Dah-Shat - 44 in Hindi Thriller by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | दह--शत - 44

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दह--शत - 44

एपीसोड ---44

रास्ते भर उसे होली की दौज की पूजा याद आ रही है। पूजा के बाद उसकी नानी घर के बाहर के कमरे में एक लम्बा मूसल उठाकर चल देती थीं, “चलो बैरीअरा कूटें।”

नन्हीं वह अपनी मम्मी से पूछती थी, “मम्मी ! ये बैरीअरा क्या होता है?”

“बैरी अर्थात दुश्मन। ये एक तरह का टोटका किया जाता है कि सारे वर्ष दुश्मन परेशान न करें।”

बाहर के दरवाज़े के पास एक कोने में थोड़ी घास डालकर उस पर पानी छिड़क कर नानी व बाद में घर की सारी स्त्रियाँ मूसल से उसे कूटती थीं व गाती जाती थीं, “बैरीअरा कूटे हैं सभी, छोटन, बड़न के बैरीअरा कूटे हैं सभी।”

क्या सबके दुश्मन होना एक शाश्वत सत्य है ? उसके दुश्मन तो इतने भयानक हैं ड्रग के नशे में अँधे बब्बर शेर बन जाते हैं। उन्हें कुचलने का कौन सा बड़ा मूसल कहाँ से लायें ?

***

जाँच अधिकारी अमित कुमार ने सुरक्षा विभाग की सहायता ली है। उन दुश्मनों के पीछे उन पर नज़र रखने सुरक्षा विभाग के लोग लगे हैं या नहीं, पता नहीं अलबत्ता समिधा सप्ताह में एक-दो बार ख़रीदारी के लिए या किसी परिचित के घर निकलती है तो उसे पता लग जाता है कि इस विभाग के लोग अपनी यूनिफ़ॉर्म में या जीप में उसका पीछा कर रहे हैं। वह बिल्कुल शांत है- ‘अमित कुमार! मेरा पीछा करवा कर देख लो कि मैं कहाँ ‘इन्वॉल्व’ हूँ ?’

समिधा के अतल गहराइयों में जा धँसे मन को सहारा हो गया है कि अब कुछ न कुछ सबूत ढूँढ़कर हैड ऑफ़िस पहुँचाया जायेगा। इस बार उसने वर्मा के साथ विकेश के स्थानांतर की भी माँग की है।

वर्ष के प्रथम सप्ताह में अभय कहते हैं, “आज महुआकर के यहाँ गृहप्रवेश है। ऑफ़िसवालों को उसने बुलाया है। मैं लंच बाहर ही लूँगा।”

“ठीक है।” वह लापरवाही से कहती है मन ही मन प्रार्थना करती है कि अभय ! आज तुम कुछ ऐसा करो कि कुछ सबूत मिले।

अभय शाम को हल्के उनींदे से चेहरे पर वहशी चमक लिये लौटे हैं, आँखें चुराते। तो फिर ड्रग.....कहीं सिलसिला फिर चालू नहीं हो जाये। वे अधलेटे से सोफ़े पर बैठे टी.वी. देख रहे हैं। वह जानबूझकर साहिल को फ़ोन करती है, “साहिल! अपने जीजाजी को बता दो कि क्राइम ब्राँच के लोग मुम्बई से यहाँ आये हुए हैं।”

“ओ नो ! जीजाजी से मैं ऐसी बात कैसे कर सकता हूँ ?”

वह ज़बरदस्ती अभय के हाथ में फ़ोन का रिसीवर पकड़ा देती है। अभय घबराये से पूछते हैं, “आप कैसे हैं?”

वह भी इधर-उधर की बात करके फ़ोन काट देता है।

अभय फ़ोन रखकर दूसरे कमरे में जाकर शवासन करने लगते हैं। समिधा चैन की साँस लेती है कुछ दिन की राहत का इंतज़ाम उसने कर लिया है।

बीस बाईस दिन बाद ही अभय शरारत से कहते हैं, “अब तुम्हारी पोल खुलेगी?”

“मेरी जब पोल है ही नहीं तो क्या खुलेगी?”

