Dhaval Chandni Sea Way - 4 in Hindi Motivational Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | धवल चाँदनी सी वे - 4

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धवल चाँदनी सी वे - 4

एपीसोड –4

नीलम कुलश्रेष्ठ

पंडित जी ने उन्हें निपट अकेले घर में जीने के लिये तैयार किया था । उन्होंने दुनियाँ को बखूबी जीकर दिखा भी दिया है । उनके कमरे में दायीं तरफ दीवार से सटा हुआ पंडित जी का पलंग आज भी ज्यों का त्यों है । उस पर हमेशा धुली चादर बिछी रहती है । रज़ाई भी उसी पर रखी होती है । बीच में रखी होती है फूल की माला पहने सफेद दाढ़ी में मुस्कुराती पंडित जी की तस्वीर एक आश्वस्ति के रूप में । वे उन्नीस सौ पचास में जो प्रण चाँदोद से लेकर चले थे जीवन की अंतिम श्वास तक उसे निबाहते रहे ।

कभी नीरा पूछती, “आपके खर्च की व्यवस्था ठीक चल रही है ?”

वह हँस देती, “हमारा खर्च ही क्या है ?ब्लेक कॉफी, हरी मूँग की दाल, थोड़े पान और दवाईयाँ । माँ मरने से पहले सब व्यवस्था कर गई थीं ।”

पंडित जी के जाने के बाद मधु जी से उसका रिश्ता खुद-ब-खुद गहराने लगा है वह उनसे महीने में एक बार मिलने का वायदा करती है । उस घर में बर्फ़ीली वादियों, झरनों और कश्मीर की स्त्रियों के दर्द की कविताएँ सुनती है । मधु जी के कविता संग्रह को केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का पुरस्कार मिलता है । शहर में उनका सम्मान किया जाता है । घर लौटकर वही होता है ज़ोरों का रात में आने वाले दौरों की तेज़ गति । इसी कारण वे वर्ष में दो तीन बार ही बहुत ज़रूरी काम होने पर निकलती हैं ।

अपने आस पास वालों की समस्याओं के साथ ही जी रही हैं । उनके पास लोग, पति-पत्नी कलह, पारिवारिक उलझनें लेकर पहुँचते रहते हैं । कोई भी शुभ काम करने से पहले आशीर्वाद लेने पहुँचते हैं । अद्भुत हैं वे भी जिन्होंने गृहस्थी का मतलब जाना ही नहीं । लोगों के उनकी समस्याओं के अकाट्य हल थमाती रहती हैं ।

एक बार वह उनके यहाँ पहुँची तो देखकर हैरान हो गई कि उनकी छोटी सी रसोई में भिंडी की सब्ज़ी व दाल पक रही है । वह जल्दी-जल्दी आटा गूँथ रहीं थीं । वह बोली, “आप तो कुछ खाती नहीं हैं ।”

“मैं जो न तुमसे कहती थी कि मेरी जाति वाले एक लड़के को एक बंगालन से प्यार हो गया है । दोनों ऊपर बैठे हैं । दोनों के घर वाले शादी नहीं करने दे रहे । लड़के के माँ बाप हैं नहीं, लड़का मरने की धमकी देता है तो भाई मन ही मन खुश होते हैं वह मर जाये तो उसके हिस्से की जायदाद उन्हें मिल जाये । लड़की के माँ बाप भी तैयार नहीं हैं क्योंकि लड़का अधिक पढ़ा लिखा नहीं है ।”

“लेकिन आप बीच में क्यों पड़ रही हैं ?”

“दोनों बालिग हैं । रो रोकर कह रहे हैं कि जान दे देंगे । ऐसे कैसे उन बच्चों को मर जाने दूँ ?” कहते हुए उनकी आँखें छलछला आईं । “मेरे ममेरे भाई वकील हैं, वही इनकी शादी की व्यवस्था कर रहे हैं । दोनों सुबह से भूखे रो रहे हैं । उन्हीं के लिये खाना बना रही हूँ ।”

“ आपकी तबियत?”

