भाग 9
नाज़ को थोड़ा सा बुरा जरूर लग रहा था। माना मुझे थोड़ी सी देर हो गई। क्या उन्हें पता नही है कि लड़कियों को थोड़ी देर हो ही जाती है। वो भी जब किसी खास से मिलना हो तो देरी होना वाजिब है।
क्या आरिफ आये तो थोड़ी देर उसका इंतजार नही कर सकते थे…? मिलने का सारा उत्साह नाज़ का खत्म हो गया। आरिफ से नाराजगी हो गई उसकी।
नाज़ का उतरा हुआ चेहरा देख कर पुरवा उसका दिल बहलाने को बोली,
"आरिफ भाई नही आए तो क्या …? नही आये तो नही आये। कोई बात नही। हम दोनो तो आए है। वैसे भी इसके पहले भी तो हम दोनो ही आते थे। चल हम उस जगह बैठ कर बातें करते हैं।"
पुरवा ने एक ऊंची जगह दिखाते हुए कहा जहां पर सूखी हुई घास थी।
वही बैठ कर दोनों पोखरे के शांत पानी को देखने लगी। जब कोई मछली तैरती हुई आती तो थोड़ी सी हलचल होती फिर शांत हो जाती। बीच बीच में नाज़ एक एक मिट्ठी का ढेला उठा उठा कर पानी में फेंकती जाती थी।
अभी कुछ ही देर हुई थी कि नाज़ और पुरवा को किसी के आने की आहट महसूस हुई। पलट कर देखा तो आरिफ था।
पुरवा जहां ” आप आ गए आरिफ भाई…! " कह कर उठ कर खड़ी हो गई।
वही नाज़ के पल भर पहले उतरे हुए चेहरे पर खुशी की झलक नजर आने लगी। वो भी उठ कर खड़ी हो गई और नजरें झुकाए हुए अपनी गिरी हुई ओढ़नी को सिर पर ठीक से रखने लगी।
आरिफ अब बिल्कुल हमारे सामने खड़े थे। वो मुस्कुराते हुए बोले,
"आप लोग काफी देर से आई हैं क्या…? माफी चाहता हूं अगर आपको मेरा इंतजार करना पड़ा। वो मुझे सही समय पता नही था ना। इसलिए….."
पुरवा बोली,
" कोई बात नही आरिफ भाई…। हम दोनो का तो ये मनपसंद जगह है। हम हमेशा ही आते हैं। आइए इस तरफ बैठते हैं।"
फिर कुछ झाड़ियों की ओट ले कर तीनो बैठ गए। नाज़ और पुरवा पास पास बैठी थीं। आरिफ उन दोनो के सामने थोड़ा सा अलग हो कर। तीनो चुप्पी साधे थे। बीच बीच में एक दूसरे को देख लेते जब अगला दूसरी ओर देख रहा होता। कौन बात शुरू करे यही उलझन थी।
तभी पुरवा ने हूं…. हूं…. हूं….. कर के अपना गला साफ किया बात आगे बढ़ाने की कोशिश करते हुए बोली,
"आरिफ भाई…! आप तो नाजों से कुछ पूछना चाहते थे। अब जब मैं चाची से बहाने बना कर उसे ले कर आई हूं तो आप चुप्पी साध कर बैठे हुए हैं। जल्दी करिए वरना कोई देख लेगा आपको हमारे साथ तो फिर दिक्कत हो जायेगी।"
आरिफ ने नाज़ को देखा और नरम स्वर में पूछा,
"नाज़…! हम और आप लंबे समय से जानते है एक दूसरे को। अब घर वाले हमें एक नए रिश्ते में बांध रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम किसी दबाव में इस रिश्ते को कुबूल करो। अगर तुम को कोई भी मसला हो तो बताओ। मैं सब कुछ खुद पर ले कर तुम्हे आजाद कर दूंगा।"
इतना कह कर आरिफ नाज़ की ओर देखने लगा। नाज़ के चहरे के हाव भाव को देख कर उसके जवाब का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं था। पर वो तो नाज़ की जुबान से ही सुनना चाहता था।
