Baat bus itni si thi - 3 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 3

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बात बस इतनी सी थी - 3

बात बस इतनी सी थी

3

जब मैं वहाँ से वापिस लौटा, तब मंजरी अपने केबिन में नहीं थी । मैं खुद से ही पूछने लगा -

"कहाँ गयी होगी ? क्यों गयी होगी ? कहीं मेरे व्यवहार से नाराज होकर तो नहीं गयी होगी ?"

शाम तक बहुत व्यग्रतापूर्वक मैं अपने प्रश्नों में उलझता रहा । अन्ततः, जब ऑफिस छोड़ने का समय हुआ, मेरी नजर मेज पर करीने से रखे हुए एक कागज पर पड़ी, जिस पर लिखा था -

"कल अपनी माता जी को साथ लेकर मेरे मम्मी-पापा से मिलने के लिए मेरे घर पर आ जाना !" नीचे की एक पंक्ति में घर का पता लिखा था ..।

कागज के उस टुकड़े को पढ़कर मेरे मन में बिना बताये मंजरी के चले जाने को लेकर उठ रहे सभी प्रश्नों का उत्तर तो मिल गया था । किन्तु मंजरी का उसके घर जाने का प्रस्ताव देखते ही मुझे फिर उसी पुराने प्रश्न ने आकर घेर लिया था, जो पिछले बीस साल से मुझ पर अपनी गिरफ्त बनाये हुए था -

"सात जन्मों तक न सही, पर क्या आधुनिकता की अंधी दौड़ में दौड़ते हुए भी हम कम-से-कम इस जन्म में मरते दम तक 'जीवन-साथी' बने रहेंगे ?"

"शायद !" मेरे अन्दर से निश्चय-अनिश्चय का मिला-जुला एक शब्द का उत्तर आया । इस उत्तर से संतुष्ट नहीं होने के बावजूद मैं मंजरी के प्रस्ताव को माता जी की इच्छा पूर्ति के लिए एक अवसर के रूप में देख रहा था और किसी भी परिस्थिति में मैं इस अवसर को गँवाना नहीं चाहता था । इसलिए मैंने उसी समय माता जी को फोन करके मंजरी और उसके प्रस्ताव के बारे में बताकर उनसे तुरन्त दिल्ली आने के लिए निवेदन किया । माता जी मेरे निवेदन को स्वीकार करते हुए तुरन्त दिल्ली आने और मंजरी से मिलने के लिए तैयार हो गयी ।

अगले दिन मैंने ऑफिस से हाफ़ डे की छुट्टी ली और शाम होने से पहले अपनी माता जी को लेकर मंजरी के घर पहुँच गया । पहली मुलाकात में ही मंजरी के माता-पिता ने मुझे और मेरी माता जी ने मंजरी को पसंद कर लिया । दोनों रिश्तेदार आपस में एक-दूसरे से ऐसे घुल मिल गए, जैसे उनका बरसों पुराना परिचय हो ।

हम दोनों के माता-पिता जिस पल की प्रतीक्षा वर्षों से करते रहे थे, आज वह समय आ चुका था । इसलिए, हम दोनों की पसंद का पता चलने के बाद मेरी माता जी और यंजरी के माता-पिता दोनों चाहते थे कि हमारी शादी जल्दी से जल्दी संपन्न हो जाए ! हम दोनों की इस विषय में पहले ही सहमति बन चुकी थी । मेरी माता जी ने मंजरी के माता-पिता के सामने अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा -

"यदि आप सहमत हैं, तो हमें इन दोनों के विवाह के लिए पंडित जी से शुभ मुहूर्त निकलवा लेना चाहिए ? बेहतर रहेगा कि इनकी शादी जल्दी-से-जल्दी संपन्न करा दी जाए ! देर करने से कोई फायदा नहीं है !"

मेरी माता जी की बात सुनकर मंजरी के पिता ने ठहाका लगाया -

"ठीक है बहन जी ! जब लड़का लड़की राजी, तो क्या करेगा काजी !"

