Dhawal Chandni Sea Way - 5 - Final Part in Hindi Motivational Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | धवल चाँदनी सी वे - 5 - अंतिम भाग

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धवल चाँदनी सी वे - 5 - अंतिम भाग

एपीसोड –5

नीलम कुलश्रेष्ठ

मधु जी का प्रथम काव्य संग्रह 'भाव निर्झर 'पास के एक बैंक ऑफ़ बड़ौदा के ऑफ़िसर उमाकांत स्वामी जी की सहायता से प्रकाशित हुआ व हिंदी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत भी हुआ। धीरे धीरे नीरा की पुस्तकें प्रकाशित होनी शुरू हुईं । सन् 2001 में जब भी वह उनके घर जाती. वे दोनों उनकी डायरियाँ लेकर पुस्तकों की रूपरेखा बनाने लगतीं ।

लेकिन इन बीच के वर्षों में कितनी बार ही लगा था कि उनका अंतिम समय आ गया है । वह गंभीर बीमार होती तो उनके रिश्तेदार भाई डॉ. उमाकांत शाह उन्हें अस्पताल में दाखिल करा देते । सन् 1955 में ‘प्रस्तुत हूँ युद्ध को मैं’ पंक्तियाँ लिखने वाली मधु जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके शरीर के कष्टों की ये माला इतनी लम्बी होगी । वह कभी तीन चार दिन या एक सप्ताह बेहोश रहतीं फिर जी उठतीं । ज़माना चाहे कितना ही भाग लिया हो वे बत्ती वाले स्टोव पर मूँग की दाल पकातीं थीं । पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल करतीं थीं । कौन सोच सकता है कि उन बत्ती की मरियल आग से उनकी मैक्सी आग पकड़ लेगी । वे अस्पताल पहुँच जायेगी ।

नीरा ने पहली बार उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर उन्हें बकते झकते देखा था और पहली व अंतिम बार डाँट खाई थी, "तुम कोई काम ठीक से नहीं कर सकतीं ?अपने आपको बहुत बड़ी लेखिका समझती हो ?-----अरे तुम्हारी बुद्धि भृष्ट  हो गई है ?----."

चलते समय आँखें भर आई थीं कि...... लेकिन अभी तो उन्हें ज़िंदगी के और कड़वे घूँट पीने थे ।

सन् 2004 के अंत में कंपकंपाती आवाज़ में उनका फ़ोन आया था, “क्या आप पुलिस कमिश्नर को जानतीं हैं ? वे आपकी जाति के हैं ?”

“नहीं लेकिन आपको क्यों पुलिस की ज़रूरत पड़ गई ?”

“क्या बताएं एक बूट लेगर ने हमारे 100 वर्ष पुराने मकान के अपने नाम दस्तावेज़ तैयार करवा कर हमें नोटिस भेजा है ।”

“हाउ इज़ इट पॉसिबल?” उसके दिमाग का कौन सा रेशा नहीं थर्राया होगा ।

एक निरीह काया कैसे लड़ेगी एक नृशंस बूट लेगर से ? उन्होंने अपने को संभाला । उनके भाई उमाकांत का बेटा एडवोकेट है इसलिये उसने कोशिश करके उसकी अक्ल ठीक करवाई थी।

सन् 1984 से नीरा का उनसे परिचय हुआ था । जो निरंतर प्रगाढ़ होता चला गया । नीरा ने उनसे, अपने आप से एक वायदा किया था कि वह हर महीने एक बार उनसे मिलने जायेगी । यदि नहीं जा सकी तो पत्र लिखेगी । ये वादा किसी मज़बूरी में ही टूटा होगा । वह उनके पास हमेशा दुनियादारी की उठापटक को अपने दिमाग़ में उठाये गई है । बीमारी के अत्याचारों से हुई वे स्तब्ध अपनी बात करती रहती, वह मौन सुनती रहती ।

किंतु लौटती एक निर्मल शांत मन से या किसी कवि के शब्दों में कहियेः

“तुम्हारी स्तब्धता या मेरा मौन, एक अंतर्द्वंद्व ही तो है, 

फिर इतने कोलाहल के बाद वातावरण की यह शांति ।”

वह हमेशा सी परिहास शांति के साथ उनके पास से लौटती है । वह जाने कौन सा दिन था वह माँडवी के शामल बेचर पोल के उनके घर सामने खड़ी है । उस दिन अंदर वाला मोटा दरवाज़ा बंद देखकर उस दिन उसका माथा ठनकता है । वह असहज हो गली में से आवाज़ देती है, “मधुबेन !”