“ऐसे में सब ठीक हो जाता है ।” वह हाँफते हुए काँपते हाथों से आटा मलने लगती हैं ।

वे दुनियाँदारिन हैं या आध्यात्मिक स्त्री, कवयित्री हैं या चिररोगिणी ? उन्हें समझ पाना उसके बस की बात नहीं है । नीरा की अपनी ज़रा सी बीमारी उसमें इतनी चिड़चिड़ाहट भर देती है, लेकिन मधुबेन कौन सी शक्ति से अपने स्नेह स्त्रोत को दोनों हाथओं से लुटाती रहती हैं । उनकी स्मरण शक्ति, शरीर दिमाग को झकझोर देने वाले दौरों के बावजूद भी इतनी प्रखर हैं । उनकी अपनी पंक्तियाँ सौ प्रतिशत उनके जीवन का आईना हैं, 

“मानूँ कैसे बात सभी की मैं तो पीड़ा की बेटी हूँ

लुटा रही खुशियाँ औरों पर प्राणों में संसार भर लिया ।”

बीच-बीच में देशी विदेशी डॉक्टर ‘एक्यूपंचर’वाले खबर भिजवाते हैं कि वे उनके शरीर पर कुछ प्रयोग करना चाहते हैं कि आखिर वे एक भी दाने के बिना इतने वर्षों जीवित कैसे रह सकी हैं ? लेकिन वे झुँझला कर उन्हें कह देती हैं, ‘मैं अपने शरीर को तमाशा क्यों बनने दूँ ? मैं जैसे जी रही हूँ, मुझे जीने दीजिये ।’

दो तीन महीने बाद फिर एक किस्सा सुनने को मिलता है । मेरे मुहल्ले की एक लड़की आई थी । रो-रोकर हल्कान हुई जा रही थी ।

“क्या हो गया उसे?”

“पेट से है । मैंने तो उसे डाँटा टी.वी. पर चित्रहार देखती हो, ‘टॉप टेन’ में चिपटा चिपटी देखती हो । ये नहीं देखती ‘माला डी’ [परिवार नियोजन की गोलियां ] का भी विज्ञापन दिखाया ला रहा है ।”

नीरा हँसते-हँसते लोटपोट हो जाती है, “आपने ऐसा कहा?”

“हाँ हमने तो कह दिया था उस लड़के के कान पकड़ कर शादी कर लो या किसी डॉक्टर के पास जाओ ।”

फिर जैसा कि होता है नई पीढ़ी पुरानी जायदाद को बेचती है या उसमें रद्दोबदल शुरू कर देती है । मधु जी के घर के नए नवेले मालिक अपने बाप दादाओं के मकान में रद्दोबदल करवा रहे हैं । टूटते हुए मकानों में खूब धूल उड़कर मधु जी के साँसों पर प्रहार करती हैं । एक नई दुकान रेफ्रिजरेटर वाला ले लेता है, जहाँ वह रात को उनकी मरम्मत करता है । रात भर धातु की ठक-ठक से उनका बी.पी. ऊपर नीचे होता रहता है । तीन दुकानें छोड़कर चौथी दुकान में टेप रिकॉर्डर व टी.वी. की मरम्मत करने वाला दुकानदार आ जाता है । इन नईं आपदाओं के बीच वे तड़पड़ाती हिरनी नज़र आती हैं । उनके चेहरे की मुस्कुराहट अपनी इस तड़फड़ाहट को भी छिपाना जानती है ।

“आजकल वह चक्कर काटता रहता है ।”

“कौन ?”

“मेरा पड़ौसी  । अपने बाप के घर का अपना हिस्सा बिल्डर को बेचना चाहता है जो शॉपिंग कॉमप्लेक्स बनाना चाह रहा है । उस बिल्डर के कहने पर वह यहाँ आता है यदि मैं यह घर उसे बेच दूँ तो यहाँ शानदार कॉम्प्लेक्स बन सकता है वर्ना बिल्डर उसका हिस्सा भी नहीं ख़रीदेगा । लेकिन मैं क्यों अपनी माँ व पंडित जी का स्थान छोड़ दूँ ? मेरे शुभचिंतक समझा गये हैं कि मैं सम्भलकर रहूँ वह बड़ा बदमाश आदमी है । अब मैं किसी अजनबी को अंदर नहीं आने देती ।”

नीरा सोचती है उन शुभचिंतको की चिंता बेकार है कौन भला एक बीमार स्त्री को तंग करेगा लेकिन दुनियाँ के पंजे बड़े बेदर्द नुकीले होते हैं । किसी को भी मार सकते हैं ।

उनका पड़ौसी इनके घर आकर देख गया है कि मधु जी का पलंग उसके व इनके घर की कॉमन दीवार से लगा हुआ है । बस रातों को कोशिश शुरू कर देता है उस दीवार को बड़े हथौड़े से ठोकने लगता है, एक प्लास्टर का बड़ा टुकड़ा दीवार से टूटकर गिरा नहीं कि बिस्तर पर सोती वह क्षीण काया कहाँ बच पायेगी ?

