’’करवट बदलता भारत’’ 7
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण—
श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही
कमजोर करों को ताकत मिली,
उन्हीं के श्री चरणों में
शत्-शत् नमन के साथ-सादर
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
काव्य यात्रा--
कविता कहानी या उपन्यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्हीं साधना स्वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्तुत है काव्य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्मुक्त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्तुत है।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त‘’
ये महान हैं--
अब हम, क्या कहैं ,ये कितने महान हैं।
इनके सहस्त्रों आंखें, हजारों कान हैं।
झूंठ की इन पर लाखों पुस्तकें नामीं,
पोपलीला के अनूठे, अनेकों पुरान हैं।।
रोज-रोज गढ़ रहे, हवाई किलों को,
इस तरह से चल रही, इनकी दुकान हैं।।
कौन कह सकता है इनकी, खूबी भरी खूबियां,
ये तो भारी भरकम, चतुर और विद्वान हैं।।
आज भी प्रसाद सब, छीन लेते ये सभी,
कयोंकि, लम्बे हाथ, इनकी बड़ी शान है।।
क्या कहैं मनमस्त, इनकी हकीकत, पूरी,
इसलिए ही, इनसे सभी परेशान हैं।।
बहुत समझाया मगर मानें नहीं, अब तक,
हद से बेहद, हठीले और घौर इंसान हैं।।
नफरतो के बीज ---
नफरतों के बीज बोते, खाश जो मिले।
दूर-दूर मानते जो, पास वे मिले।।
हैं कहानी की कहानी, दास्तां उनकी-
फूल कोरे ही खिले, पलाश के मिले।।
जिंदगी का भोर आया पास क्या कभी-
घोरत्तम के तमतमाते, तम सदां मिले।।
जिंदगी के आसपास प्यास ही वहीं-
तृप्ती के गहरे कहीं, तालाब नहीं मिले।।
आदमीयत खो चुका है हर कहीं, आदमी ,
आपनों से ढह गए, वे आस के किले।।
छल, कपट का शोर है, आकाश और जमीं-
आश्वासन कोरे यहां, विकास के मिले।।
रोशनी को क्यों यहां, लकवा लगा ऐसा।
घोर अंधड़ घुमड़ते घन, नाश के मिले।।
चुम रहे हैं, आज भी, व्यवहार रेशमी-
गमे-अश्के पी यहां, मनमस्त भी मिले।।
बुढापा-
आना तय सुदा जिसका, बुढ़ापे से इलर्जी कयों।
खिला जो फूल उपवन में, झड़ना होय निश्चय ज्यौं।।
खिजाबों से कभी, आयु बदलती है नहीं प्यारे-
यही भटकाव जीवन का, खुद से हो छलावा ज्यौं।।
चली यह जिंदगी कहां से, किया कुछ गौर इस पर भी-
दास्तां यह तुजुर्बों की, लगो नादानगी हो ज्यौं।।
प्रभू की खैर- ख्वाही से, मिली तुमको यही डिग्री।
इसे स्वीकार अब करलो, न खोओ इस तरह ओर यौं।।
मिन्नत लोग करते हैं इसे ता-उम्र पाने की-
ये पुण्यों की अमानत है, जगे हो भाग्य कोई ज्यौं।।
अधिक कहना नहीं अब कुछ, यही मनमस्त की अर्जी।
इसे हंस खेल कर जीलो, करो वापिस भी ज्यौं की त्यौं।।
पन्द्रह अगस्त--
आओ आओ सभी, मिल के गीत गालो।
राष्ट्र ध्वज को सभी जगह फहरा लो।।
इसकी गाथा सभी की जवानी।
इसमें पाओ विकासों कहानी।
ये हैं शांति सदन, ये ही क्रान्ति भुवन-
इसको अपना के, अपना बना लो।।
तीन रंगों का इसका है बाना।
त्रयी सूत्रों में इसको बखाना।
हरित प्रीत प्यारों भरा, श्वेत शान्ति धरा-
पीत क्रान्ति का जीवन बनालो।।
इसका मंजर विकासों की गीता।
इसने क्रान्ति समर को भी जीता।
कई संगों भरा, मनमस्ती धरा,
इससे भारत भुवन को सजालो।।
मातृ-भूमि का गौरव है येई।
इस-सा दूजा जहां में न कोई।।
भारत मां का सपन, इसको करलो नमन-
मस्त–मनमस्त हो के अपनालो।।
26 जनवरी- गणतंत्र दिवस--
मनालो। आज हिलमिल कर, दिवस गणतंत्र है प्यारे।
यही संविधान का परिचम, सहस्त्रों नमन है प्यारे।
व्यवस्था देश की प्यारे, इसी के नियम से चलती।
अडिग कानून के पथ में, किसी की दाल नहीं गलती।
यही है आत्मा भारत, यही परमात्मा भारत-
इसकी धार-धाराऐं, किसी भी भांति नहीं टलती।
यही है ब्रम्ह सा व्यापक, जन-गण इसी के सहारे।।
शहीदों की अमरगाथा, अनेकों भांत से गाता।
भारत के सितारों को, अनेकों बार दोहराता।
धर्म की धारणा कैसी, कर्म सिद्धान्त कैसा हो-
