क्रोध,
मानसिक दुर्बलता का प्रतीक है।
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति नित्यप्रति अनेकों व्यक्तियों से मिलता है व अनेकों परिस्थितियों का सामना करता है। ऐसे में सभी परिस्थितियां आपके अनुकूल होगी या प्रत्येक व्यक्ति आप के अनुरूप व्यवहार करेगा, इस बात की शत प्रतिशत संभावना कभी भी नहीं बनती है। कभी ऐसा दौर भी आ सकता है जब परिस्थितियां पूर्णतया विपरीत हों और व्यक्ति, जिससे आपका सामना हो रहा है, वह भी अनुकूल व्यवहार प्रस्तुत नहीं करता हो। इन परिस्थितियों में व्यक्ति का व्यथित हो जाना स्वभाविक हो जाता है। व्यथा कि इस स्थिति में वह अपने व्यवहार को संतुलित नहीं रख पाता है। यही परिस्थिति क्रोध को उत्पन्न करती है।
विपरीत परिस्थितियां कभी-कभी इतना आवेग उत्पन्न कर देती है कि व्यक्ति अपना आपा खो बैठता है। तीव्रतम आवेग की स्थिति ही क्रोध की स्थिति होती है। क्रोध के आवेग की इस स्थिति में व्यक्ति उचित व अनुचित का भेद भूल जाता है। ऐसी परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर साधारण व्यक्ति अपने विशिष्ट व्यवहार, कुशलता व आचरण को छोड़ कर अनचाहे ही अशिष्टता व दुर्व्यवहार को गले लगा लेता है। इन परिस्थितियों में क्रुद्ध व्यक्ति अपनी समस्त शारीरिक और मानसिक शक्तियों को स्वतः ही नष्ट कर डालता है।
यदि क्रोध उत्पन्न होने के कारणों पर विस्तृत विचार किया जाए तो पाया जाता है कि शारीरिक रुप से कमजोर, तनावग्रस्त व अस्वस्थ व्यक्ति, ही क्रोध का शिकार सबसे पहले होता है। ऐसा व्यक्ति, शारीरिक अक्षमता के कारण अपना प्रतिकार, क्रोध के रूप में व्यक्त करता हैं। जो कि एक विकार के रूप में स्वयं के शरीर पर ही विपरीत प्रभाव उत्पन्न करने लगता है। क्रोध के कारण शरीर की ऊर्जा का क्षय अधिकतम होता है। क्षरित ऊर्जा की पूर्ति के लिए व्यक्ति श्वसन प्रक्रिया को अत्यधिक तीव्र कर देता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के फेफड़े पहले की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से क्रियाशील हो जाते हैं। इस प्रक्रिया के निरंतर सक्रिय रहने के कारण व्यक्ति अपने शरीर पर विपरीत प्रभाव उत्पन्न कर बैठते हैं। जिससे हमारा स्वस्थ शरीर रोग ग्रस्त होकर दुर्बल हो जाता है।
यदि क्रोध को वैज्ञानिकता के आधार पर परखा जाए तो हम पाते हैं कि क्रोध की स्थिति में हम जिन विद्युत चुंबकीय तरंगों का उत्सर्जन करते हैं वे पूर्णतया नकारात्मक व अस्वीकार श्रेणी की विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं, और व्यक्ति इन अस्वीकार विद्युत चुंबकीय तरंगों के केंद्र में रहकर इनका सर्वाधिक अवशोषण करता है। इस प्रकार यह अवशोषित दूषित तरंगे व्यक्ति के शरीर पर स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न कर देती हैं। अतः व्यक्ति को ऐसी स्थितियों से अवश्य ही बचने का प्रयास करना चाहिए।
