एपीसोड --2
नीलम कुलश्रेष्ठ
चाँदोद के उस मंदिर के महंत बड़ी गंभीरता से बिना आरती गाये सोलह दीपों वाले दीपक से भगवान की आरती उतारा करते थे । वैसे भी वह कम बोलते थे । स्त्रियों से बात नहीं करते थे, न ही उन्हें अपना चरण स्पर्श करने देते ।
ग्यारह बजे माँ उन्हें लेकर वैद्य के यहाँ लम्बी बेंचों पर लगी लाइन में बैठ जातीं । एक दिन लगता मधु की हालत सुधर रही है, दूसरे दिन लगता कि और खराब हो गई है । वह दूध भी नहीं पचा पाती थीं । महीने भर बाद वैद्य ने उनकी नाड़ी पर हाथ रखकर आँखें बंद की व थोड़ी देर बाद उन्हें खोलकर उनकी माँ की तरफ देखा, ' ‘बेन ! सच्ची बात जानना चाहती हो ?’'
"हाँ, मेरी बेटी ठीक तो हो जाएगी ?" माँ ने अधीरता से पूछा ।
"झूठी उम्मीद न रखना ये आजीवन ऐसी ही रहेगी । आँतों में लगी चोट से इनकी पाचन क्षमता समाप्त हो गई है ।’
"आप पैसे की चिंता मत करिये, मैं देने को तैयार हूँ । आयुर्वेद में तो स्वर्ण भस्म की दवाईयाँ भी बनती हैं । मैं ऐसी महँगी दवाई भी खिला सकती हूँ ।"
"स्वर्ण कभी भोजन का स्थान नहीं ले सकता, बेन ! आप इस सच को स्वीकार करके बिना बात पैसा बहाना बंद करिए ।"
माँ बेटी अपने कदम घसीटती मंदिर तक तो आ पहुँची लेकिन उसका बरामदा आते ही एक दूसरे के गले लगकर चीख़-चीख़ कर रोने बैठ गई । न उन्हें ये ध्यान रहा कि वे इस भरी दोपहर में मंदिर की मर्यादा भंग कर रही हैं । इस समय सभी पंडे व महंत भोजन के बाद अपने कक्षों में विश्राम कर रहे थे।
उनका करुण विलाप सुनकर अधिकतर लोग अपने कमरे से बाहर निकल जाये । सबसे आगे महंत ही थे। स्त्रियों से न बोलने वाले महंत भी इस आर्तनाद से दहल गये थे ।
“बेन! आप लोग क्यों विलाप कर रही हो ।”
“महंत जी! किसी तरह मेरी बेटी को बचा लीजिये, वैद्यराज ने जवाब दे दिया है ।”
महंत ने शांत स्वर में सांत्वना दी, “आप चिंता न करें, ये बच्ची अवश्य स्वस्थ होगी । शांत मन से बड़ौदा वापिस जाइये ।”
जब वे बोझिल मन से सामान बाँध महंत जी से विदा लेने पहुँची तो उन्होंने अपने कक्ष के दरवाज़े तक आकर मधु जी से कहा, “बहिन! कभी मुसीबत में हो तो मुझे याद करना । मैं तुरन्त चला आऊँगा ।”
मधु बेन ने उनका हाथ पकड़ लिया था, “पंडित जी! वायदा कर रहे हैं ?”