वह उलझी रह जाती है। कुछ दिनों बाद ही रोली का फ़ोन आ जाता है, “मॉम! हम लोग अपनी मैरिज एनीवर्सिरी आपके पास ‘सेलीब्रेट’ करना चाहते हैं। आपको तो पता है मेरे इन-लॉज़ यू.एस. वाले जेठजी के यहाँ हैं।”

“ओ श्योर! मैं तो स्वयं तुझे फ़ोन करने वाली थी कि तुम लोग यही आ जाओ।”

अभय व उसे होटल मैनेजर से पार्टी की बात तय करते देखकर कौन कह सकता है कि उन उनके बीच एक काला ज़हर फनफना रहा है। वह हर समय अपने को संतुलित करने में लगी है, “प्लीज! गुडीज़ के टू केजी पाइन एपल केक का इंतज़ाम आप ही कर दीजिए।”

“श्योर।”

“उसको पेपर कप्स में सर्व भी करवा दीजिए।”

“श्योर।”

“सूप व स्टार्टर भी आप सर्व करवा दीजिए। डिनर तो लोग अपने आप ले ही लेंगे।”

***

अचानक दूसरी सुबह आठ बजे ऑफ़िस से फ़ोन आता है, “श्रीमती सिंघल की अचानक डैथ हो गई है। बारह बजे उनकी उठावनी है। आप लोग पहुँचिए।”

अभय कहते हैं, “मैं ऑफ़िस से ग्यारह बजे आ जाऊँगा, तैयार रहना।”

सिंघल परिवार से तो वर्मा परिवार के सम्बन्ध अच्छे हैं लेकिन वे दोनों किस मुँह से वहाँ पहुँचेंगे?

ऐसे स्थान पर जाकर मन स्वतः ही अवसाद से भर जाता है, आँखें भीग जाती हैं। इस बड़े कम्पाउण्ड में चार इमारते हैं। सिंघल दाँयी तरफ की इमारत के निचले फ़्लैट में रहता है। कुठ लोग श्रीमती सिंघल की आखिरी यात्रा की तैयारी में लगे हैं। लोगों की भीड़ में विकेश को मेरून कलर की टी-शर्ट पहने देखकर हैरानी होती है...... ऐसा रंग और ऐसे मौके पर? भीड़ में कविता भी दिखाई देती है .उसकी काली, हल्की लालिमा लिए आँखें समिधा से टकराती है। समिधा जानबूझ कर कसकर उस पर आँखें गढ़ाये हैं, कुछ क्षण तो सकपकायेगी लेकिन वाह री कविता !

उस मृत्यु के माहौल में वह कविता की बेशर्मी देखकर मन ही मन बुदबुदाने लगती है कि बात चेयरमेन तक पहुँच गई है तू बिना किसी शर्म के सामने खड़ी है। समिधा की आँखें इसके पति को ढूँढ़ रही हैं। उसमें कहाँ हिम्मत है, वह दिखाई नहीं देता। अर्थी के पीछे जाती भीड़ में से विकेश जानबूझ कर उसके सामने से ऐसे निकलता है कि उसकी आँखों का व्यंग समिधा की आँखों से टकराये,“क्या कर लिया तुमने शिकायत करके?``

समिधा को लग रहा है उसके आस-पास गिजगिजे साँप रँग रहे है।

शवयात्रा निकलने के बाद स्त्रियाँ कम्पाउंड में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गई है। इत्तेफ़ाक ऐसा है कविता थोड़ी दूर पर चार-पाँच स्त्रियों के साथ बिल्कुल सामने बैठी है। समिधा उसे एकटक घूरे जा रही है। उसकी आँखें एक क्षण भी क्षोभ से नहीं झुकती, न चेहरे पर लज्जा की एक भी सिलवट है। कौन कह सकता है सामने बैठी ये घरेलू औरत इतनी भयानक है जिसने अच्छे ख़ासे घर में आग लगाकर रख दी है।

ओ माई गॉड ! ये बात उसके दिमाग़ में पहले क्यों नहीं आई? सामने बैठी कविता की ये लाल सरूर भरी आँखें उसे कुछ बता रही हैं – ये अपने शिकार को वियाग्रा जैसी कोई ड्रग का नाम लेकर नशीली दवा देती होगी तो उसे विश्वास में लेने के लिए स्वयं भी तो ड्रग लेती होगी। ड्रग के नशे में अपने दिए ‘एडिक्शन’ से स्वयं भी तरबतर होती होगी। वे वहशीपन यह कितने वर्षों से कर रही है? वह सड़क पर अभय के साथ भी होती है तो कितनी बार उसे अपनी बालकनी से अभय पर वहशी आँखों को गड़ाकर टकटकी लगाये देखा है। उसे उस मुद्रा में देखकर समिधा को काली नागिन याद आती रही है जो अपनी जहरीली जीभ लपलपा कर भयानक आँखों से अपने शिकार को देखती होगी। तो उस जानवरनुमा उन्माद को पाने के लिए किसी स्तर तक जा सकती है? उसी उन्माद के लिए वर्मा व विकेश पालतू बने हुए हैं। वह समिधा को दिखना चाहती है औरत की किताबों की दुनियाँ से अधिक ताकतवर है औरत की काली ताकत। क्या सच ही? समिधा को उसके इसी दर्प को कुचलना है। आज भी इसी नशीली ताकत से सब औरतों के बीच यह सड़क छाप औरत अपने को शेरनी समझ रही है।

