नही था। इस कारण वो हैरान थी कि ये सलमा मौसी क्या बोल रही हैं..? भला अम्मा और बाऊ जी घर छोड़ कर कैसे जा सकते है..? स्वभाव से ही मस्त रहने वाली पुरवा ने सिर झटक कर इस ख्याल से बाहर निकल आई। उसे क्या करना है..? जाए या ना ना जाए उनका अपना फैसला है। जायेंगे तो भी ठीक है वो भी घूम आयेगी उनके साथ। नही जायेंगे तो भी ठीक है यहां पर नाज़ से मुलाकात तो होगी। क्योंकि अभी नईमा मौसी बोल रही थीं कि दस पंद्रह दिन में वो नाज़ को बुलाएंगी। मेरे लिए तो दोनो ही हालत में अच्छा ही है। सोचना पुरवा की फितरत में नही था। वो तो बस हर हाल में खुश ही रहना जानती थी।
थोड़ी ही देर में नईमा ने चलने के इजाजत मांग ली। क्योंकि अभी भी उसके घर उसकी ननदें रुकी हुई थी। इस कारण वो देर तक नही रुक सकती थी। घर पर खाने पीने की सारी व्यवस्था उसे ही देखनी थी। नईमा ने भी उर्मिला को सलमा आपा के साथ चले जाने का मशविरा दिया। फिर वो चली गई।
उसके जाने के बाद बाटी चोखा की व्यवस्था बाहर ही उर्मिला ने की। अशोक गोइठा सुलगा कर बैगन और आलू भूंजने लगा। उर्मिला आटा सान कर सत्तू भर कर बाटियां बनाने लगी। अहरे पर दूध रख कर धीमी आंच पर रसियाव पकने के लिए रख दिया।
लगभग दो घंटे में सारी चीजें बन कर तैयार हो गई। अब बस परोसना ही था खाना। उर्मिला ने इस बार कोई औपचारिकता निभाए बिना ही खाना वहीं बाहर ही जहां बाटियां सेंकी जा रही थीं वहीं पर चटाई बिछा कर सब को एक साथ ही बिठा दिया। बारी बारी से अलग अलग खाने पर देर होती। ज्यादा रात करके जाना ठीक नही था। सलमा ने ढेर सारे गहने पहने हुए थे। इधर नकाब पोश लुटेरों का आतंक कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। छिप कर पेड़ों के पीछे पीछे चलते थे। अचानक से सामने आ आते और चाकू, बंदूक आदि कि नोक पर नकदी गहने सब कुछ लूट लेते थे। ये होते तो थे लुटेरे पर बदनाम आजादी के मतवालों को करते थे। जाते वक्त उनका ही नारा बोल कर जाते थे। जिससे अपने गलत हरकत का इल्जाम वीर स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों पर लगा सकें। और इसी आरोप पर अंग्रेज उनकी धर पकड़ करते और बे कसूर आजादी के मतवाले सजा पाते थे।
सलमा बिना उर्मिला के साथ खाने को राजी नहीं हुई इस कारण उर्मिला को मजबूरन उसका साथ देने के लिए बैठना पड़ा।
पुरवा गरम गरम खस्ता बाटी आंच में सेंक सेंक कर सभी को दे रही थी। सामने रक्खे लालटेन की रौशनी सीधा पुरवा के गालों पर पड़ रही थी। मार्च की मीठी गरमाहट में चूल्हे की आंच से पुरवा के गोरे गोरे गाल भी बिलकुल चूल्हे की आग की भांति ही दहक रहे थे। माथे पर चुहचुहाई हल्की पसीने की बूंदे मोती जैसी चमक रही थीं। पानी मांगने को जैसे ही अमन की निगाह पुरवा पर पड़ी वो मंत्रमुग्ध सा देखता ही रह गया। नज़रे हटना भूल गई। क्या कोई बेपरवाह.. अल्हड लड़की बिना किसी साज श्रृंगार के इतनी खूबसूरत लग सकती है…! वो भूल गया कि उसने पानी मांगने के लिए पुरवा की ओर देखा था। जैसे प्यास गायब ही हो गई। कुछ पल के लिए अपना सुध बुध खो बैठा।
तभी सलमा की नजर अमन पर गई। उसे हाथ का निवाला हाथ में और नज़रे पुरवा पर टिकी हुई थी। सलमा उसे इस तरह बुत बने देख कर बोली,
"अमन…! तुम खा क्यों नही रहे हो। कुछ चाहिए क्या .? जल्दी से खा लो वरना देर हो जायेगी। शमशाद ने देर रात लौटने के लिए मना किया है।"
अपनी अम्मी की आवाज सुन कर अमन अपने ख्यालों से बाहर निकला। झेपतें हुए बोला,
"वो अम्मी..! मुझे पानी चाहिए था।"
उर्मिला तुरंत ही अमन की आवाज सुन कर बोली,
"पुरवा बिटिया। .! अमन को पानी तो दे।"
पुरवा बिना कुछ बोले उठी और पास ही रक्खी पानी भरी बाल्टी से एक लोटा पानी भर कर उठी और अमन की खाली गिलास में डाल दिया।
गिलास भरते ही अमन ने उसे उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया। और पानी दे कर वापस लौटती पुरवा से बोला,
"और पानी चाहिए….।"
पुरवा ने पलट कर अचरज से अमन को देखा और फिर से उसकी गिलास भरने लगी। अबकी बार वो वापस नहीं लौटी और रुक कर अमन के पानी पी लेने इंतजार करने लगी। अमन ने इस बार बस कह दिया क्योंकि अब उसका पेट पूरा भर चुका था। अब तिल बराबर भी जगह पेट में नही खाली थी। अब और पानी की गुंजाइश बिलकुल भी नहीं थी। अमन हाथ धोने को उठ खड़ा हुआ।
अभी सब खा पी कर फारिग हुए और फिर सलमा और साजिद अमन के वापस जाने को बाहर निकले। अमन तो बड़े आराम से घोड़े से निकल जाता पर सलमा ने उसे रोक लिया था कि तू भी आहिस्ता आहिस्ता हमारे साथ ही चल।
अभी वो दो चार कदम ही गए थे कि शमशाद के बग्घी के घोड़ों के पैरों की टाप सुनाई दी। वो समझ गए कि देर होने की वजह से उसने उन्हे लाने भेजा है। संयोग ढूंढना नही होता। खुदा ना-खासता कही कुछ ऊंच नीच ही गई तो वो क्या मुंह दिखाएगा..? सब यही कहेंगे कि जब हिफाजत से नही रखना तो इतनी दूर से बुला क्यों लिया…? इस कारण कोई भी खतरा मोल ना लेते हुए शमशाद ने अपना फर्ज पूरा किया और उन्हें लाने के लिए अपनी बग्घी भेज दी थी।
सलमा दिन में तो घूमते घामते चली आई थी। पर अब रात में भले ही चांदनी छिटकी हुई थी पर उसे जाना भारी लग रहा था। दिन भर बैठे बैठ थकान सी हो गई थी और अब खाने के बाद तो चलना बहुत बड़ी मुसीबत लग रही थी। पर शमशाद के इस तरह बग्घी भेज देने से सलमा और साजिद दोनो ही खुश हो गए। अमन घोड़े को एड़ लगा कर आगे चला गया। सलमा और साजिद ने एक बार फिर से उर्मिला और अशोक को चलने की तैयारी किए रहने को बोला और वापस चल दिए।