“आज़मा कर देख लेना ।” कहकर उन्होंने अपना वात्सल्य भरा हाथ मधु के सिर पर फेर व हाथ जोड़कर प्रणाम कर अपने कक्ष में अन्दर चले गये ।
बड़ौदा लौटकर आने की स्थिति में सुधार तो न होना था । बेटी का स्याह पड़ता चेहरा देखकर उनकी माँ अकेले में सिसकती रहतीं । पहले रात में, उन्हें एक दो दौरे आते थे। अब तो रात भर दौरे पड़ते रहते । धीरे-धीरे शरीर में लगते झटकों ने उनके फेफड़ों को भी कमज़ोर कर दिया था, उन्हें दमा भी आरम्भ हो गया था । उखड़ती साँसों व पस्त शरीर से घबराकर मधु पंडित जी को चिट्ठी लिखने बैठ गई, “आपने किसी बीमार बहिन से वायदा किया था। उसी वायदे को याद दिलाते हुए पत्र लिख रही हूँ आप तुंरत बड़ौदा चले आइये ।”
अपने पत्र पर उन्हें स्वयं विश्वास नहीं था जो महंत आसपास के सैंकड़ों गाँवों की श्रद्धा का पात्र है वह क्योंकर इस अदना सी बहन से किया वायदा याद रखेगा ? एक सप्ताह बाद ही नीचे के द्वार की कुंडी खटकी । उनकी माँ भी दरवाज़ा खोलकर दंग रह गई । दरवाज़े पर खड़े थे तुलसी की माला पहने, सफेद कुर्ता धोती पहने, लम्बे सतर देह वाले महंत । उनकी माँ ने भाव विह्वल हो प्रणाम किया व शालीनता से बोली, ‘पंडित जी, ऊपर चलिए ।’
उन्हें देखकर बिस्तर पर पड़ी हुई मधुबेन भी भाव विह्वल हो रो पड़ीं । उनकी गंभीर हालत देखकर पंडित जी ने पलंग के पास की कुर्सी पर बैठकर उसकी नब्ज़ देखी । बहुत ही सुस्त चलती नब्ज़ से उनके माथे की लकीरें स्वतः ही गहरी हो गई । वे उनके सिर पर हाथ फिराते हुए बुरी तरह विचलित हो उठे थे, “बहिन, मैं वायदा करता हूँ जब तक तुम ठीक नहीं हो जाओगी, मैं चाँदोद नहीं लौटूँगा ।”
वे अपने साथ भाँति-भाँति की जड़ी बूटियाँ लाये थे । कभी कोई उन्हें चबाने के लिये देते, कभी किसी का काढ़ा बनाकर देते, कभी किसी को सिलबट्टे पर पीसकर ताजा ही रस उन्हें पीने देते, कभी कोई भस्म शुद्ध घी में मिलाकर उन्हें चाटने को देते लेकिन मधुबेन का स्वास्थ्य वैसा का वैसा था । वे कमज़ोरी के कारण दिन में कभी-कभी आँख खोल पातीं । हाँ, रात में दौरों के भूचाल से उनका शरीर काँपता रहता ।
एक दिन पंडित जी ने पराजित स्वर में कहा, “बेन ! मैं सारी दवाईयों का प्रयोग कर चुका हूँ । मैं इक्कीस दिन ऊपर वाले कमरे में अनुष्ठान करूँगा । कोई विघ्न नहीं डाले । बच्ची अवश्य स्वस्थ होगी ।”
पंडित जी इक्कीस दिन तक ऊपर वाले कमरे में बिना कुछ खाये पिये क्या कुछ ध्यान पूजा करते रहे थे, दोनों जान नहीं पाईं । न मंत्र की आवाज़ न हवन सामग्री का धुआँ । इन इक्कीस दिनों में उन्होंने सिर्फ़ पानी पिया था । वह स्वयं नीचे आकर उतर कर मौन काँसे के एक लोटे में एक बार पानी भर कर ले जाते थे । होंठ सिये हुए उपर लौट जाते ।
बाइसवें दिन वे उतरे चेहरे व निराश कदमों से नीचे उतरे थे । दोनों माँ बेटी बड़े आस भरे चेहरे से उनकी तरफ़ निहार रही थीं । इतने पहुँचे हुए महंत हैं कुछ न कुछ तो बीमारी ठीक होने का रास्ता खोज ही लेंगे ।
पंडित जी ने धीमे स्वर में कहा था, ‘तुम्हारी बेटी आजीवन बीमार रहेगी अब स्वस्थ नहीं होगी ।’
माँ लगभग चीख पड़ी थी, ‘कभी भी नहीं ?’
‘यही विधि का विधान है जिसे टाला नहीं जा सकता ।’
दोनों तड़ातड़ टूटे हुए बांध की जल सी बह उठी थीं, हिचकियाँ थीं कि रुकने का नाम नहीं ले रही थीं । ज़िन्दगी को झकझोर देने वाली बीमारी ज़िन्दगी भर ऊँगली नहीं छोड़ेगी ?