कहीं रोमानिया में फैले खंडहरों के ड्रेक्यूला की कहानियाँ इन्हीं सेक्स अपराघियों की प्रतीक कथायें तो नहीं हैं? ड्रेक्यूला अपने पैने दाँतों से जिसका खून पी ले वही पिशाच बन जाता है। कोई भी इनसान यदि इनका रहस्य जान ले तो ये उसे अपनी बिरादरी में शामिल करने के लिए असली रूप में आ जाते हैं -मुँह फाड़े केनाइन दाँत निकाले, लम्बे नाखूनों वाले निशाचर ! जिनके मुँह से नाखूनों से खून टपकता है।

ड्रेक्यूला जब चमकते लाल रंग की सेटिन की पट्टी वाली नेकलाइन का काला कोट पहने रहता था तो सभ्य नज़र आता था। अपना शिकार देखते ही उसका कोट चिमगादड़ के डैनों में बदल जाता था। वह खूंखार दरिंदा बन जाता था। उसने एक फ़िल्म देखी थी जिसके हीरो की गर्दन पर दाँत का एक हल्का निशान उभर आया था, वह पूरी तरह पिशाच नहीं बना था। उसकी पत्नी उसे पिशाचों के पंजे से छुड़ाने के लिए अपनी जान पर खेल जाती है। क्या वही रोल समिधा भी नहीं कर रही

बार-बार कोई अच्छा इंसान ड्रेक्यूला को मार देता है। कभी पानी, कभी आग, कभी क्रॉस से, कभी धूप से, लेकिन कितने बरस? वह फिर, फिर जन्म लेता है और पिशाच पैदा करता है। एक अच्छा इंसान उसका अंत करता है। यदि अच्छा इंसान न हो तो पृथ्वी पिशाचों से भर जाये। क्या यही है वह सत्य कि पृथ्वी अच्छे लोगों के कारण टिकी हुई है?

उसके सामने बैठी है शी-ड्रेक्यूला। तो क्या ऊपर वाला जब एक पिशाच पैदा करता है तो साथ ही एक अवतार पैदा करता है ! इसके विनाश के लिए भगवान ने उसे चुना है या इस गलीज़ षड्यंत्र में घिरी वह इसी बात को सोचकर वह हिम्मत बाँधे हैं। जब भी बात बढ़ी है उसे कोई ट्रिक सूझ गई है या कहीं से ऊपर वाले का इशारा मिला है। लेकिन ऊपर वाले को उथल-पुथल करने की ज़रूरत ही क्या है ऊपरवाला भी ये निर्ल्लजता सह नहीं पाता। दो दिन बाद ही साहिल का फ़ोन आ जाता है,“दीदी, ! वर्मा का लोकल ट्रांसफर कर दिया गया है। उसने कह दिया है अप्रैल में मकान खाली कर देगा।”

रात में घूमते हुए उसकी आत्मा प्रसन्न है। एक कमरे के अलावा वह सारा घर अंधकार में डूबा हुआ है। दो-तीन दिन अभय की बौखलाई सूरत देखकर समझ जाती है कि उधर का मोबाइल स्विच बंद है।रोली की मैरिज एनीवर्सिरी के दिन वह सुबह अँग्रेजी अख़बार खोलती है। आँखें अंदर के एक पृष्ठ पर एक डॉक्टर के लेख पर अटक जाती है “साइकोट्रॉपिक ड्रग्स केन चेंज द माइन्ड” ओ बाप रे! पूरा लेख वह एक साँस में पढ़ जाती है। उसकी इन लाइनों को लाल पेन से घेर देती है जिससे अभय की उन पर नज़र जाये, ‘साइकोट्रॉपिक्स ड्रग्स कैन चेंज द माइंड, बिहेवियर एण्ड इमोशन्स ऑफ ह्यूमेन बिइंग’.... तो मिस आगरा को.... दुबई में बेची जाने वाली लड़कियों को..... अभय को दी जाने वाली ड्रग्स साइकोट्रॉपिक कहलाती हैं। हे भगवान ! तभी अभय पागल गुंडे जैसे हो जाते थे।

थोड़ी देर बाद उठकर अभय अख़बार पढ़ते हैं। उनके चेहरे पर हैरानी व परेशानी है। अख़बार का वह पृष्ठ वह गायब कर देते हैं, जैसे उसके शक पर मुहर लग जाती है।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com