नाज़ को शरमाते और अब भी चुप देख कर पुरवा उसे कोहनी से कोचते हुए बोली,
"नाजो…! अब बस भी कर ये शरमाना, मुस्कुराना…! जो कुछ आरिफ भाई पूछा है जवाब दे और घर चल। मैं तुझे ले कर आई हूं। देर होने पर शामत तो मेरी आयेगी।"
नाज पुरवा की बात सुनकर उठ कर खड़ी हो गई। उसके खड़े होते ही पुरवा और आरिफ भी खड़े हो गए। नाज तेजी से वापस जाने लगी और आरिफ की ओर देख कर बोली,
"आपसे निकाह मुझ जैसी पगलेट ही कर सकती है। कोई और तो करने से रही।"
फिर हंसती हुई पुरवा का हाथ पकड़े अपने गांव के रास्ते पर दौड़ चली।
आरिफ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा नाज़ का जवाब सुन के। उसके मन का सारा शक शुबहा कहीं फुर्र हो गया।
वो खड़ा होकर जाती हुई नाज़ को देखता रहा। नाज़ भी कुछ दूर के बाद पलट कर देख लेती। जब दोनों दिखना बंद हो गईं तो आरिफ भी घर वापस आ गया।
आरिफ एक बेहतरीन घुड़सवार था। वो अक्सर घोड़े से ही घूमने निकलता। अब तो उसे इस नाज़ और अपने गांव के बीच में पड़ने वाले इस पोखरे से एक अजीब सा लगाव हो गया था।
आरिफ कभी पुरवा से पहले वाली किताब मांगने आता। कभी नई देने आता। उर्मिला को भी पता था कि पुरवा को नई नई किताबें पढ़ना, ज्ञान बटोरना अच्छा लगता है। इस लिए वो कभी आरिफ के आने पर ऐतराज नहीं करती।
आरिफ जब आता तो पुरवा को समय बता देता कि तुम नाज़ को ले कर आ जाना। पुरवा पहले तो डरती थी। फिर पढ़ने के लोभ ने उसे निडर बना दिया। क्या हुआ कोई जान जायेगा या देख लेगा तो बोल देगी कि अब क्या कोई इत्फाकान वहां नही आ सकता….! घूमते घामते आरिफ भी आ गया। पुरवा हर तीसरे चौथे दिन कभी नईमा से कभी बब्बन से इजाजत ले ही लेती बाहर जाने का। नईमा मना करती तो बब्बन को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से राजी कर लेती।
अब तो ये सिलसिला ही चल पड़ा। जितना उतावला आरिफ रहता। उससे कम उत्साह नाज़ को नही रहता।
दिन पंख लगा कर उड़े जा रहे थे। दोनों ही घरों में निकाह की तैयारियां जोरों पर थी।
अब शमशाद के खानदान की शादी थी तो रौनक भी खूब होनी थी। पूरी हवेली की रंगाई पुताई तो पहले ही हो गई थी। अब साज सज्जा का काम हो रहा था। मेहमानो के लिए कमरे तैयार करवाए जा रहे थे। क्योंकि कुछ मेहमानो के आने की शुरुआत जल्दी ही हो जानी थी।
कभी बजाजिया आता कपड़े ले कर तो कभी दर्जी आता नाप लेने।
कभी सोनार आता नए गहने ले कर तो कभी पुराने गहने झलवा कर ले आता। नई बहू के लिए तरह तरह के गहने बनवाए जा रहे थे।
खानसामा मेहमानो के लिए बनने वाले पकवानों की लिस्ट बना कर उसकी सामग्री की व्यवस्था करने को बोल रहा था।
इन्ही सब तैयारियों के बीच सलमा भी अपने बेटे अमन को साथ से चकवाल से आ गई।
क्या नाज़ और आरिफ के बीच होने वाली मुलाकातों का पता घर वालों को चल पाया…? या ये राज पुरवा नाज़ और आरिफ के बीच ही रहा…? जानने के लिए पढ़े अगला भाग।