Before the trip - 3 in Hindi Short Stories by Kishanlal Sharma books and stories PDF | सफर से पहले ही - 3

Featured Books
  • ભીતરમન - 58

    અમારો આખો પરિવાર પોતપોતાના રૂમમાં ઊંઘવા માટે જતો રહ્યો હતો....

  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

Categories
Share

सफर से पहले ही - 3

उस दिन या तो राम लाल की भूखे ही सोना पड़ता या घर मे बासी बचा कुछ होता तो उससे काम चलाना पड़ता।
सेवानीवर्ती से पहले राम लाल की एक आवाज पर दौड़ी चली आने वाली बहु नीलम अब सुना अनसुना करने लगी।वह कोई बात कहते तो टालमटोल करती या उनसे झगड़ने भी लगी थी।उनसे उल्टा सीधा बोलने भी लगी।राम लाल को बहु का जुबान चलाना या उल्टा सीधा बोलना बुरा लगता था। उनके मन मे कई बार आता कि घर छोड़कर कहीं चले जाएं।लेकिन लोक लाज के कारण ऐसा कदम उठाने से डरते थे।और फिर अगर चले भी जाये तो जाएंगे कहाँ?बेटे के सिवाय उनका इस दुनिया मे था भी कौन?
नीलम को स्वसुर बोझ लगता था।वह चाहती थी कि स्वसुर मर जाये या कही चला जाये?इसलिए वह श्वसुर को जली कटी सुनाती।तरह तरह से उन्हें प्रताड़ित करती।लेकिन राम लाल सब कुछ सहकर भी चुपचाप पड़े रहे।जब नीलम ने देखा कि इस तरह श्वसुर को घर से निकलना मुश्किल है।तब वह बेशर्मी पर उतर आई।उसने श्वसुर का सामान घर से बाहर निकाल कर रख दिया। और हाथ पकड़कर घर से बाहर निकालते हुए बोली,"अब हमारा पीछा छोड़ो।"
अपनी आप बीती सुनाकर राम लाल की आंखे नम हो गयी।वह चुपचाप अंधेरे में शून्य में निहारने लगे।
राम लाल और सरला के बीच मोन पसर गया।वातावरण एकदम शांत और खामोश था।इस खामोशी को प्लेटफार्म नम्बर एक पर आई ट्रेन ने तोड़ा था।ट्रेन आते ही चाय व अन्य सामग्री बेचने वालों की आवाजें गूंजने लगी थी।और थोड़ी देर बाद ट्रेन चली गयी।ट्रेन के जाने के बाद फिर से वातावरण में सन्नाटा पसर गया था।लेकिन राम लाल के मन मे उथल पुथल मची थी।क्या आदमी इसी दिन के लिए सन्तान की चाहत रखता है।क्या इसीलिए उसकी पत्नी ने इतने व्रत उपवास किये और मन्नते मांगी थी।काफी देर तक उसके मन मे भावनाओ का ज्वार उमड़ता रहा।उसे शांत करते हुए राम लाल,सरला से बोला,तुम्हे कहा जाना है?"
"तुम्हारी तरह मुझे भी अपनी मंजिल मालूम नही।समझ मे नही आ रहा।जाऊ तो कहा जाऊ?"सरला धीरे से बोली थी।
"तो तुम्हारी कहानी भी मेरे जैसी ही है?"सरला की बात सुनकर राम लाल ने प्रश्न किया था।
"कुछ कुछ "सरला ने नजरे दूसरी तरफ फेरते हुए कहा।
"तुमने मेरी कहानी टी सु न ली।क्या अपनी आप बीती मुझे नही बताओगी?""
"क्या करोगे सुनकर"
"तुमने ही कुछ देर पहले कहा था।दर्द बांटने से कम हो जाता है।"
"कहा था।"
"तो अपनी कहानी मुझे सुना दो।"
"जरूर,"और सरला की आंखों के सामने उसके अतीत के पन्ने फड़फड़ाकर खुलने लगे।
सरला की शादी दीना नाथ से हुई थी।उसके पति की गांव में पैतृक दुकान और मकान था।दुकान अच्छी चलती थी।जिससे उनकी गुजर बसर आराम से हो जाती थी।शादी के पांच साल बाद उनके बेटा हुआ।बेटे को कुल का दीपक माना जाता है।इसलिए बेटे का नाम दीपक रखा।पांच साल का होने पर दीपक को गांव के स्कूल में भर्ती करा दिया गया।और धीरे धीरे दीपक बड़ा होने लगा और उसने दसवीं पास कर ली।दीना नाथ और सरला अपने बेटे को झुब पढ़ाना चाहते थे।गांव में स्कूल दसवीं तक ही था।इसलये दीपक को शहर भेज दिया गया।और धीरे धीरे उसने एम ए पास कर ली।पढ़ाई पूरी होते ही उसकी नौकरी भी लग गयी