’’करवट बदलता भारत’’ 6
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण—
श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज,
जिनके आशीर्वाद से ही
कमजोर करों को ताकत मिली,
उन्हीं के श्री चरणों में
शत्-शत् नमन के साथ-सादर
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
काव्य यात्रा--
कविता कहानी या उपन्यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्हीं साधना स्वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्तुत है काव्य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्मुक्त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्तुत है।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त‘’
विश्वास की धरती--
बख्त का दरिया कभी, मुड़कर न लौटा आज तक।
आदमी ऋणियां हुआ है चुकता हुआ न आज तक।।
रोज आती और जाती, जिंदगी की ये लहर-
नहिं रूका दरिया का पानी, बहता रहा यौं आज तक।।
पीटता क्यों शिर रहा, पत्थर दिलों के सामने-
ये सभी मुर्दे के मुर्दे, चल रहे हैं आज तक।।
शिकवा-शिकायत का जमाना, हो गया अब दूर है।
हो खड़ा अपने पगों पर, मत बता तूं राज तक।।
इस दुआ और आह का, लगता मिटा है दौर अब-
स्वांस टकसाली बनाले, छू सकेगा ताज तक।।
मनमस्त खुशियों का जमाना लौटकर फिर आएगा-
विश्वास की धरती सजाले, विश्वास के उस साज तक।।
वो कभी जिंदा नहीं--
विश्वास कर, इंसान वह सत्य जीता है सदां।
बात मत कह बुजदिलों की, हार होती है सदां।।
झूंठ के नहिं पांव होते सब यही कहते रहे-
गौर कर के देखलो, सत्य पुजता है सदां।।
जो हुआ कमजोर खुद में, खुदी से हारा वही-
टूटते दिल की कहो मत हारता है वो सदां।।
कुछ नहीं उसको यहां मिल पाएगा यह जान लो-
इंसान की इंसानियत हो गई पत्थर जहां।।
भागने वालों में देखो पैर तो होते नहीं-
पैरो वाला भागता है, देखलो तुम जहां-तहां।।
बे सबब दिल दर्द जिसके हो भरे इस दौर में-
वो कभी जिंदा नहीं मुरदा कहा है जहां-तहां।।
इस कदर जो रो रहे, वे मनुज कब कुछ और हैं।
नाव का नाविक वही तूफान से लड़ता सदां।।
मौंजों की धार--
दिल खुशगवार है, तो मौसम बहार है।
गर प्यार है दिलों में तो नफरत की हार है।।
जीवन के दौर में, सदां चांदनी के चार दिन।
रिश्ते कभी रिसते नहीं, निभाना ही सार है।।
मिलते रहे हैं जब जहां, दिल-दिलों के तार से-
ईश्वर वफा का दौर है, जीवन वही उपहार है।।
होता है दर्श बस वहां ऐंतबार है जहां-
वो ही खुदा का वतन और शाही दरबार है।।
जज्बा हुआ गर दिलों में, दूरियां फिर कहां हैं-
जीवन का सार है यही, मौंजों की धार है।।
गुजरैं वतन में हर कहीं, मनमस्त की ये मस्तियां-
इतना नहीं जो कर सके, उनकी ही हार है।।
सच्ची कहानी--
सच्ची कहानी को, कब तूं, कहेगा।
हाथों पै हाथ् धर, क्या बैठा रहेगा।।
आगे बढ़ा पांव, चुप्पी को तोड़ो-
मंजिल बुलाती, क्या उससे कहेगा।।
हिम्मत के तेरे, फलसफे बहुत हैं-
उनके भरोसे क्या बैठा रहेगा।।
साहस से तोड़ो संकोची हदों को-
कहना जिसे कह, फिर कब कहेगा।।
ऐसे तो तेरी ये उजड़ेगी दुनियां-
साया मिटेगा, फिर कहां पर रहेगा।।
मंजिल तुम्हारी तो, यहीं तक नहीं है-
इतिहास तेरे को, फिर कया कहेगा।।
खोजो नई राह, दुनियां सजाने-
तो मनमस्त तेरा यहां सब कुछ रहेगा।।
आदमी हो--
आदमी हो। आदमीयता को समझना चाहिए।
आज के हालात पर, कुछ सच तो कहना चाहिए।।
अहं के सौदागरों के अहंकार चकनाचूर हों-
हकदार हो, हक की हकीकत, को समझना चाहिए।।
कब यहां लौटेगा वापिस, आदमी का वह जमीर-,
चाहतों में जो रमा है, उसे जगना चाहिए।।
मुस्कराएगी जमी कब, कर पुरानी याद को।
