’’करवट बदलता भारत’’ 8
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण—
श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही
कमजोर करों को ताकत मिली,
उन्हीं के श्री चरणों में
शत्-शत् नमन के साथ-सादर
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
काव्य यात्रा--
कविता कहानी या उपन्यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्हीं साधना स्वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्तुत है काव्य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्मुक्त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्तुत है।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त‘’
सत्ता मिल गई
सत्ता मिल गई, मन चाहते कुछ काम तो करलो।
ये अवसर फिर नहीं मिलना-अपनी झोलियां भरलो।।
कचहरी कोट सब अपने चिंता फिर कहां-कैसी।
वो बातें याद कर के ही पुराने कष्ट सब हरलो।।
मिटा दो दास्तानें वे जो राहौं, अड़चनें, देतीं-
बनकर सांड छुट्टा अब, मन भर फसल को चरलो।।
मारच बीस का निर्णय हरिजन एक्ट जो आया।
हो गए पौ-अठारह सब नई एक मेख अब धरलो।।
खतम गमगीनी वे साए, जिनका खौंफ था अब तक-
सियासत की कहानी को, फिर से याद तो करलो।।
कितने अश्क पीए हैं, जुल्मे–सितम के हमने-
मिटालो-जख्म वे अपने समय के साथ ही तरलो।।
ये अम्नों का सफर प्यारे, बड़े दिन बाद हैं आया-
बना दो और कुछ दुनियां, उनकी जन्नतें हरलो।।
पुराने खत बुजुर्गों के पढ़ो तो गौर से, फिर से-
वे ही मनमस्त दिन आ रहे अपने चित में धरलो।।
माचिस तीलियां भरदीं--
तुमने क्या, ये कर डाला, माचिस तीतियां भरदीं।
मुझे कुछ ऐसा लगता है, भारी गल्तियां कर दीं।।
तुम्हारे चिंतनों में तो, कमी कोई नहीं दिखती-
मगर उनकी दलाली ने, तुम्हारी आस्था हरली।।
तुम्हारी साफ नजरों पर, चश्मा लग गया उनका-
दिखाई और कुछ देता, अपनी मर्जियां कर ली।।
तुम्हारा सोच पाकीदा, उनकी गोद जब बैठा-
होलिका जल नहीं जाए, कहां कैसी ऐ हमदर्दी।।
जुनू बाले सदां देखे, आस्था को मिटाते हैं।
कहीं मंदिर जलाते हैं, कहीं मस्जिद की चहुगिर्दी।।
रही इंसानियत बस्ती, भरी हैवानियत उसमें-
खींचकर बीच दीवारें, एक कीं दो इन्हीं कर दीं।।
क़टाई जिन निजी कर्दन, किसी पीडि़त की खातिर-
सोच मनमस्त को भारी, दर्दों बस्तियां भर दीं।।
नहीं गूंगों की ऐ बस्ती--
उधर तूफान सा उठता, कहीं डूबे न ये कश्ती।
बोलना इसलिए पड़ता, नहीं गूंगों की ये बसती।।
कैफियत बता देती है, छुपे अंदर के भावों को-
आवरण साफ करता है, अन्दर की सभी नश्ती।।
अलग ऐहसास देती है, खुशी अंदर और बाहर की-
भला ही लाख कोशिश हों, छुपाएं छुप नहीं सकती।।
दुनियां, एक दुनियां है, नहीं बाजार है प्यारे।
इसकी नब्ज को समझो, नहीं यह नब्ज है ससती।।
चारौ तरफ को देखो, चलना तो तुम्हीं को है-
संभलना फेर मुश्किल है, यही वारंट है दश्ती।।
समय है संभल जाने का, करो कुछ गौर तो इस पर-
नहिं तो उजड़ जाएगी, हमारी हरी ए बसती।।
अमन जब चला जाता है, सियासत धरी रहती है-
बचालो आज भी इसको, तुम्हारी कैसी मनमस्ती।।
पुरखों को धरती ले आए।।
सच्चाई अथवा या सपना, हम तो अब तक समझ न पाए।
कल का हाल सभी ने देखा, कैसे गीत उन्होंने गाए।।
मान गए हम, तथा कथित के, उन लोगों को।
चन्द समय में, स्वर्ग लोक से, पुरखों को धरती ले आए।।
नहीं कल्पना की थी ऐसी, जैसा स्वांग उन्होंने खेला।
दहलाए हृदय थे सबके, हा-हा दईया रहे रचाये।।
कर गए भूल, हवस में आकर, कर डाला, जो नहिं करना था।
उतरी मदहाला कुछ क्षण में, फिर कैसे कितने पछताए।।
सोए नहीं, रात भर जागे, अनुष्ठान करने पुरखों का।
