निष्पाप व्यक्तित्व,
जीवन का आधार है।
पाप कर्म, मानव जीवन की एक ऐसी भूल है, जो उसके व्यक्तित्व को सदा के लिए कलंकित कर देता है। यह मानव जीवन में एक कोढ की तरह लगकर उसके आचरण, व्यवहार और सदचरित्र को दूषित कर देता है। पाप कर्म से प्रभावित मनुष्य कुछ समय तक तो समाज को भ्रमित कर अपनी छवि को एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने में सफल हो सकता है। परंतु इस आवरण के हटते ही ऐसे मनुष्य कुंठित और परिष्कृत जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। समाज ऐसे व्यक्तियों को हेय दृष्टि से देखने लगता है। व्यवहारिक जीवन में समाज ऐसे मनुष्य को सदा के लिए अपने जीवन से निष्कासित कर दूरी बना लेता है।
अपने जीवन और उद्देश्य को सर्वोपरि मानकर उसकी सफलता के लिए अपनाए जाने वाले अनैतिक क्रियाकलापों को ही पाप कहते हैं। अमर्यादित इच्छाएं, आकांक्षाएं, राग-द्वेष, घृणा और दुष्कर्म ही पाप का स्वरुप है। ऐसे समस्त कर्म जिनको करने के लिए हमारी अंतरात्मा विरोध करती हो पाप की श्रेणी में आते हैं।
लोभ पाप का एक स्वरूप है। लोभ के वशीभूत होकर ही मनुष्य पापकर्म के लिए प्रेरित होता है। व्यक्ति निजी लाभ और स्वार्थ की पूर्ति के लिए झूठ बोलता है, चोरी करता है, धोखा देता है, जो सभी कर्म पाप की श्रेणी में माने जाते हैं। धोखाधड़ी, चोरी, मिलावट खोरी, शोषण आदि बुराइयां पाप वृत्ति का परिणाम है। वह लोभ ही है, जिसकी त्वरित कामना से मनुष्य अनेकों अमर्यादित कार्यों की ओर प्रेरित होता है। अतः लोभ को पाप कर्म का प्रमुख स्रोत माना जा सकता है।
सीमित समयावधि व परिसीमित परिश्रम कर अधिक समृद्धि प्राप्त करने की प्रवृत्ति पाप कर्म को प्रेरित करती है। ऐसी प्रवृत्ति के हृदय में प्रवेश करते ही मनुष्य अपना विवेक भूलकर इसी के आधीन हो जाता है। कालांतर में यह प्रवृत्ति मनुष्य के जीवन में एक विकार की भांति पनपने लगती है और जल्द ही मनुष्य पाप कर्म के नागपाश में जकड़ जाता है। यह वो स्थिति है जिससे कि मनुष्य चाह कर भी अपने को मुक्त नहीं कर पाता और धीरे-धीरे अपना चारित्रिक हनन करवा बैठता है।
हिंसक प्रवृत्ति भी मनुष्य जीवन में पाप कर्मों को प्रेरित करने का एक अहम कारण है। यह हिंसक प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि मनुष्य अपने नगण्य लाभ के लिए दूसरों को कष्ट की स्थिति में पहुंचा देने में जरा भी संकोच नहीं करता और ऐसा कर मनुष्य अपने व्यवहार को कलंकित कर लेता है। जैसे-जैसे मनुष्य अपनी हिंसक स्वभाव को वश में करता चलता है, उसमें परमात्मा के दैवीय गुणों का विकास होता जाता है। ऐसे साधक में धैर्य, क्षमा, दया, त्याग, शांति-प्रेम, ज्ञान, निर्भयता, कोमलता, सरलता, मधुरता, सहृदयता आदि गुणों का विकास होने लगता है।
पाप कर्म, मनुष्य के जीवन की सफलता में सबसे बड़े प्रतिरोध का कार्य करता हैं। जिसके कारण उसकी विचारधारा संकीर्ण हो जाती है, विवेकशीलता शून्य हो जाती है और दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। मनुष्य को ऐसे पाप कर्मों से न केवल बचना चाहिए बल्कि अपने जीवन को एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के लिए सत्कर्मों की ओर प्रेरित होना चाहिए। आदर्श बनने का प्रयास मात्र ही मनुष्य के अंदर सतगुणों का संचार कर देता है। इसके निरंतर प्रयासों से मनुष्य के आचरण में अभूतपूर्व परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है और मनुष्य के