उस सुहानी जिंदगी का स्वप्न, सजना चाहिए।।
भटकता जीवन लगा है आज ऊहा-पोह में-
देश से संकीर्णता का, भाव मिटना चाहिए।।
वर्ग भेदों के यहां पर, कौन बीजे बो गया।
उस अबूझी पहेली को, याद रखना चाहिए।।
कौन नापा है यहां पर थार की मरू भूमि को।
इस धरा पर, सागरों सा, ज्वार आना चाहिए।।
लौटकर आना पड़ेगा, उस जमीरी-जमीं पर-
छोड़कर के अहं अब मनमस्त रहना चाहिए।।
प्यार का इजहार-
आह भरते आज क्यों, दर्दे दिल किसने छुआ।
प्यार के इजहार में इस तरह का क्या हुआ।।
नीलिमा बिफरी दिखी क्यों, आज इस हेमन्त की।
उस सुहानी समा का, संसार फीका क्यों हुआ।।
अनचाहतों की राह में, चाहतें जिससे पलीं-
वीक्षियों के डंक को, भूलकर के क्यों छुआ।।
जहर होता सर्प के फन, बीक्षियों के डंक में-
अंग-अंग विष से भरा है, इस समां को क्यों छुआ ।।
तुम्हीं नहिं, देखे अनेकों, तड़फते इस दौर में।
आंधरे थे, तो बताओ, द्वार क्यों खोदा कुआ।।
बेर का विरवा लगाया, आंगनों के बीच जो-
झड़ेंगे कांटे हमेशां, पैर का कांटा हुआ।।
दे रहे हो आज प्यारे, दूसरों को दोष क्यों-
काटना तुमको पड़ेगा, आपने जो कुछ बुना।।
नाग फनियों में बताओ, फूल खिलते हैं कभी-
रहोगे मनमस्त कैसे डारते हो क्यों जुआ।।
हो गया बूढ़ा--
मैं हुआ बूढ़ा कभी भी सोच में आया नहीं।
मुश्किलों के सामने भी कभी घबड़ाया नहीं।।
खेलते, हंसते गुजारी, जिंदगी की ये समां-
खूब चौड़े गहरे-दरिया, पाट पाया तब कहीं।।
भोर ही देखा हमेशां, सुनहरी किरणें लिए-
सूर्य की अठखेलियों में शाम तो पाया नहीं।।
कर्म के पथ पर अडिग रह, कर्म करता ही रहा-
कर्म को जीवन बनाया, मार्ग पाया तब सही।।
कर दिया न्योछार सब कुछ इस वतन के वास्ते।
मानवी फसलें उगायीं, लहलहाती जो रहीं।।
लगेगी दुनियां भी बूढ़ी, मन हुआ बूढ़ा कहीं-
यदि सबल मनमस्त मन तो है बुढ़ापा कहीं नहीं।।
कोई कुछ कहता रहे, पर मन न हल्का कीजिए।
मन के हारे हार है, मन से जीते सब कहीं।।
साहसी मन पार होता, घोर भंवरों बीच भी-
बना लो मनमस्त जीवन, है बुढ़ापा कहीं नहीं।।
गुरू महिमा--
गुरू की महिमा यही क्या, जिससे दुनिया है पढ़ी-
एक दिन पूजन करो बस, पूज्यतम जो हर घड़ी।।
गुरू ब्रम्हा, गुरू: विष्णू, गुरू: शंकर सब कहैं-
फिर भी इक दिन पूज पाए, कौन सी पाटी पढ़ी।।
जिंदगी के मार्ग दर्शक, ज्ञान के आधार जो-
भावना संकीर्ण फिर क्यों, रेखा छोटी क्यों पड़ी।।
विश्व के रक्षक वे ही हैं, विश्व मूलाधार है-
विश्व का विस्तार उनमें, फिर भी छोटी कयों मढ़ी।।
युगों की दास्तानें जिनमें, युगों के वास्ते वे ही।
फिर भी पूजन एक क्षण, मनमस्त चिंता है पड़ी।।
आज फिर चिंतन करो सब, ओ मनीषी विश्व के-
पूजयतम गुरू को बनाओ, यही विनती हर घड़ी।।
गर नहीं इस ओर सोचा। पथ भ्रमित हो जाओगे-
गुरू को सम्मान दो। नहिं, भूल होगी यह बड़ी।।
गुरू बिन कोई तरा नहिं, विश्व का इतिहास लख,
गुरू से मनमस्त बनजा जिंदगी नहिं है बड़ी।।
हकीकत की ओर- बापू के तीन बंदर--
बने बापू के बंदर कयो, ,सुनौं देखों, न कह सकते।
जनाजे किस तरह निकले, हकीकत बात जो कहते।।
अच्छे हैं दिना है ऐही , सांसें-सांस नहीं लेतीं।
घुटन का दौर इतना है, कि अरमां अनकहे ढहते।।
समय का दौर कैसा है कि जन-जन तरसता ऐसे।
खड़े सब काठ से उल्लू, कोरे देखते रहते।।
इतने किए हैं वादे कि वादे-वाद बन बैठे।
फिर भी दौड़ कैसी है, कान नहिं, कान दे सुनते।।
जनाजा उठ गया लगता, यहां से सत्य आलम का-
चुन गए देश को वे ही, जिनको आज हम चुनते।।
हसरत मैट दी जिनने, उन्हें कैसे कहैं हजरत।
नहीं मनमस्त यह जीवन, रहे सब रात दिन गुनते।।