“नीरा जी! कल उसने दीवार इतनी ज़ोर से ठोकी कि मेरा मानपत्र ही दीवार से उखड़कर मेरे सीने पर आ गिरा ।”

“आपको चोट तो नहीं आई?” वह घबराकर उनका हाथ पकड़ लेती है ।

“बिलकुल नहीं, बस अपना पलंग अब दीवार से हटाकर बीच में कर दिया है । भगवान पर मेरा अटूट विश्वास है वही मेरी सहायता करेगा ।”

जिनके जीवन को देखकर ऊपर वाले के ऊपर बेहद गुस्सा आता है, बेहद खीज होती है । मन होता है बादलों को चीर कर ऊपर देखा जाए कि वहाँ कोई बैठा भी है या नहीं । किसी को कष्ट देने की क्या कोई इन्तिहा नहीं है ? उसी पर उनका अटूट विश्वास है, स्वयं उसी की आराधना में ध्यान मग्न रहती हैं । वे कहती भी हैं, “दुनियाँ में अब हमारा है ही कौन ? उसी का तो आसरा है । जब तबियत ख़राब होती है उसी से लड़ लेते हैं । दो भगवान ! और कष्ट दो जितना दे सको लेकिन हम भी हारे वाले नहीं है ।”

वे अपनी बीमारी से हाँफते हुए घर की मरम्मत करवाने को मजदूर बुलाती हैं, वे ऊपर के कमरे में रखी लकड़ी की चोरी करके ले जातीं हैं। वे एक हिन्दी की समिति की परीक्षा की कॉपी जाँचती हैं । पारिश्रमिक समिति को ही दान दे देती हैं, भाई लोग हिन्दी भवन में कॉमर्स की कोचिंग कक्षाएं चलाते हैं । एक बेन उनसे भावनात्मक खिलवाड़ करती है कि उन्हें फलानी महिला समिति का अध्यक्ष बना दिया गया है, पता लगता है कि उस माह कोई मीटिंग ही नहीं हुई थी । एक परिचित उनकी निगाह बचाकर तकिये के नीचे रखे रूमाल में बँधे रुपये निकाल कर ले जाता है । वह मुस्कुरा कर रह जाती हैं, “मुझे पता है वो रुपये कौन ले गया है लेकिन कहें क्या ये दुनियाँ है ।”

कभी कोई म्यूज़िक कंपनी से उनके गीतों की रिकॉर्डिंग के अधिकार लिखवा ले जाता है । न पारिश्रमिक आता है, न केसैट । ये निर्द्वंद होकर कहती हैं, “हमें किसी बात की परवाह नहीं है, हम तो अपनी मस्ती में जिये जा रहे हैं ।”

मोहल्ले भर के लोग, परिचित, स्वयं नीरा किसी भी बीमारी के लिये कोई घरेलू नुस्खा पूछने मधु जी के घर दौड़ लेती है । लेकिन वह अपनी त्वचा पर विक्स लगाती है तो उसकी त्वचा काली पड़ जाती है, चोट पर नमक मिले गर्म पानी का सेक करती हैं तो दौरे पड़ने लगते हैं ।

अक्सर उन्हें रिश्तेदार सलाह देते रहते हैं कि अपना पैतृक मकान बेचकर पॉश कालोनी में फ़्लैट खरीदकर ठाठ से रहें । कभी टोह लेते रहते हैं वह अपनी मकाननुमा जायदाद किसके नाम लिख रही हैं । उसमें उनका हिस्सा होगा या नहीं ?

उऩकी कविताओं की संख्या बढ़ती जा रही थी । उनका उस लेखिका नीरा से संपर्क था जो पत्रकारिता करके अपने स्त्री होने पर, जांबाज़ होने पर भी सहमी रहती थी । अपनी बड़ी उम्र के होने का इंतज़ार कर रही थी कि तब प्रकाशकों से बात करेगी । वे अक्सर झुंझलाती थीं, “कैसी हिंदी की लेखिका हो जो प्रकाशकों को जानती नहीं हो?”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com