निष्कलंकित जीवन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने सत्कर्म को श्रेष्ठ कर्म की संज्ञा दी है। आपका सद्व्यवहार, सहानुभूति, प्रेम, आदर, बुद्धि और साधु व्यवहार ही सत्कर्म के रूप में प्रकट होता है। सबसे विनम्र व्यवहार करें, मान-प्रतिष्ठा की इच्छा न करें, केवल कर्तव्य मानकर आप अपने कर्म को करें यही सद्व्यवहारी व्यक्ति का सबसे अहम गुण है। निरंतर निस्वार्थ भाव से प्रेम युक्त मृदुल व्यवहार ऐसे व्यक्तियों में धीरे धीरे सहनशीलता, सहानुभूति, विश्व प्रेम, दया और सब से मिलकर चलने की सामर्थ उत्पन्न कर देता है।
ऐसा व्यक्तित्व अपने को पाप कर्मों से दूर रखने की क्षमता तो उत्पन्न कर ही लेता है, साथ ही साथ अपने संपर्क में आने वाले दूसरे व्यक्तियों को भी ऐसे दूषित कर्मों से दूर रहने की प्रेरणा देता है। अपने इस साधु व्यवहार से मनुष्य एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के रूप में स्थापित होकर समाज को एक सार्थक दिशा देने का पुण्य कार्य करता है।
सरलता एक सामाजिक अंग है। अंतःकरण की सरलता को भी निष्कलंक जीवन के मार्ग में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व की सरलता उसे छल, द्वेष और प्रपंच से मुक्ति दिलाता है। निस्वार्थ भाव तथा शुद्ध हृदय से, पीड़ित व्यक्तियों की सेवा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करवाता है। मनुष्यों के साथ स्वच्छंद व्यवहार करने का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि हम मनुष्य को मनुष्य समझने लग जाए, अपने मन में संचित असंतोष, कटुता व घृणा को निकाल दे तो हमारे अंदर मनुष्यत्व का उदय होगा और हम संपूर्ण समाज को अपना कुटुंब मानकर कार्य करने को प्रेरित होंगे। सरलता के अभाव में हमारे बीच जो स्वार्थ की दीवार खड़ी हो जाती है वह इसे अपनाने पर स्वतः ही टूट जाएगी। समाज का सभी वर्ग, गरीब या अमीर, अपने विचारों. अनुभूतियों एवं भावनाओं से सतयुगी बन जाऐगा।
सभी धर्मों में अंतःकरण की सरलता पर विशेष जोर दिया जाता है। हिंदू, बौद्ध, और ईसाई इत्यादि धर्मो में तो सरलता का एक विशिष्ट महत्व है। ऐसा माना जाता है कि सरलता ही कोमल हृदय की जननी है। शुद्ध-हृदय, साहस, निष्ठा, मेल-मिलाप की प्रवृत्ति, आज्ञाकारिता, आत्म-त्याग और संयम इत्यादि सभी गुण अंतःकरण की सरलता से ही प्राप्त होते हैं। स्वार्थ को त्याग कर दूसरों के हित के लिए प्रयत्नशील होने की प्रवृत्ति, प्रेम द्वारा दूसरों को अपना लेने की प्रवृत्ति, आत्माओं का विस्तार कर लेने की प्रवृत्ति और दूसरों के लिए कष्ट सहने की प्रवृत्ति, अंतःकरण की सरलता का ही परिणाम है।
क्रोध को भी निष्कलंकित जीवन जीने की राह में एक प्रतिरोध माना जा सकता है, क्योंकि क्रोध ही हिंसा को उत्पन्न करता है। क्रोध प्रत्येक दृष्टि से हेय है। क्रोध से ही मनुष्य के मन में कंपन, जलन और दूषित संस्कार उत्पन्न हो जाते हैं। जो मनुष्य के अंतःकरण की शांति को भंग कर देते हैं। मन की चंचलता व संतुलन को नष्ट कर समाजिक कलह उत्पन्न कर देते हैं। बुद्धि पर पर्दा डाल देते हैं और मनुष्य की मनोवृत्ति कुछ इस प्रकार परिवर्तित कर देते हैं कि मनुष्य पाप कर्म करने की ओर प्रेरित हो जाता है। अतः क्रोध पर नियंत्रण कर मनुष्य निष्कलंकित जीवन आसानी से व्यतीत कर सकता है।
अतः परमपिता परमेश्वर से यह प्रार्थना है कि वह हमें लोभ, क्रोध और हिंसा से दूर रखकर सत्कर्मो की ओर प्रेरित करें।
******************