क्रोध सब मनोविकारों से फुर्तीला है। क्रोध की अवस्था में, व्यक्ति का उद्विग्न मन कुछ भी नकारात्मक प्रतिक्रिया करने के लिए तैयार हो जाता है। ऐसी स्थिति में ज्यादातर व्यक्ति दो उपायों को अपनाते हैं। या तो वे अपने से कमजोर व्यक्ति पर अपना क्रोध तेज आवाज में बोलकर या हिंसा कर उतारते हैं या फिर सामान उठाकर इधर-उधर फेंक कर अपने दिल की भड़ास निकालते हैं। दूसरे उपाय के तहत वे अपने क्रोध को दबा देते हैं। व्यक्ति अपनी हताशा और बेचैनी को दिल और दिमाग की कई परतों में छुपा देता है और इसे ‘मौनं सर्वार्थ साधनं’ की संज्ञा दे देता है। वास्तव में यह मौन नहीं, कुंठा है। हम जबरन गंभीरता व तटस्थता का आवरण ओढ़ लेते हैं, पर वक्त-बेवक्त दबा हुआ क्रोध मन के घाव के रूप में रिसता रहता है। अंत में एक ऐसा समय भी आता है जब मन मस्तिष्क में भरी संपूर्ण कुंठा अमुक व्यक्ति पर गुस्से के रूप में प्रकट हो जाती है। अतः क्रोध को अपने मस्तिष्क के किसी कोने में दबाकर रखने के स्थान पर उसे दिलो दिमाग से निकाल देने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि कुंठित मन दिशाहीन हो जाता है। यदि उत्तर दिशा की ओर जाना है, तो हम अकारण ही दक्षिण दिशा की ओर चलने लगते हैं।
क्रोध का वेग इतना प्रबल होता है कि कभी कभी मनुष्य यह भी विचार नहीं करता कि जिसने दु:ख पहुँचाया है, उसमें दु:ख पहुँचाने की इच्छा थी या नहीं। इसी से क्रोधित व्यक्ति शांत होने पर आत्मग्लानि भी महसूस करता है। महान मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुंग कहते हैं कि अक्सर हम जो बुरा मानते हैं, उसे अचेतन में दबा देते हैं। यह दबा हुआ हिस्सा भीतर ही भीतर घुमड़ता रहता है। यदि उसे सही निकास नहीं मिलता है, तो वह एक विस्फोट की तरह फट पड़ता है। यह तथ्य इंगित करता है कि क्रोध को दबाने में व्यक्ति अस्थायी तौर पर भले ही सफल हो जाएं, परंतु मन के ज्वालामुखी रूपी गुबार के फूटने की आशंका बराबर बनी रहती है। यदि समाज की हिंसा कम करनी है, तो दबे हुए क्रोध को सकारात्मक तरीके से बाहर निकालना बेहद जरूरी है। क्योंकि बहुत से स्थलों पर क्रोध का लक्ष्य किसी व्यक्ति विशेष का गर्व चूर्ण करना मात्र ही रहता है।
हिंदी साहित्य के प्रकांड पंडित जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि अन्याय सहना अन्याय करने से अधिक गलत है। भारत को आजादी कदापि नहीं मिलती, यदि हम सब अंग्रेजों का अत्याचार सिर झुकाकर सहते जाते। यही बात रोजमर्रा के जीवन पर भी लागू होती है। हर छोटी बात पर क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया देना तो उचित नहीं है, लेकिन यदि किसी अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने या प्रतिकार करने से किसी का हित हो रहा हो या फिर समूह को फायदा पहुंच रहा हो, तो हमें ऐसा करने से हिचकना नहीं चाहिए। अंदर दबे क्रोध को बाहर निकालने के बाद ही चित्त शांत हो सकता है, बशर्ते यह ऊर्जा सकारात्मक रूप में सामने आए।
आचार्य रजनीश उर्फ ओशो के विचारों के अनुसार, क्रोध लोभ के साथ जुड़ा हुआ है। अगर भीतर लोभ न हो, तो क्रोध नहीं होगा। जब आपके लोभ में कोई बाधा डालता है, तो आप क्रोधित हो जाते हैं। जब आपके लोभ की पूर्ति में कोई सहयोग नहीं करता है, तब आप क्रोधित हो जाते हैं। लोभ ही क्रोध के मूल में है। अतः अनुचित लोभ को मन मस्तिष्क में पल्लवित व पोषित करना भी क्रोध को अकारण ही आमंत्रित करने के सामान प्रतीत होता है। जीवन में उचित परिश्रम द्वारा प्राप्त लाभों पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर व्यक्ति अतिरिक्त व अनुचित लाभ के लोभ को समाप्त करने का प्रयत्न कर सकता है।