मंजरी के पिता ने उसी दिन, उसी समय पंडित जी को बुलाकर हम दोनों की कुंडलियों का मिलान कराया लिया । कुंडली में हम दोनों के बत्तीस गुण मिलते थे, इसलिए पंडित जी के अनुसार हम दोनों की जोड़ी लाखों में एक संयोग थी । शुभ संयोग के उत्साह में उसी समय पंडित जी से हमारी शादी के लिए शुभ मुहूर्त भी निकलवा लिया गया, जो उस दिन के दो महीने बाद बारह मार्च की तिथि थी ।

मंजरी का परिवार वैसे तो शहर में रहता था, लेकिन उसके पिता की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह गाँव में बने अपने पैतृक घर में संपन्न कराएँ ! उनकी इस इच्छा को मेरी माता जी ने बड़ी सरलता और सहजता से शिरोधार्य कर लिया था ।

हमारे दोनों परिवारों स्थानीय परम्परा के अनुसार शादी की तिथि निश्चित होने के बाद मैं और मंजरी अब शादी से पहले एक-दूसरे से फिजिकली नहीं मिल सकते थे । हालांकि मोबाइल पर वीडियो कॉल करके बातचीत करने पर कोई पाबंदी नहीं थी । फिर भी दो महीने का समय मंजरी से दूर रहकर काटना मैरे लिए मुश्किल हो रहा था और बारह मार्च का इन्तजार मैं एक युग के बीतने के इन्तजार की तरह कर रहा था ।

दोनों परिवारों में शादी की तैयारियाँ शुरू हो गई थी । दोनों ही परिवारों में पूरे जोर-शोर से शॉपिंग होने लगी थी । मैंने मेरी माता जी को समझाया कि मुझे ज्यादा खर्चीली शादी बिल्कुल पसंद नहीं है, लेकिन मेरी माता जी ने मेरी एक नहीं मानी । मेरी माता जी ने अपनी होने वाली बहू मंजरी को साथ लेकर उसके लिए उसकी पसंद के तरह-तरह के कीमती वस्त्र और आभूषण खरीदें । मंजरी को भी शॉपिंग का बहुत शौक था । उसने मेरे हजार बार मना करने के बावज़ूद मुझे शादी का उपहार देने के लिए मेरी पसंद के कुछ कपड़े खरीदें, जिनका भुगतान मेरे बार-बार मना करने के बाद भी उसके पापा ने किया । मेरी असहमति के बावजूद शॉपिंग का यह क्रम शादी के एक दिन पहले तक लगातार चलता रहा ।

बारह मार्च को बारात के रूप में अपने कुछ थोड़े-से नाते-रिश्तेदारों को लेकर मैं और मैरी माता जी निर्धारित समय पर मंजरी के पैतृक गाँव में सुनिश्चित विवाह के कार्यक्रम-स्थल पर पहुँच गए । हमारे पहुँचते ही स्वागत की शहनाइयाँ बजने लगी । स्वागत में लगे हुए ज्यादातर लोग कुटुम्ब समाज के थे । इसलिए सभी यें अपनापन और आत्मीयता थी । कहीं किसी में कोई दिखावा रा औपचारिकता नहीं थी, यह देखकर मन को अच्छा लग रहा था ।

स्वागत की रस्म के बाद डिनर और उसके बाद शादी की मुख्य रस्म के लिए हमें भंडप यें बुवाया गया । मंडप फूलों-पत्तियों और रंग-बिरंगी तरह-तरह की छोटी-बड़ी लाइटों से सजा हुआ था । पंडित जी के निर्देश पर हम सब वहाँ यथास्थान बैठ गये । मेरे और मंजरी के परिवारजनों के अलावा हमारे नाते-रिश्तेदार तथा उसके गाँव के बहुत से लोग भी वहाँ पर उपस्थित थे, जो हमारे विवाह-संस्कार में शामिल होकर हमारे पक्ष में अपने आशीर्वाद को प्रमाणित कर रहे थे । हमारे बैठते ही पंडित जी ने अपना काम शुरू कर दिया ।

यज्ञ-वेदी में अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही थी । यज्ञ-वेदी के एक ओर कुशासन पर बैठकर पंडित जी मंत्रोच्चारण कर रहे थे, दूसरी ओर मैं और मंजरी बैठे थे और पंडित जी का अनुकरण करते हुए मंत्रोच्चारण कर रहे थे । काफी समय तक मंत्रोच्चारण करने के बाद पंडित जी ने निर्देश दिया -

"कन्या के माता-पिता आगे आकर कन्यादान का अनुष्ठान संपन्न करें !"