उपर से क्षीण आवाज़ आती है, “रुकना मैं आ रही हूँ ।”

गोरा चेहरा पीड़ा से तड़फड़ाया हुआ है । सीढ़ी चढ़कर अपने कमरे में पलंग पर बैठकर कुछ क्षण तो उन्हें अपनी उखड़ी हुई साँस पर काबू पाने में लगते हैं पनीली आँखों के चारों ओर से स्याह गड्डे कह रहे हैं जो कुछ बीती है बहुत बुरी बीती है । वे बतातीं हैं, “क्या बतायें नीरा जी! जिन सीढ़ियों पर वर्षों उतरते चढ़ते रहे उसी में फँस कर गिर गये, सिर सीढ़ी से टकरा गया। करीब दो घंटे वहीं बेहोश पड़े रहे । होश आया तब ऊपर आ पाये । हाथ व पैर में बहुत सूजन आ गई है । बहुत तकलीफ़ में हैं हम ।”

उनकी तकलीफ़ जैसे और भी बढ़ा देने का बोझ मन पर बैठ गया है, '‘फिर आप ऊपर से ही मना कर देतीं, मैं लोट जाती ।’'

“आप भी तो कैसे-कैसे समय निकाल कर प्यार से हमारे पास आती हैं । कैसे मना कर देते?” उनकी आँखों में फिर वही प्यार के जुगनू चमक उठते हैं सारे शहर में सिर्फ़ जिन्होंने उसे बाँधा है ।

“अब तो हमारे दिन नज़दीक हैं । भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि रात में सोयें तो सीधे उसके पास पहुँच जायें । सुबह जब लोग दरवाज़ा तोड़े तो पता लगे मधु जी नहीं रही । नीरा जी ! अगर मरने से पहले कुछ उल्टा सुल्टा हो गया तो कौन हमारी साज सम्हाल करेगा ? ख़ैर छोड़िये, साहित्यिक गतिविधियों की कुछ खबर है ?”

“कल शहर में एक अद्भुत कवि सम्मेलन का आयोजन था । मुझे एक युवा कवि की बात पसंद आई। उसने कहा कि मेरे वरिष्ठ कवियों ने बहुत सुंदर प्रेम गीत लिखे हैं लेकिन मैं कैसे प्रेम गीत लिखूँ मेरे युग के लोग आग में जी रहे हैं । मेरी कलम भी सिर्फ आग उगलती है ।”

“नहीं, नीरा जी! यह बहुत गलत बात है । हर रचनाकार को इसी आग में मनुष्यत्व की खोज़ करनी चाहिये । हर इन्सान में कहीं न कहीं मनुष्यत्व छिपा होता है । रचनाकार का फर्ज़ है अपनी रचना से इस मनुष्यत्व को जगायें ।” फिर अपनी इतनी भारी-भरकम बात को भूल वह बच्चों की तरह फुलक उठती हैं । “मैंने वर्ष के अंतिम दिन 30 सितंबर को एक कविता लिखी है।”

“तीस सितंबर? वर्ष का अंतिम दिन ?”

“प्रथम अक्टूबर को मेरा जन्मदिन है ना ।”

“सुनाइये ।”

उसका जीवन देखकर नीरा या और भी लोगों को बस यही शब्द सूझते हैं हाय बिचारी । अकेली कैसा अभिशप्त(शक्त) रोगी जीवन काट रही है । शैयाग्रस्त ! चिररोगिणी ! शापग्रस्त! दुर्भाग्यमयी ! ये सब शब्द उनकी कविता सुन हतप्रभ हो, काठ हो, विमूढ़ हो, गूँगे हो उठे हैं –

“दर्द की दर परत खुलती गई

ज़ख़्म गहराने लगे ।

लेकिन अकथनीय अनुभूति से

मन विभोर क्योंकि

ये तुम्हारी दी हुई अमानत है ।”

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उपसंहार : ये संस्मरण मैंने सन् 2001 के आस-पास लिखा व सन् 2008 में 'संबोधन के सम्पादक स्वर्गीय आदरणीय कमर मेवाड़ी जी ने संस्मरण विशेषांक में प्रकाशित किया था, जिसकी ‘नीरा’ मैं ही हूँ . बाद में जी मेवाड़ी जी ने ये विशेषांक पुस्तक रूप में प्रकाशित करवा मुझे भी भेजा था। ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था, जो सन 2009 जुलाई में मैं व परिवार अहमदाबाद बस गये । यहाँ से फ़ोन पर नीरा उनसे अनुरोध करती कि वे अपनी कविताओं की पांडुलिपियाँ तैयार करें लेकिन वे हाँफते हुए कहतीं, “तबियत तो संभल जाये ।”