हमारे महानतम ग्रंथ महाभारत में भी क्रोध त्याग की महिमा बताते हुए श्री शुक्राचार्य जी ने अपनी कन्या देवयानी से कहा कि जो नित्य दूसरों के द्वारा की हुई अपनी निन्दा को सह लेता है, निश्चय जानो कि ऐसा व्यक्ति संसार को जीत लेने की सामर्थ्य रखता है। जो बिगड़ते हुए घोड़ों के समान उभरे हुए क्रोध को जीत लेता है, उसी को लोग जितेन्द्रिय कहते हैं। केवल घोड़ों की लगाम हाथ में रखने वाले को नहीं। जो व्यक्ति उभरे हुए क्रोध को क्षमा के द्वारा शान्त कर देने की क्षमता रखता है, वास्तविक अर्थों में वहीं सर्वश्रेष्ठ की उपाधि से सम्मानित किया जा सकता है। जो क्रोध को रोक लेता है, निन्दा को सह लेता है और दूसरों के द्वारा सताये जाने पर भी उनको बदले में नहीं सताता, वहीं परमात्मा की प्राप्ति का अधिकारी होता है।
क्रोध शांति भंग करने वाला मनोविकार माना जाता है। एक व्यक्ति का क्रोध दूसरे व्यक्ति में भी क्रोध का संचार करता है। जिसके प्रति क्रोध प्रदर्शन होता है वह तत्काल अपमान का अनुभव करता है और इस अपमान पर उसकी भी त्योरी चढ़ जाती है। यह विचार करने वाले बहुत थोड़े व्यक्ति ही निकलते हैं जो चिंतन करें कि अमुक व्यक्ति, हम पर जो क्रोध प्रकट कर रहा है, वह उचित है या अनुचित।
क्रोध सर्वदा हानिकारक ही होगा ऐसा कहना भी उचित नहीं जान पड़ता है। क्रोध की सही अभिव्यक्ति सुरक्षा भी देती है और अनावश्यक भावों से मुक्ति भी। क्रोध के क्षणों में लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा प्रबल होती है। समाधान की दिशा में किया गया क्रोध लक्ष्य की ओर ले जाता है। लक्ष्य पाने के लिए क्रोध की ऊर्जा को योग और ध्यान की तरफ मोड़ना होगा। ध्यान के अभ्यास से चेतन मन के अतिरिक्त अचेतन मन में छिपे तनाव को भी सतह पर लाकर दूर किया जा सकता है। दिन में एक बार किसी उपयुक्त एकांत स्थान पर योग और ध्यान के माध्यम से मन के भीतर उत्पन्न क्रोधाग्नि को शांत कर सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। योग और ध्यान के निरंतर प्रयास से किसी पर क्रोध करने का भाव धीरे धीरे विलीन किया जा सकता है और फिर एक ऐसा समय अवश्य ही आ सकता है जब आप किसी भी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति पर क्रोध न करें।
अगर आप जानते हैं कि आपको क्रोध बहुत आता है तो आप अपने दैनिक व्यवहार में मामूली परिवर्तन कर अपने आचरण को उच्चीकृत व क्रोध को नियंत्रित कर सकते हैं। ऐसा करने हेतु कुछ सुझावों पर अवश्य ध्यान दिया जा सकता है। जैसे क्रोध की स्थिति में ध्यान परिवर्तित कर आपको ख़ुशी देने वाली चीजों के विषय में सोचना चाहिए या फिर आप कोई ऐसा कार्य भी कर सकते हैं जिससे आपको प्रसन्नता होती हो। ठंडा पानी पीकर, प्रातः काल हरी घास पर नंगे पैर टहल कर, योग ध्यान कर तथा हंसमुख स्वभाव वाले व्यक्तियों की संगत कर भी क्रोध की अग्नि को शांत किया जा सकता है। अगर आपके साथ बुरा भी हो रहा हो तो भी खुश रहें क्योंकि दुखी होने से इसका कोई हल निकलने वाला नहीं है।
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