विकासों के नजारों का, तिरंगा रोज फहराता।
इसके तंत्र के आगे, सारे राष्ट्र ही हारे।।
अनेकों विद्वजन के ज्ञान का, संज्ञान है इसमें।
भारत के अमर गौरव का, स्वाभिमान है इसमें।
रचना है अनूठी-सी, हिमालय-सा बड़ा-ऊंचा।
विराटी रूप है इसका, ऋचाएं धमनियां इसमें-
उतारो आरती इसकी, मस्त मनमस्त हर द्वारे।।
नव वर्ष ---
समझ नहिं पाए जो-जन मन भावनाएं।
उस नए,नभ वर्ष की शुभ कामनाएं।।
कौन पक्षी नाम है नया साल जिसका,
उम्र ढल गई, आज तक नहिं दर्श पाए।।
जाना नहिं जिन, भोर का सूरज निकलना-
काम में मशगूल, रातें उन बिताए।।
धूल की दुर्गन्ध से, नथुने नथे जिन-
फटे कपड़ों में, क्या सुख पाए।।
धूप में भी, मोद से तोड़े जो पत्थर-
दूध पीते गोद बच्चे, कुछ न खाए।।
पूंस की रातों में, गाती बांध, पानी मेलता जो-
उस कृषक की दास्तां ने कब, कहां, नव वर्ष गाए।।
चौंच भरि दाने खिलाती, नीड़ बैठी, वह परेबी-
जिंदगी भर स्वांस भरते, खांसते दिन जो बिताएं।।
बजाते चम्मच-कटोरे, जानते नहिं पाठशाला-
देश के नुनिहाल बच्चे, मनमस्त नहिं नव वर्ष पाए।।
समय साधक बनो----
धन्यवाद के पात्र, कृषक बन द्रव्य जुटाया।
स्वागत अतिथि न कीन, स्वयं नहिं पीया-खाया।
लै बैकुण्ठी चाह, किए तीरथ मन चाहे-
माने पत्थर-देव उन्हीं पर सभी लुटाया।।
शिक्षित हो, बन शिक्षक, दीनी शिक्षाएं प्यारे।
औरन रोशन किये, रहे खुद ही अंधियारे।।
बच्चों से नहीं पटत, तापते अपनी कुटिया।
कितने हो धर्मान्ध, रहे ग्वारे के, ग्वारे।।
छपपन मोज कराय, यज्ञ-धन-धान्य लुटाया।
नहीं देखा परिवार, स्वर्ग से मोह लगाया।।
कितने हो नादान, अभी भी, संभलो साजन-
ऐसा करते किस-किस ने बैकुण्ठ को पाया।।
अन्तर्मुख हो लखो ठगों के घर हो प्यारे।
त्यागी लिया जो उनने कई एक, भवन उजारे।।
सावधान रहना होगा, इनसे जीवन भर-
करलो कुछ उपचार, समय है, चक्षु उधारे।।
अन्तर चक्षु खोल, आंधरे भी चलते हैं।
बिन समझे जो चलै, हाथ वे ही मलते हैं।
समझदार को सिर्फ-इशारा ही होता है-
मंजिल बे नहिं पांय, जो पांव औरों चलते हैं।।
जीवन पथ में--
साथियों यह किस तरह का आज रोना।
सोचना है कब बुरा, बंधनों से मुक्त होना।।
मुक्ति के ही वास्ते, जीवन कहानी क्या नहीं।
हो गए बलिदान इस हित सच सच, कहो ना।।
यह छलाबी मंत्रणा है, तुम्ही तो कहते रहे थे-
किस तरह का सोच प्यारे, इस तरह से व्यथित होना।।
क्या बुरा है नदी की इस धार का बहना, बताओ-
प्रगति तो होती नहीं है-एक ठौरे पर, रूका होना।।
रेहट की घरियों सरीखा, जिंदगी का सफर जानो-
नियति का तो क्रम यही है, नित नया कुछ नया होना।।
खल रहा है आज प्यारे इस तरह मायूस होना।
हो गए आजाद अब तो-मुक्तता के गीत गाओ।।
फिर मिलेंगे, इस तरह ही, रखो तो विश्वास मन में-
जियो तो मनमस्त होकर, देशहित के बीज बोना।।
विश्व नारी दिवस
आओ तो, मिलकर विचारैं, आज महिला दिवस पर
नारियों का शौर्य गूंजे विश्व के प्रत्येक घर।।
नारियों का कद हमेशां, विश्व में ऊंचा रहा।
कदम पीछे नहीं रहे हैं, हर किसी ने यह कहा।
कौन सा है क्षेत्र, जिस पर कदम उनके नहीं बढ़े-
मानवी की धारणा में, विषमता को उन ढहा।
शौर्य की गाथा रहीं वे, नाज सबको उन्हीं पर।।
हिम शिखर चढ़तीं दिखीं हैं, सागरौं में तैरतीं।
वायुयानों को उड़ातीं आसमां को घेरतीं।
बनगयीं पायलेट चालक, नहीं डरीं संघर्ष से-
आर्मी तीनों संभालीं, बार्डर को हेरतीं।
हौंसले अनमोल उनके, खेल और व्यायाम पर।।
मां वही, बेटी वही है दोस्त भी नारी रही।
मौन होकर भी उसी ने, बात मन की सब कही।
नहीं रहा कोई क्षेत्र बांकी, जहां नहीं हो नारियां।
मानवों को दिशा देने, अनकही भी, सब कही।
सब्जियों संग-तोप बम का जानती हैं राज भर।।
सिंधुताई निर्भया बन, आज को झखझोरतीं।
निर्दयी मानव व्यवस्था, पोल सारी खोलतीं।
चेतजा मानव अभी भी, नहीं तो पछताएगा।
हमीं हैं वो आदिशक्ति, रीढ़ जग की, जोड़ती।
प्यार और तैवर निहारो, ओं निरे मनमस्त नर।।