पंडित जी लाचार हाथों की ऊँगलियों को एक दूसरे में उन्हें फंसाये उन्हें रोते देखते रहे । जब दोनों अलग होकर सिसकनें लगीं तब उन्होंने मधु जी के सिर पर अपना स्निग्ध हाथ फेरा व गंभीर होकर बोले, ‘बच्ची ! अपना ये अमूल्य जीवन भगवान को समर्पित कर दे । कृष्ण को जैसे मीरा ने किया था ।’
बस उसी क्षण से मधु जी भगवान मय होती चली गईं । हर दुख, हर पीड़ा को उन्होंने भगवान का आशीर्वाद समझ अंगीकार कर लिया । उधर चाँदोद के साधु व पंडित जी के शिष्य, पंद्रह बीस दिन बाद आकर उनके चरणों में बैठ उनके पैर दबाते हुए पूछते, ‘महंत जी ! अब तो लौट चलिये । मंदिर की गद्दी खाली पड़ी है ।’
‘'जब तक ये बच्ची ठीक नहीं हो जायेगी । मैं यहाँ से लौट नहीं सकता । मैंने इसे वचन दिया है ।"
वे कुछ दिन बाद फिर लौट आते इस उम्मीद से कि पंडित जी की बच्ची स्वस्थ हो गई होगी लेकिन उसकी हालत बद से बद्तर होती जा रही थी ।
कुछ महीनों बाद चाँदोद के दस बारह शिष्यों ने जैसे उनका घेराव ही कर लिया, "शहर में इतने डॉक्टर हैं वे इलाज कर ही रहे हैं । आप भी चाँदोद से इन्हें देखने आते रहिये ।"
एक ने दबी जुबान में पूछा, 'आप इतने विशाल मंदिर के विशाल कक्ष में रहे हैं । क्या आपका इस छोटे से मकान में दम नहीं घुटता ?’ वहाँ तो आप अपने हाथ से जल भी नहीं पीते थे। यहाँ तो खाना भी स्वयं पकाते हैं ।"
‘ये तो जीवन चक्र है । मैं बच्ची के ठीक हो जाने पर ही वापस लौटूँगा ।’ हालाँकि वह इस सत्य से परिचित हो चुके थे कि बच्ची चिररोगिणी है ।
विचित्र थे वे पंडित जी, जिनके लिये उन्होंने राजकीय सुख छोड़े थे उन माँ बेटी का छूआ खाना भी नहीं खाते थे । अपने हाथ से अपना खाना बनाते थे । साथ ही उन्होंने माँ बेटी से एक वचन लिया था कि उनके जीते जी अपने रिश्तेदारों को नहीं बतायेंगी कि वे सैंकड़ों बीघा जमीन वाली जायदाद के मंदिर के महंत हैं या चार वेदों के प्रकांड ज्ञानी हैं ।
मधु जी परिचय होने के बहुत वर्षों बाद उसे तीसरी मंज़िल पर कमरे में ले गई थीं जिसकी खिड़की बाहर गली में खुलती थी जिस खिड़की के लिए हमेशा उनकी कड़ी हिदायत रहती थी, “गनपति के दिनों में या नवरात्रि में या किसी भी दिन इस तिमंज़िले कमरे की खिड़की खुली देखो तो मुझे गली में से आवाज़ मत देना । तुम समझ लेना मैं पूजा में बैठी हूँ ।”
गनपति स्थापना के दिन चल रहे थे । उस कमरे के दरवाज़े को गेरुए वस्त्रों में खोलती मधुबेन उसे ऐसी लग रही थीं जैसे किसी तिलिस्म का द्वार खोलने जा रही हो । उसने कमरे में जाकर देखा उन्होंने कमरे में साड़ियों का शामियाना तानकर गनपति की स्थापना की थी । बीच में सबसे ऊँची मेज़ पर गनपति स्थापित थे उससे छोटी मेज़ों के बाद नीचे बाजोट (चौकी) लगाई हुई थी । सभी पर मिट्टी के देवी देवता व प्लास्टिक के खिलौने सजे हुए थे । उस हल्के अँधेरे कमरे में अगरबत्ती धीमे-धीमे जलती गमक रही थीं ।
मधु जी ने सीढ़ियाँ चढ़कर आने के कारण तेज़ चलती साँस के सहज होने पर अपने माथे ऊपर बंधे काले बालों के ढीले पड़ गये जूड़े को कसते हुए कहा था, “नीरा जी ! मैं इस पवित्र कमरे में केवल दो चार लोगों को ही आने देती हूँ । ये कमरा मेरी भयंकर बीमारी का गवाह है जब मुझे तान (दौरे) आती थी तो मुझे पकड़ना किसी के बस की बात नहीं थी । मेरी तड़फड़ाती, मछली सी फिसलती देह सारे कमरे में चकरघिन्नी बनी घूमती थी मेरी माँ व पंडित जी इस कमरे की दीवारों पर तकिये लगा देते थे क्योंकि पता ही नहीं चलता था कि मैं किस कोने से टकरा जाऊँ । ऐसी तानों का तूफ़ान घंटों तक चलता था ।”
उस दृश्य की कल्पनामात्र से ही उसका रोयाँ-रोयाँ थर्रा उठा था । आँखों में आँसू भर आये थे, “फिर वह सब कैसे ठीक हुआ ?”
नीलम कुलश्रेष्ठ
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