करदीना साकार, सपन को, जैसा का तैसा वहां पाए।।
सुबह हुआ लाखों लोगों ने, परिकम्मा उसकी कर डाली-
फौजों संग, सबने सलाम दी, शंका के घेरे, सब जाए।।
ऐसा लगा, हुक्म था उनको, उनके ही आला अफसर का।
तीन दिना तक, फौज लगी रही, कितने ये अच्छे दिन आए।।
नगर सुरक्षा सबने देखी, कर्फ्यू के गहरे साये में-
बतलाएगा समय कहानी, कैसी हो मनमस्त सुनाएं।।
वोट का दौर—
आज के इस दौर में, यह खोट है।
आदमी नहीं, आदमी, एक बोट है।।
किस कदर घटती गयी, यह कैफियत-
मानवी की धारिता पर, चोट है।।
छल-कपट, कितना मुकम्मिल हो गया-
ताक पर सिद्धांत, तुलते नोट है।।
लग गया लकवा-व्यवस्था जिस्म में-
सच कहैं तो, एक-दूजे ओट हैं।।
गालियों का दौर इतना बढ़ गया-
सब सराहते हैं जिसे, क्या चोट है।।
कम नहीं कोई किसी से, हर तरह।
नम्रता तज, सब बने अखरोट है।।
मजहबों का दौर आया बे-तुका-
शांत फतबों में-चलते दिखे प्रमोट है।।
बारूद घर--
संभल कर चलना तुम्हें हमराह बर।
जिस जगह तुम खड़े हो, बारूद घर।।
आज का माहौल कुछ गमगीन है-
दौड़ते हैं दोपहर में, बे निशाचर।।
भीड़ की कोई दिशा होती नहीं-
पत्थरों के दौर में है, कांच घर।।
आज के त्यौहार कैसे मन रहे-
हैं खड़े- सब ओर में, बे बनाफर।।
रहनुमा अब सितम से, बाज नहीं आते।
मजहबी घर, हो गए, अब खिलाफत घर।।
दूरियां हो गईं हैं आज की, मजबूरियां-
किस कदर सूखते जा रहे हैं, आज निर्झर।।
लग रहा है उस किनारे, आज सब-
जहां नहीं हैं, लौट ने की राह भर।।
सोचलो मनमस्त, अब भी, समय कुछ-
जिंदगी मे, रहेगा पछतावा भर।।
महरबां खुदा क्या--
किसी का जुरम़ था, सजा दी किसी को।
महरबां- खुदा क्या, कहते इसी को।।
अभी था जो जितना, बढ़ाना था आगे-
जुलामत का इतिहास, कहते इसी को।।
यही सोच तेरा, बनाएगा जन्नत।
कहते हैं छीना-नेवाला इसी को।।
कैसा था दिन वो, और कैसीं थी राते-
कहते सभी हैं, सन्नाटा इसी को।।
लगा था कि डूबा है, शान्ति का सूरज-
नचाओ बचाओ, बचाना इसी को।।
दुनियां का दस्तूर, कहता यही है-
रखवाला वो ही है, कहते इसी को।।
कहां जा रहा है, ये चिंतन तुम्हारा -
पता भी न होगा, कहते इसी को।।
मरकर अमर है वो, जिंदा हमेशां-
मनमस्त जीना तो कहते इसी को।।
दुनिया का सफर--
कहते सभी हैं, वो जन्नत यहीं है।
नेकी खुदाई तो, जन्नत यहीं है।।
रातें अंधेरी है, सूरज वो डूबा -
कैसे कहेंगे- वो दुनिया यहीं है।।
सुनशान कहता है, कहानी जहां की-
हैवान जनमन की, कहानी यहीं है।।
समझाया कितना, पर माने नहीं वो-
उनसे भी नादा, कोई होगा यहीं है।।
तूफान आया था, तूफानी दिल में -
कितना कर डाला, हश्रों यहीं है।।
जीवन की पगडंडी, राहों का मंजर -
नेकी कुछ कर डालो, जीवन यही है।।
गुजरे समय को, पछताओगे जीवन में-
मनमस्त दुनियां का, सफरों यही है।।
जलते शीशे--
खड़ा उन्माद था इतना, राहों को जला डाला।
अंधेरा दौर था सबका, काला मुंह भी कर डाला।।
बयां करते सभी कोई, शासन के उसूलों का-
कहीं थी आग मस्जिद में, कहीं मंदिर जला डाला।।
नहीं देखा गया कुछ भी, सियासी दौर था इतना।
रिश्ता कौन-क्या-किसका, पिये थे जुनूनी हाला।।
बना था भाई का भाई-दुश्मन, दौर था ऐसा-
इबादतगाह को उस दिन-खूनी रंग-रंग डाला।।
नाजुक बख्त में देखो, भुलाए जाते अपने भी-
गहरी जड़ों का बिरछा, पतझड़ हो गया साला।।
कभी नहिं जानता यौवन, जीवन की कहानी को-
पत्ते पेड़ से गिरकर, उड़ते हवा में लाला।।
जिनके हौसले काबिल, मंजिल वो ही पाते हैं-
कहानी सभी कुछ कहते, गहरे पांव के छाला।।
दर्दे दिलों की जुर्रत, दर्द ए दिलों ही जानें-
आज की गैर रुशवाई ने, इंशा को रूला डाला।।
वही मनमस्त होता है, शीशा-दिलो-दिल जिसका-
कई गुमराह बालों को, शीशा ही दिखा डाला।।