पुरोहित जी का आदेश सुनकर मंजरी के पिता बहुत प्रसन्न थे । मंजरी के जन्म से पहले ही उसके पिता के संतृप्त मानस में यह इच्छा सुरक्षित हो गयी थी कि भगवान उन्हें एक बेटी दे दे, तो उसका कन्यादान करके उनका जीवन धन्य हो जाएगा ! भगवान ने उनकी ऐसी सुनी कि प्रार्थना करने के अगले ही वर्ष उनके घर में एक सुंदर कन्या ने जन्म ले लिया । उस दिन से आज तक अट्ठाईस वर्ष बीत चुके हैं । आज उनकी बेटी मंजरी अट्ठाईस वर्ष की हो चुकी है । आज वह इतनी बड़ी, इतनी समझदार और आत्मनिर्भर हो गयी है कि उसने खुद अपनी पसंद का योग्य वर चुन लिया था, जो उसके पिता को भी खूब भाया था । यह सोचकर मंजरी के पापा की आँखों में आँसू छलक आये । वे पुरोहित से बोले -

"पुरोहित जी., बेटी का पिता होने का मुझे गर्व है ! कन्यादान करने की मेरी वह मनोकामना आज पूरी होगी, जिसको मैंने अपने दिल में बरसों से संजोकर रखा है !

कहते हूए मंजरी के पिता ने अपने स्थान से उठकर पुरोहित द्वारा निर्देशित स्थान की ओर बढ़ने का उपक्रम किया, तभी मंजरी का स्वर वातावरण में गूंज उठा -

"पुरोहित जी ! कन्यादान वाला अंश छोड़ दीजिए और आगे बढ़िए !"

मंजरी के शब्द कानों में पड़ते ही वहाँ पर उपस्थित सभी लोग निशब्द होकर आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे । पुरोहित जी कुछ नहीं समझ सके कि विवाह के लिए मंडप में बैठी हुई कन्या आखिर क्या चाहती है ? कन्यादान का अनुष्ठान संपन्न कराने में क्या आपत्ति है ? और क्यों ? एक क्षण के बाद थोड़ा-सा सकपकाते हुए पुरोहित जी ने कहा -

"बेटी, कन्यादान का अनुष्ठान पूरा किए बिना विवाह संपन्न नहीं हो सकता है !"

"पुरोहित जी, वह युग बीत गया, जब कन्यादान और मंगलसूत्र से विवाह संपन्न होता था ! आज के जटिल समाज में न तो इनकी कोई उपयोगिता रह गई है और न ही आवश्यकता । वर्तमान समय में विवाह संपन्न तब होता है और तभी मान्य होता है, जब संबंधित विभाग में विवाह का पंजीकरण हो जाए !"

"बेटी, विवाह का पंजीकरण तो कन्यादान-अनुष्ठान के पश्चातृ भी हो जाएगा ! विवाह संस्कार में यह अनुष्ठान बहुत ही महत्वपूर्ण है और हिंदू संस्कृति में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है !"

पुरोहित जी के मुख से कन्यादान के पक्ष में यह तर्क सुनते ही कि यह सदियों से चली आ रही पुरानी परंपरा है, इसलिए इसका विरोध नहीं करना चाहिए ! मंजरी का कोयल की कूक के समान मधुर स्वर सिंह की गर्जना में बदल गया -

"पुरोहित जी, मैं उन परंपराओं को नहीं स्वीकार कर सकती, जो मेरे अस्तित्व को नकारते हैं !"

मंजरी के निर्णय को सुनकर और उसके चेहरे पर उभर आई दृढ़ता को देखकर पुरोहित जी सहम गए । उन्होंने बड़े असमंजस-भाव से मंजरी के पिता की ओर देखा और बोले -

"जजमान यह तो हमारा और युगों-युगों से चली आ रही समाज की परंपराओं का सरासर अपमान है ! हमारी संस्कृति का और धर्म का भी अपमान है !"

पुरोहित जी के वचनों का मंजरी के पिता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा । मंजरी द्वारा कन्यादान-अनुष्ठान के विरोध की अनदेखी करते हुए मंजरी के पिता ने पंडित जी से कन्यादान संपन्न करने का आग्रह किया -

"पुरोहित जी, मैं आपके मत से शत-प्रतिशत सहमत हूँ ! आप कन्यादान संस्कार की रस्म को आगे बढाइए !"

मंजरी द्वारा किये गये कन्यादान-अनुष्ठान के विरोध की अनदेखी करते हुए जब मंजरी के पिता ने पंडित जी से कन्यादान संपन्न करने का आग्रह किया, तो मेरी माता जी, जो अब तक चुप बैठी थी, आवेश में आकर बोली -

"बहुत हो चुका तमाशा ! मैं अब अपना और अपने बेटे का अपमान और नहीं होने दूँगी !"

मेरी माता जी के मुँह से विरोध का स्वर फूटते ही मंडप में बैठे हुए समाज के सभी गणमान्य लोगों में विरोध की लहर दौड़ गई ।

क्रमश..