10 मार्च 2012 को मेरा बहुत व्यस्त दिन था। उस दिन अस्मिता का हमने विश्व यात्री व कवयित्री प्रीति सेनगुप्ता के सम्मान में गुजराती साहित्य परिषद में कार्यक्रम रक्खा था। प्रीति जी, जिन्होंने सारे विश्व की यात्रा की है. 14 मार्च को मैंने मधु जी को फ़ोन किया, उनके मोबाइल से उनके भाई ने ख़बर कि वे नहीं रहीं। मैं 10 मार्च को प्रीति जी के साथ व्यस्त थी और उसी दिन मेरी वड़ोदरा की वरिष्ठ मित्र मधु जी, जो घर से बाहर नहीं निकल पातीं थीं, महाप्रयाण पर निकल गईं थीं .

मधु जी की हर मुसीबत में उनके रिश्ते के भाई डॉ. उमाकांत शाह जी, साथ खड़े रहे इसलिए वे अपने मकान सहित सभी जायदाद उनके नाम कर गईं थीं। उमाकांत जी ने उनकी मृत्यु के बाद मुझे उनकी चौदह पंद्रह डायरियाँ अहमदाबाद पहुँचा दीं थीं। इन डायरियों में थीं मोती जैसे अक्षरों में उनकी लिखी भावभीनी कवितायें।

उन्होंने बृजभाषा में एक खंड काव्य लिखा था 'सुजान की पाती '[ घनानंद कवि की प्रेयसी थीं सुजान ] . इसमें उन्होंने कल्पना की थी कि घनानंद ने जिस तरह सुजान के विरह की पीड़ा में काव्य रचा, उसी तरह सुजान भी उनके वियोग से तड़पी होंगी। उसी पीड़ा व्यक्त करती, ये हृदयस्पर्शी पुस्तक है।इसको उनके जीवनकाल में नमन प्रकाशन के नितिन गर्ग जी ने बहुत सुरुचि से प्रकाशित किया था।

मैंने उनकी अंतिम इच्छा का मान रखते हुए इन की डायरियों में से कवितायें चुनकर तीन पुस्तकें सम्पादित की थीं -'प्रस्तत हूँ युद्ध करने को मैं ', पीड़ित पायल की रुन झुन ', 'मेरी पीड़ा प्यार जो गई '--ये शीर्षक मैंने उनकी कविताओं की पंक्तियों में से चुने थे जिनमें उनका जीवन झलक रहा है।  इन तीनों को भी नमन प्रकाशन के नितिन गर्ग जी ने बहुत सुरुचि से प्रकाशित किया था - सन -2013 में। डॉ .उमाकांत शाह जी ने मधु जी द्वारा इंतज़ाम किये रुपयों से इनका मूल्य दिया था।

यदि मैं अहमदाबाद रहने नहीं आती तो वड़ोदरा से 1००  किलो मीटर दूर इस शहर के हिंदी साहित्य प्रेमियों को पता ही नहीं चलता कि गुजरती भाषी प्रथम हिंदी कवयित्री कौन हैं।

दिल को छू लने वाली इन भावभीनी कविताओं को पढ़कर कोई भी यही निर्णय लेगा कि गजरात की प्रथम हिंदी कवयित्री कुमारी मधुमालती चौकसी गुजरात की महादेवी वर्मा हैं। मुझे ये बताते हुये बहुत प्रसन्नता है कि अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, अहमदाबाद में जब हमने इनका विमोचन रक्खा तो इसकी सदस्यों ने बहुत बढ़ चढ़कर इन काव्य संग्रह के विषय में अपना मंतव्य रक्खा था।

इस अवसर पर अस्मिता की किसी सदस्य ने कहा था, "दुनियां में बहुत से लोग तो किसी के जीवित होने पर भी सहायता नहीं करते लेकिन नीलम जी !आपने मधु जी के जाने के बाद उनकी चौदह, पंद्रह डायरियों में से कवितायें चुनकर तीन पुस्तकें सम्पादित की हैं, आश्चर्य है। "

यही मेरा मधु जी के लिये स्नेह व सम्मान था

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नीलम कुलश्रेष्ठ

kneeli@rediffmail.com